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जैन पूजांजलि
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वीतराग विज्ञान ज्ञान का अनुभव ज्ञान चेतना लाता। कर्म चेतना उड़ जाती है निज चैतन्य परम पद पाता ।
राजुल से परिणय करने को जूनागढ़ पहुंचे वर बनकर । जीवों की करुण पुकार सुनी जागा उर में वैराग्य प्रखर ॥ पशुत्रों को बन्धन मुक्त किया कङ्गन विवाह का तोड़ दिया। राजुल के द्वारे प्राकर भी स्वणिम रथ पोछे मोड़ लिया । रथ त्याग चढ़ गिरनारी पर जा पहुंचे सहस्राम्रवन में। वस्त्राभूषण सब त्याग दिये जिन दीक्षा धारी तन मन में ॥ फिर उग्र तपस्या के द्वारा निश्चय स्वरूप मर्मज्ञ हुए। घातिया कर्म चारों नाशे छप्पन दिन में सर्वज्ञ हुए ॥ तीर्थङ्कर प्रकृति उदय प्राई सुर हर्षित समवशरण रचकर। प्रभु गन्ध कुटी में अन्तरीक्ष आसीन हुए पद्मासन धर ॥ ग्यारह गणधर में थे पहले गणधर वरदत्त महा ऋषिवर । थी मुख्य प्रायिका राजमती श्रोता थे अगणित भव्य प्रवर ॥ दिव्य ध्यान खिरने लगी शाश्वत ओंकार घन गर्जन सो। शुभ बारह सभा बनी अनुपम सौन्दर्य प्रभा मणिकंचन सी ॥ जग जीवों का उपकार किया भूलों को शिव पथ बतलाया। निश्चय रत्नत्रय की महिमा का परम मोक्ष फल दर्शाया । कर प्राप्त चतुर्दश गुण स्थान योगों का पूर्ण अभाव किया। कर ऊर्ध्व गमन सिद्धत्व प्राप्त कर सिद्ध लोक आवास लिया। गिरनार शैल से मुक्त हुए तन के परमाणु उड़े सारे । पावन मङ्गल निर्वाण हुआ सरगण के गूंजे जयकारे ॥ नख केश शेष थे देवों ने माया मय तन निर्माण किया । फिर अग्नि कुमार सुरों ने आ मुकुटानल से तन भस्म किया। पावन भस्मी का निज निज के मस्तक पर सबने तिलक किया। मङ्गल वाद्यों को ध्वनि गूजो निर्वाण महोत्सव पूर्ण किया ।