________________
१८६]
जैन पूर्जाजलि
जब तक नहीं स्वभाव भाव है तब तक है संयोगी भाव । जब संयोगी भाव त्याग देगा तो होगा शुद्ध स्वभाव ॥
परम मोक्ष कल्याण की महिमा अपरम्पार ।
प्रष्ट कर्म को नाश कर नाथ हुए भव पार ॥ गुण स्थान चौदहवां पाकर योगों का निरोध करते । अन्तिम शुक्ल ध्यान के द्वारा कर्म अघातिया भी हरते ॥ अ, इ, उ, ऋ, ल उच्चारण में लगता है जितना काल । तीन लोक के शीष विराजित हो जाते हैं प्रभु तत्काल । तन कपूर वत उड़ जाता है नख अरु केश शेष रहते । मायामयी शरीर देव रच अन्तिम क्रिया अग्नि दहते ॥ मंगल गीत नृत्य वाद्यों की ध्वनि से होता हर्ष अपार । भव्य मोक्ष कल्याण मनाते सब जीवों को मङ्गलकार ।। ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र मोक्षफल कल्याणकेभ्यो अर्घम् नि ।
४ जयमाला 8 जिनवर पंच कल्याण की महिमा प्रगम अपार ।
गर्भ जन्म तप ज्ञान सह महा मोक्ष शिवकार ॥ वृषभादिक चौबीस जिनेश्वर के मंगल कल्याण महान । गर्भ जन्म तप ज्ञान मोक्ष पाँचों कल्याणक महिमावान ।। श्री पंच कल्याणक पूजन करके निज वैभव पाऊं। सोलह कारण भव्य भावना मैं भी हे जिनवर भाऊँ ॥ जिन ध्वनि सुनकर मेरेमन में रहा नहीं प्रभु भय का लेश। पूर्ण शुख ज्ञायक स्वरूप मय एक मात्र है उज्ज्वल वेश । संयोगी भावों के कारण भटक रहा भव सागर में। जिन प्रभु का उपदेश सुना पर मिला नहीं निज गागर में। अवसर आज अपूर्व मिल गया प्रभु चरणों की पूजन का। सम्यक दर्शन माज मिला है फल पाया नर जीवन का ।।