SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन पूजांजलि शुद्धात्मसूर्य प्रकाश का निश्चय परम पुरुषार्थ है । घनघाति कर्म विनाश का आचरण ही परमार्थ है ॥ [ १५१ दान तीर्थ के कर्त्ता नृप श्रेयांस हुए प्रभु के गरणधर । मोक्ष प्राप्त कर सिद्ध लोक में पाया शिव पद अविनश्वर ॥ प्रथम जिनेश्वर आदिनाथ प्रभु तुम्हें नमन है वारम्बार । गिरि कैलाश शिखर से तुमने लिया सिद्ध पद मङ्गलकार ॥ नाथ आपके चरणाम्बुज में श्रद्धा सहित प्रणाम करूं । त्याग धर्म की महिमा पाऊँ, मैं सिद्धों का शुभ बैशाख शुक्ल तृतीया का दिवस पवित्र दान धर्म की जय जय गुञ्जी प्रक्षय पर्व धाम वरु ॥ महान् हुआ । प्रधान हुआ ॥ ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्र अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । कर्मोदय से प्रेरित होकर विषयों का उपादेय को भूल हेय तत्वों से मैंने जन्म मरण दुख नाश हेतु मैं प्राविनाथ प्रभु को अक्षय तृतिया पर्व दान का नृप श्रेयांस सुयश व्यापार किया । प्यार गाऊं ॥ ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा | करती है । मन वच काया की चंचलता कर्म आश्रव चार कषायों की छलना ही भव सागर दुख भरती है ॥ भाताप के नाश हेतु मैं श्राविनाथ प्रभु को ध्याऊं । अक्षय ० किया । ध्याऊँ । ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय संसार ताप विनाशनाय चन्दनम् नि० । इन्द्रिय विषयों के सुख क्षण भंगुर विद्युत सम चमक अथिर । पुण्य क्षीरण होते ही श्राते महा असाता के दिन फिर । पद प्रखण्ड की प्राप्ति हेतु में भाविनाथ प्रभु को ध्याऊं ॥ प्रक्षय० ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् नि०।
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy