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जैन पूजांजलि
निज का अभिनन्दन करते ही मिथ्यात्व मूल से हिलता है । निज प्रभु का वंदन करते ही आनंद अतीन्द्रिय मिलता है ।
वक्षारों के अस्सी वंदं गजदंतों के वंदूं बोस । तीस कुलाचल के मैं वंदू श्रद्धा भाव सहित जगदोश ॥ मनुज लोक के चार शतक मैं दो कम चंत्यालय बंदू । ढाई द्वीप से आगे के द्वीपों में साठ भवन वदूं । इकशत वेशठ कोटिलाख चौरासी योजन नंदीश्वर । अष्टम द्वीप दिशा चारों में हैं कुल बावन जिन मंदिर ॥ चारों दिशि में अंजनगिरि, दधिमुख, रतिकर, पर्वत सुन्दर। देव सुरेन्द्र सदा पूजन वंदन करने आते सुखकर ॥ कुन्डल गिरि है द्वीप ग्यारवां चार चैत्यालय बन्दूं। द्वीप रुचकवर तेरहवें के चार जिनालय में वन्दू ॥ मध्यलोक तेरहद्वीपों में चार शतक अट्ठावन गृह । एक एक में एक शतक अरु आठ पाठ प्रतिमा विग्रह ॥ प्रष्ट प्रतिहार्यों से शोभित रत्नमयो जिन विम्ब प्रवर । प्रष्ट अष्ट मंगल द्रव्यों से हैं शोभायमान मनहर ॥ उनन्चास सहस्र चार सौ चौंसठ चिन प्रतिमा पावन । सभी अकीर्तम हैं अनादि हैं परम पूज्य अति मन भावन । एक शतक प्ररु अर्धशतक योजन लंबे चौड़े जिनधाम । पौन शतक योजन ऊंचे हैं भव्य गगनचुंबी सुललाम ।। उत्तम से प्राधे मध्यम इनसे प्राधे जघन्य विस्तार । इन्द्र चढ़ाते ध्वजा सुपूजन इन्द्रध्वज करते सुखकार ॥ उच्च शिखर पर दश चिन्हों के ध्वज फहराते हैं हषित । प्रष्ट द्रव्य देवोपम चरण चढ़ाते हैं कर मस्तक नत ॥ माला,सिंह,कमल,गज, कुश,गरुड़,मयूर,वृषभ के चित्र । चकवा चकवी, हंस चिन्ह शोभित बहुरंगी ध्वजा पवित्र॥