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जैन पूजांजलि
[१६५ निज में निज पुरुषार्थ करूं तो भव बंधन सब कट जायेगे । निज स्वभाव में लीन रहं तो कर्मों के दख मिट जायेंगे ।
सब मुनि मौन ध्यान में रत, लख बलि आदिक ने निन्दा की। कहा कि मुनि सब मूर्ख, इसीसे नहीं तत्त्व को चर्चा की। किन्तु लौटते समय मार्ग में, श्रुत सागर मुनि दिखलाये । वाद विवाद किया श्री मनि से, हारे, जीत नहीं पाये ।। अपमानित होकर निशि में मुनि पर प्रहार करने पाये । खड्ग उठाते ही कोलित हो गये हृदय में पछताये ॥ प्रातः होते ही राजा ने आकर मुनि को किया नमन । देश निकाला दिया मन्त्रियों को तब राजा ने तत्क्षण ॥ चारों मन्त्री अपमानित हो पहुँचे नगर हस्तिनापुर । राजा पद्मराय को अपनी सेवाओं से प्रसन्न कर ॥ मुंह मांगा वरदान नृपति ने बलि को दिया तभी तत्पर। जब चाहूंगा तब ले लूंगा, बलि ने कहा नम्र होकर ॥ फिर अकम्पनाचार्य सात सौ मुनियों सहित नगर पाये । बलि के मन में मुनियों की हत्या के भाव उदय आये ॥ कुटिल चाल चल बलि ने नप से आठ दिवस का राज्य लिया। भीषण अग्नि जलाई चारों ओर द्वेष से कार्य किया ॥ हाहाकार मचा जगती में, मुनि स्वध्यान में लीन हुए। नश्वर देह भिन्न चेतन से, यह विचार निज लीन हुए। यह नरमेघ यज्ञ रच बलि ने किया दान का ढोंगविचित्र। दान किमिच्छक देताथा, परमन था प्रतिहिंसक अपवित्र ।। पद्मराय नृप के लघु भाई, विष्णु कुमार महा मुनिवर । वात्सल्य का भाव जगा, मुनियों पर संकट का सुनकर ।। किया गमन प्राकाश मार्ग से, शीघ्र हस्तिनापुर प्राये । ऋद्धि विक्रिया द्वारा याचक, वामन रूप बना लाये ॥