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जैन पूजांजलि
दुर्जय ज्ञान धनुर्धर चेतन जब संवर को अपनाता ।
समरांगण में आए मत्त आश्रव पर यह जय पाता ।। आत्म तत्त्व का अवलंबन ले पूर्ण अतीन्द्रिय सुख पाऊँ । नवदेवों की पूजन करके फिर न लौट भव में आऊं ॥
ॐ ह्रीं श्री अहं त सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्व साधु, जिनवाणी, जिन मंदिर, जिन प्रतिमा, जिनधर्म नवदेव अत्र अवतर अन्तर संवौषट
ॐ ह्रीं श्री अहंत सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्व साध जिनवाणी,जिनमंदिर जिन प्रतिमा, जिनधर्म नवदेव अत्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं श्री अर्हत मिद्ध आचार्योपाध्याय सर्व साधु, जिनवाणी,जिनमंदिर निज प्रतिमा, निजधर्म नवदेव अत्र अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । परम भाव जल की धारा से जन्म मरण का नाश करू । मिथ्यातम का गर्व चूर कर रवि सम्यक्त्व प्रकाश करू ॥ पंच परम परमेष्ठी जिनश्रुत जिनगृह जिनप्रतिमा जिनधर्म। नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥
ॐ ह्रीं श्री अहंत सिद्ध आचार्योपाध्याय जिनवाणी जिनमंदिर, जिनप्रतिमा जिन धर्म नव देवोभ्यो जन्म जरा मृत्यु विनाशनायजलम् निर्वपामीतिस्वाहा। परम भाव चंदन के बल से भव प्रातप का नाश करू। अन्धकार अज्ञान मिटाऊ सम्यक् ज्ञान प्रकाश करूं ॥ पंच०
ॐ ह्रीं श्री अर्हत सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्वसाधु जिनवाणी, जिनमंदिर जिन प्रतिमा जिनधर्म नवदेवेभ्यो संसारताप विनाशनाय चन्दनं नि । परम भाव अक्षत के द्वारा अक्षय पद को प्राप्त करूं। मोह क्षोभ से रहित बनूं मै सम्यक चारित व्याप्त करूं ॥पंच. ___ॐ ह्रीं श्री अर्हत सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्वसाधु जिनवाणी जिनमंदिर जिन प्रतिमा जिनधर्म नव देवेभ्यो अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतम् नि । परम भाव पुष्पों से दुर्धर काम भाव को नाश कह। तप संयम को महाशक्ति से निर्मल आत्म प्रकाश कह ॥ पंच.
ह्रीं श्री अर्हत सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्वसाधु जिनवाणी जिनमंदिर जिन प्रतिमा जिनधर्म नवदेवेभ्यो कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि।