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जैन पूजांजलि निज स्वभाव की महिमा आए बिना जीव भ्रमता जाता है।
पंच परावर्तन के द्वारा भवसमुद्र के दुख पाता है । भारत के स्वर्ण सदन में अवतरित हुए करुणामय । श्री वीर दिवाकर प्रगटे तब विश्व हुआ ज्योतिर्मय ॥ प्रागमन वोर का लखकर सन्तुष्ट हुआ जग सारा । अन्यायो हुए प्रकम्पित पापों का तजा सहारा ॥ पतितों दलितों दोनों को तब प्रभु ने शीघ्र उठाया । अरु दिव्य अलौकिक अनुपम जग को सन्देश सुनाया ॥ पापी को गले लगाना पर घृणा पाप से करना । प्रभु ने शुम धर्म बताया दुख कष्ट विश्व के हरना ॥ ये पुण्य पाप को छाया ही जग में सदा भ्रमाती । पर द्रव्यों की ममता ही चारों में गति में अटकाती ॥ अब मोह ममत्व विनाशो समकित निज उर में लायो। तप संयम धारण करके निर्वाण परम पद पाम्रो॥ है धर्म अहिंसा मय ही रागादि भाव हैं हिंसा । रत्नत्रय सफल तभी है उर में हो पूर्ण अहिंसा । निज के स्वरूप को देखो निज का ही लो आलम्बन । निज के स्वभाव से निश्चित कट जायेंगे भव बन्धन ॥ हैं जीव समान सभी ही एकेन्द्रिय या पंचेन्द्रिय । है शुद्ध सिद्ध निश्चय से चैतन्य स्वरूप अनिन्द्रिय ॥ "केवलि पणतं धम्मं शरणं पव्वजामी" से । जग हुमा मधुर गुजारित प्रभु की निर्मल वाणी से ॥ पर हाय सदा हम मूले उपदेश वीर के अनुपम । जाते अधर्म के पथ पर छाया अज्ञान निविड़तम ॥ हा रूढ़िवाद के बन्धन में जकड़े हुए खड़े हैं । अवनति के गहरे गड्ढे में बेसुध हुए पड़े हैं ।