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ॐ
श्री
जैन पूजांजलि
ॐ नमः सिद्धेभ्यः
चतुर्विशंति जिन स्तोत्र प्रथम जिनेन्द्र तीर्थ कर प्रभु, ऋषभदेव को सविनय वंदन । वृषभ जिनेश्वर आदिनाथ विभ, आदिब्रह्म भवकष्ट निकंदन ॥१॥ अजितनाथ अजितंजय अविकल, अजर अमर अनुपम अविनाशी। वीतराग सर्वज्ञ हितंकर, ज्ञान ज्योतिमय स्वपर प्रकाशी ॥२॥ संभवनाथ सौख्य के सागर, सर्वगुणों के आश्रयदाता । लोकालोक प्रकाशक जिनरवि, जो भी ध्याता शिवसुख पाता ॥३॥ अभिनदन आनंदसिंधु प्रभु, अविनश्वर अविकारी ज्ञायक । आधि ब्याधि पर की उपाधि के, क्षयकर्ता आनंदप्रदायक ॥४॥ सुमति जिनेन्द्र सुमति के दाता, दुर्नय तिमिर निवारण कारण । सहजानंदी शुद्ध स्वरूपी, परम पूज्य भवसागर तारण ॥५॥ पद्मनाथ प्रभु पदम ज्योतिधन, उद्योतित त्रिभुवन में नामी । पदमरागमणि प्रभा दग्ध में, जैसे व्यापे अंतर्यामी ॥६॥ हे सुपार्श्व स्वामी शत इन्द्रों से, वंदित हैं चरण तुम्हारे । एक सहस्र अष्टनामों से, थुति करके इन्द्रादिक हारे ॥७॥ चद्रनाथ चदाप्रभुके चरणाम्बुज, ध्याते ऋषि-मुनि-गणधर । कोटिक चंद्र सूर्य लज्जित हैं, ऐसे ज्योतिर्मय जगदीश्वर ॥८॥ पुष्पदंत परिपूर्ण ज्ञानमय, सुविधिनाथ शिवनाम तुम्हारा। पावन परम प्रकाशमयी प्रभ, परमतेजमय जीवन सारा ।। शोतलनाथ शील के सागर, शुचिमय शीतल सिंधु सरल हो। नाम-मात्र से अमृत होता, चाहे जैसा तीव्र गरल हो ॥१०॥ श्री श्रेयांसनाथ श्रेयस्कर, श्रेयस पद की मुझे चाह है। जो भी शरण आपकी आता, होती उसे न राग दाह है ॥११॥ वासुपज्य वागीश्वर विघ्नविनाशक विश्वभूप सुखकारी । सुर नर पशु नारक गतियों से, तुम्हीं बचाते भवदुखहारी ॥१२॥