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जन पूजांजलि यदि भव सागर दख से भय है तो तज दो पर भाव को।
करो चिन्तवन शुद्धातम का पालो सहज स्वभाव को। कर्मों के बन्धन टूट गये पूर्णत्व प्राप्त कर सुखी हुए। हम तो अनादि से हे स्वामी ! भव दुख वन्धन से दुखी हुए। ऐसा अन्तर बल दो स्वामी हम भी सिद्धत्व प्रात्त कर लें। तुम पद चिह्नों पर चल प्रभुवर शुभ अशुभ विभावों को हरलें। परिणाम शुद्ध का अर्चन कर हम अन्तर ध्यानी बन जावें । घातिया चार कर्मो को हर हम केवल ज्ञानी बन जावें ॥ शाश्वत शिव पद पाने स्वामी हम पास तुम्हारे आ जायें। अपने स्वभाव के साधन से हम तीन लोक पर जय पायें । निज सिद्ध स्वपद पाने को प्रभु हर्षित चरणों में पाया हूं। वसु द्रव्य सजा हे नेमीश्वर प्रभु पूर्ण अर्घ मैं लाया हूं ॥
ॐ ह्रीं श्री नमिनाथ जिनेन्द्राय पन्चकल्याणक प्राप्ताय पूर्णाघम् नि० । शङ्क चिह्न चरणों में शोभित जय-जय नेमि जिनेश महान । मन वच तन जो ध्यान लगाते वे हो जाते सिद्ध समान ॥
४ इत्याशीर्वादः ४ जाप्य- ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नमः
श्री पार्श्वनाथ पूजन तीर्थङ्कर श्री पार्श्वनाथ प्रभु के चरणों में करू नमन । अश्वसेन के राजदुलारे वामा देवी के नन्दन ॥ बाल ब्रह्मचारी भवतारी योगीश्वर जिनवर वन्दन । श्रद्धा भाव विनय से करता श्री चरणों का 'मैं अर्चन ॥
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट्
सन्निधिकरणं ।