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जैन पूजांजलि
आत्म सूर्य के ज्योति पुन्ज सेतिमिर रश्मियां हुई विकीर्ण । निज स्वरूप लक्षी होते ही हो जाता ममत्व सब क्षीण ॥
पुरुषार्थं
दुख
शोल विनय व्रत तप धारण करके भी यदि परमार्थ बाह्य क्रियाओं में ही उलझे वह सच्चा काम वाण के नाश हेतु मैं आदिनाथ प्रभु को ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय विषय लोलुपो भोगों की ज्वाला में जल जल मृग तृष्णा के पीछे पागल नर्क निगोदादिक क्षुधा व्याधि के नाश हेतु मैं प्रादिनाथ प्रम को ध्याऊँ । प्रक्षय० ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि० । ज्ञान स्वरूप श्रात्मा का जिसको श्रद्धान नहीं होता । भव वन में ही भटका करता है निर्वाण नहीं होता ॥ मोह तिमिर के नाश हेतु मैं आदिनाथ प्रभु को ध्याऊं । श्रक्षय० ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि
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कर्म फलों को वेदन करके सुखी दुखी जो
होता है ।
होता है ॥
कर्म
भ्रष्ट प्रकार कर्म का बन्धन सदा उसी को शत्रु के नाश हेतु मैं आदिनाथ प्रभु को ॐ ह्रीं श्रीदिनाथ जिनेन्द्राय अष्ट कर्म विध्वंसनाय धूपम् नि० ।
घ्याऊँ । प्रक्षय०
जो बन्धों से विरक्त होकर बन्धन का अभाव प्रज्ञा छैनी ले बन्धन को पृथक् शीघ्र निज से मोक्ष फल प्राप्ति हेतु मैं प्रादिनाथ प्रभु को ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्तये फलम् नि० । पर मेरा क्या कर सकता है मैं पर का क्या कर
करता । करता ॥ ध्याऊँ । प्रक्षय०
महा
सकता ।
यह निश्चय करने वाला ही भव अटवी के पद अन को प्राप्ति हेतु मैं आदिनाथ प्रभ अक्षय तृतिया पर्व दान का नृप श्रेयांस सुयश गाऊं ॥
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्तये अर्धम् नि०
नहीं ।
नहीं ॥
ध्याऊं । प्रक्षय ०
दुख
को
पुष्पम् नि० 1
पाता ।
जाता ॥
हरता ॥
ध्याऊं ।