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जैन पूजांजलि
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ज्ञायक स्वभाव के सन्मुख हो पुरुषार्थ जीव जब करता है ।
जड़ कर्मों की छाया तक को अंतर्मुहूर्त में हरता है ।। शरद् मेघ परिवर्तन लख कर उर छाया वैराग्य महान । लौकान्तिक देवों ने प्राकर किया प्रापका तप कल्याण ॥ सकल परिग्रह त्याग तपस्या करने वन को किया प्रयाग । माघ कृष्ण द्वादशी सहेतुक वन में गूजा जय जय गान । ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय माघ कृष्ण द्वादशी तप कल्याणक
प्राप्ताये अय॑म् नि० स्वाहा। पौष कृष्ण की चतुर्दशी को पाया स्वामी केवल ज्ञान । समवशरण की रचना कर देवों ने गाये मङ्गल गान ॥ सकल विश्व को वस्तु तत्व उपदेश प्रापने दिया महान । भद्दिलपुर में गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान हुए चारों कल्याण ॥ ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनन्द्राय पौष कृष्ण चतुर्दशी ज्ञान कल्याणक
प्राप्ताये अर्घ्यम नि० स्वाहा । पाश्विन शुक्ल अष्टमी को हर अष्ट कर्म पाया निर्वाण । विद्युत कूट श्री सम्मेद शिखर पर हुआ मोक्ष कल्याण ॥ शेष प्रकृति पच्चासी हर कर कर्म प्रघाति अभाव किया। निज स्वभाव के साधन द्वारा मोक्ष स्वरूप स्वभाव लिया ॥ ॐ ह्रीं आश्विन शुक्ल अष्टमी श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय मोक्ष कल्याणक प्राप्ताये अर्धम् नि० स्वाहा ।
जयमाला जय जय शीतलनाथ शीलमय शील पुञ्ज शीतल सागर । शुद्ध रूप जिन शुचिमय शीतल शील निकेतन गुण आगर ।। दशम् तीर्थङ्कर हे जिनवर परम पूज्य शीतल स्वामी। तुम समान मैं भी बन जाऊं विनय सुनो त्रिभुवन नामो॥ साम्य भाव के द्वारा तुमनें निज स्वरूप का वरण किया। पंच महाव्रत धारण कर प्रभु पर विभाव का हरण किया।