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जैन पूजाँजलि
संवरभाव जगाओगे तो, आस्रव बंध रुकेगा ही। भाव निर्जरा अपनायी तो, कर्म निर्जरित होगा ही।
नृप श्रेयांसराय के गृह में तुमने स्वामी जन्म लिया। इंद्र सुरों ने जन्म महोत्सव कर निच जीवन धन्य किया ॥ गिरि सुमेरु पर पांडुक वन में रत्न शिलासुविराजित कर। क्षीरोदधि से न्हवन किया प्रभु दसों दिशा अनुरंजित कर॥
ॐ ह्रीं जन्म मङ्गल प्राप्ताय श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय अर्घम् नि० स्वाहा । एक दिवस नभ में देखा बादल क्षण भर में हुए विलीन । बस अनित्य संसार जान वैराग्य भाव में हुए सुलीन ॥ लौकान्तिक देवर्षि सुरों ने आकर जय जयकार किया । अतुलित वैभव त्याग आपने वन में जा तप धार लिया।
ॐ ह्रीं तपो मङ्गल मण्डिताय श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय अर्घम् नि० । प्रात्म ध्यानमय शुक्ल ध्यान धर कर्म घातिया नाश किया। प्रेसठ कर्म प्रकृतियाँ नाशी केवल ज्ञान प्रकाश लिया ॥ समवशरण को गन्ध कुटी में प्रत्तरीक्ष प्रभु रहे विराज। मोक्षमार्ग सन्देश दे रहे भव्य प्राणियों को जिनराज ॥ ॐ ह्री श्री केवल ज्ञान मण्डिताय श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय अर्घम् नि ।
" जयमाला 0 शाश्वत विद्यमान तीर्थङ्कर सीमन्धर प्रभु दया निधान । दे उपदेश भव्य जीवों को करते सदा आप कल्याण ॥ कोटि पूर्व की आयु पांच सौ धनुष स्वर्ण सम काया है । सकल ज्ञेय ज्ञाता होकर भी निज स्वरूप ही भाया है । देव तुम्हारे दर्शन पाकर जागा है उर में उल्लास । चरण कमल में नाथ शरण दो सुनो प्रभो मेरा इतिहास । मैं अनादि से था निगोद में प्रति पल जन्म मरण पाया । अग्नि, भूमि, जल, वायु, वनस्पति कायक थावर तन पाया ॥