________________
जैन पूजांजलि
[१९७
शाश्वत भगवान विराजित है आनंद कंद तेरे भीतर । पुद्गल तन में आनत्व मान देखा न कभी निज रूप प्रखर ॥
जान स्वमावी शीतलता मय चंदन निज में भरा अपार । फिर भी भव दावा नल में जल जल दुख पाया बारंबार ॥ श्री. ___ ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्रेभ्यो संसारताप विनाशनाय चन्दनम् नि।। जान स्वभावी उज्वल प्रक्षत पुंज हृदय में भरे अटूट । फिर भी अविनाशी अखांड होकर भी पा न सका निज कूट ॥श्री. __ॐ ह्रीं श्री समस्त मिद्ध क्षेत्रेभ्यो अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतम् नि । ज्ञान स्वभावी दिव्य सुगंधित पुष्पों का निज में उपवन । फिर भी भव माया में पड़ निष्काम न बन पाया भगवन ॥श्री. __ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्रेभ्यो कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि० । ज्ञान स्वभावी सरस मनोरम तृप्ति पूर्ण नैवेद्य स्वयम् । फिर भी सुधा रोग से व्याकुल तृष्णा हुई न तिल भर कम ॥श्री० __ ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्रेभ्यो क्षुधा रोग विनाशनायनैवेद्यम् नि । ज्ञान स्वभावी स्वपर प्रकाशी केवल रवि निज में अनुपम । फिर भी अघ मय अंधियारे में भटका मिटा न मिथ्यातम ॥श्री.
ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्रेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि । ज्ञान स्वभावी सहजा नंदी विमल धूप से हूं परिपूर्ण । फिर भी प्रभो नहीं कर पाया अब तक अष्ट कर्म अरि चूर्ण ॥श्री०
ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्रेभ्यो अष्ट वर्म दहनाय धूपम् नि० । ज्ञान स्वभावी शिवफल धारी अविकारी हूँ सिद्ध स्वरूप। ' फिर भी भव अटवी में अटका होकर मैं प्रभु त्रिभुगन का भूपा॥श्री. ___ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्र ध्या मोक्ष फल प्राप्ताय फलम् नि० । : ज्ञान स्वभावी चिदानंद चैतन्य अनंत गुणों से पूर। . फिर भी पद अनर्घ ना पाया रहकर निज परिणति से दूर ॥ श्री सिद्ध क्षेत्रों का दर्शन पूजन चंदन सुखकारी। जो स्वभाव का प्राश्रय लेता उसको है भव दुखहारी ॥
ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्रेभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये अर्घ्यम नि० ।