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________________ ७२] जैन पूजांजलि देह तो अपनी नहीं है देह से फिर मोह कैसा ॥ जड़ अचेतन रूप पुद्गल द्रव्य से व्यामोह कैसा । चारों कषायों का सङ्ग हे प्रभु हट जाये। हो कर्म का चक्र का ध्वंस भव दुख मिट जाये ॥ हे शीतल. ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय अप्ट कर्म विध्वंसनाय धूपम नि० । निर्वाण महा फल हेतु चरणों में पाया। दुख रूप राग को जान अब निज गुण गाया ॥ हे शीतल. ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्तये फलम् नि । प्रात्नानुभूति की प्रीति निज में है जागी। पाऊँ अनर्घ पद नाथ मिथ्या मति भागी॥ हे शीतलनाथ जिनेश शीतलता धारी । हे शील सिन्यु शीलेश सब सङ्कट हारी ॥ ॐ ह्री श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्ताये अर्घम् नि० । श्री पंच कल्याणक चैत्र कृष्ण अष्टमी स्वर्ग अच्युत को तज कर तुम आये। दिक्कुमारियों ने हषित हो मात सुनन्दा गुण गाये ॥ इन्द्र प्राज्ञा से कुबेर नगरी रचना कर हर्षाये । शीतल जिन के गर्भोत्सव पर रत्न सुरों ने बरसाये ।। ॐ ह्री श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय चैत्र कृष्णा अष्टमी गर्भ कल्याणक प्राप्ताये अर्घम् नि० स्वाहा। भहिलपुर में राजा दृढ़रथ के गृह तुमने जन्म लिया। माघ कृष्ण द्वादशी इन्द्र सुर ने निज जीवन धन्य किया। गिरि सुमेरु पर पाण्डुक वन में क्षीरोदधि से हवन किया। एक सहस्त्र अष्ट कलशों से हर्षित हो अभिषेक किया । ॐ ह्री श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय माघ कृष्ण द्वादशी जन्म मङ्गल मण्डिताय अर्घम् नि० स्वाहा ।
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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