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जैन पूजांजलि
कर्म बंध का रूप जानकर शुद्धातम का ज्ञान करो । पाप पुण्य की प्रकृति विनाशो निग स्वरूप का ध्यान करो॥
पुरो अरिष्ट पुनर्वसु नृप ने विधिपूर्वक आहार दिया। प्रभु कर में पय धारा दे भव सिन्धु सेतु निर्माण किया। तीन वर्ष छद्मस्थ मौन रह प्रात्म ध्यान में लीन हुए। चार घातिया का विनाश कर केवल ज्ञान प्रवीण हुए। ज्ञानावरण वर्शनावरणी अन्तराय अरु मोह रहित । दोष अठारह रहित हुए तुम छयालीस गुण से मण्डित ।। क्षुधा तृषा,रति,खेद, स्वेद, अरु जन्म जरा चिन्ता विस्मय । राग,द्वेष,मद,मोह,रोग,निद्रा, विषाद अरु मरण न भय ॥ शुद्ध बुद्ध प्ररहंत अवस्था पाई तुम सर्वज्ञ हुए। देव अनन्त चतुष्टय प्रगटा निज में निज मर्मज्ञ हुए। इक्यासी गणधर थे प्रभु के प्रमुख कुन्थ ज्ञानी गणधर । मुख्य प्रायिका श्रेष्ठ धारिणी श्रोता थे नृप सीमंधर ॥ तुम दर्शन करके हे स्वामी आज मुझे निज भान हुआ। सिद्ध समान सदा पद मेरा अनुपम निर्मल ज्ञान हा ॥ भक्ति भाव से पूजा करके यही कामना करता हूँ। राग द्वेष परणति मिट जाये यही भावना करता हूँ। निर्विकल्प प्रानन्द प्राप्ति को प्राज हृदय में लगी लगन । सम्यक् पूजन फल पाने को तुम चरणों में हआ मगन ॥ निज चैतन्य सिंह अब जागे मोह कर्म पर जय पाऊँ । निज स्वरूप प्रवलम्बन द्वारा शाश्वत शीतलता पाउँ॥ ॐ ह्रीं श्रीं शीतलनाथ जिनेन्द्राय पूर्णाय॑म् ।
कल्पवृक्ष शोभित चरण शीतल जिन उर धार । मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार ॥
x इत्याशीर्वादः ४ जाप्य- ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय नमः ।