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जैन पूजांजलि
ज्ञानी स्वगुण चिन्तवन करता, अज्ञानी पर का चिन्तन । ज्ञानी आत्म मनन करता है, अज्ञानी विभाव मंथन ।
कृत्रिम प्रकृत्रिम जिन भवन भाव सहित उर धार । मनवचतन जो पूजते वे होते भव पार ॥
४ इत्याशीर्वादः ४ ॐ ह्रीं णमोकार मंत्र ।
जाप्य
श्री सिद्ध पूजन हे सिद्ध तुम्हारे बन्दन से उर में निर्मलता प्राती है। भव भव के पातक कटते हैं पुण्यावलि शीश झुकाती है । तुम गुण चिन्तन से सहज देव होता स्वभाव का भान मुझे । हे सिद्ध समान स्वपद मेरा हो जाता निर्मल ज्ञान मुझे ॥ इसलिये नाथ पूजन करता, कब तुम समान मैं बन जाऊँ । जिस पथ पर चन तुम सिद्ध हुए, मैं भी चल सिद्ध स्वपद पाऊँ ।। ज्ञानावरणादिक अष्ट कर्म को नष्ट करूं ऐसा बल दो। निज अष्ट स्वगुण प्रगटें मुझमें, सम्यक् पूजन का यह फल हो।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठन् अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिन् अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । कर्म मलिन हूँ जन्म जरा मृतु को कैसे कर पाऊँ क्षय । निर्मल आत्म ज्ञान जल दो प्रभु जन्म मृत्यु पर पाऊं जय ॥ अजर, अमर, अविकल, अविकारी, अविनाशी अनंत गुण धाम। नित्य निरंजन भव दुख भंजन ज्ञान स्वभावी सिद्ध प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिन् जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।