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जन पूजांजलि जिस घड़ी निज आत्म की अनुभूति होती है।
उस घड़ी सम्यक्त्व की सुविभूति होती है । कोमल पुष्म मनोरम जिनमें राग प्राग की दाह प्रबल । निज स्वरूप को महाशक्ति से काम व्यथा होती निर्बल ॥ परम० ___ॐ ह्रीं था शांतिनाथ जिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि० । उर की क्षुधा मिटाने वाला यह चरु तो दुखदायक है। इच्छाओं को भूख मिटाता निज स्वभाव सुखदायक है ॥ परम०
ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथ जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि० । अन्धकार में भ्रमते भ्रमते भव भव में दुख पाया है। निज स्वरूप के ज्ञान भानु का उदय न अब तक पाया है। परम०
ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपम नि० । इष्ट अनिष्ट संयोगों में ही अब तक सुख दुख माना है। पूर्ण त्रि काली ध्र व स्वभाव का बल न कभी पहिचाना है ॥परम० ___ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथ जिनेन्द्र य अप्ट कर्म विनाशनाय धूपम् नि । शुद्ध भाव पीयूष त्याग कर पर को अपना मान लिया। पुण्य फलों में रूचि करके अब तक मैंने विष पान किया ॥परम० __ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथ जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्तये फलम् नि० स्वाहा । अवि नश्व र अनुपम अनर्घ पद सिद्ध स्वरूप महा सुखकार । मोक्ष भवन निर्माता निज चैतन्य रागनाशक अघहार ।। परम० ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्ताये अर्घम् नि० स्वाहा ।
श्री पंच कल्याणक भादव कृष्ण सप्तमी के दिन तज सर्वार्थ सिद्धि आये। माता ऐरा धन्य हो गई विश्वसेन नप हरषाये ॥ छप्पन दिककुमारियों ने नित नवल गीत मङ्गल गाये। शान्तिनाथ के गर्भोत्सव पर रत्न इन्द्र ने बरसाये ॥ ॐ ह्रीं भाद्रपद कृष्ण सप्तमी गर्भ मङ्गल मण्डिताय श्री शांतिनाथ
जिनेन्द्राय अर्घम् नि० स्वाहा ।