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________________ [१७१ जैन पूजांजलि निज स्वभाव चेतन स्वरूप मय । पर विभाव अज्ञान रूपमय ॥ "चत्तारि लोगोत्तमा" ही सर्वोत्तम है परम शरण । "अरिहंता लोगोत्तमा" ही से होगा भव कष्ट हरण । "सिद्धा लोगोत्तमा" सु "साहू लोगोत्तमा" परम पावन । "केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगोत्तमा" मोक्ष साधन ॥ "चत्तारि शरणं पव्वज्जामि" का गूंजे जय जय गान । "अरिहंतेशरणं पव्वज्जामि" का हो प्रभु लक्ष्य महान ॥ "सिद्धेशरणं पवज्जामि" मोक्ष सिद्धि को मैं पाऊँ ॥ "साहूशरणं पन्वज्जामि" शुद्ध भावना हो भाऊ ॥ "केवली पण्णत्तो धम्मो शरणं पव्वज्जामि" है ध्येय । महा मोक्ष मङ्गल शिवदाता पाँचों परमेष्ठी प्रभु श्रेय ॥ महा मंत्र निःकांक्षित होकर शुद्ध भाव से नित ध्याऊ । पंच परम परमेष्ठी का सम्यक् स्वरूप उर में लाऊँ ॥ णमोकार का मंत्र जपू मैं णमोकार का ध्यान करूं। महा मंत्र को महाशक्ति पा नाथ प्रात्म कल्याण करूं। मह अर्ह अह जपकर निज शुद्धातम करलूं भान । नमः सर्व सिद्धेभ्यः जपकर मोक्ष मार्ग पर करूं प्रयाण ॥ ॐ ह्रीं श्री पंच नमस्कार मंत्राय पूर्णायम नि० । णमोकार के मंत्र की महिमा अगम अपार । भाव सहित जो ध्यावते हो जाते भव पार ॥ X इत्याशीर्वादः ४ जाप्य- ॐ ह्रीं श्री णमो अहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं ।
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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