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जैन पूजांजलि
मोह कर्म का जब उपशम हो भेद ज्ञान कर लो।
भाव शुभाशुभ हेय जानकर संवर आदर लो।। लौकान्तिक देवों ने प्राकर किया आपका जय जयकार । प्राश्रव हेय जानकर तुमने लिया हृदय में संबर धार ॥ बन सिद्धार्थ गये वट तरु नोचे वस्त्रों को त्याग दिया। ॐ नमः सिद्धेभ्यः कहकर मौन हुए तप ग्रहण किया । स्वयं बुद्ध बन कर्म भूमि में प्रथम सुजिन दीक्षाधारी। ज्ञान मनः पर्यय पाया धर पंच महाव्रत सुखकारी ॥ धन्य हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने दान दिया। एक वर्ष पश्चात इक्षुरस से तुमने पारणा किया ॥ एक सहस्र वर्ष तप कर प्रभु शुक्ल ध्यान में हो तल्लीन । पाप पुण्य प्रश्रिव विनाश कर हुए प्रात्म रस में लवलीन ॥ चार घातिया कर्म विनाशे पाया अनुपम केवल ज्ञान । दिव्य ध्वनि के द्वारा तुमने किया सकल जग का कल्याण ॥ चौरासी गणधर थे प्रभु के पहले वृषभसेन गणधर । मुख्य प्रायिका श्री ब्राह्मी श्रोता मुख्य भरत नृपवर ॥ भरत क्षेत्र के प्रार्य खण्ड में नाथ प्रापका हुआ विहार । धर्मचक्र का हुअा प्रवर्तन सुखी हुमा सारा संसार ॥ अष्टापद कैलाश धन्य हो गया तुम्हारा कर गुणगान । बने अयोगी कर्म अघातिया नाश किये पाया निर्वाण ॥ प्राज तम्हारे दर्शन करके मेरे मन आनन्द प्रा । जोवन सफल हुआ हे स्वामी नष्ट पाप दुख द्वन्द हुप्रा । यही प्रार्थना करता हूँ प्रभु उर में ज्ञान प्रकाश भरो। चारों गतियों के भव सङ्कट का, हे जिनवर ! नाश करो। तुम सम पद पा जाऊँ मैं भी यही भावना भाता हूँ। इसीलिये यह पूर्ण प्रर्घ चरणों में नाथ चढ़ाता हूँ॥ ॐ ह्रीं ऋषभदेव जिनेन्द्राय महार्ण्यम् नि० ।