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जन पूजांजलि रागद्वेष कर्मों का रस है यह तो मेरा नहीं स्वरूप ।
ज्ञान मात्र शुद्धोपयोग ही एक मात्र है मेरा रूप ॥ भक्तामर की यशो पताका फहराते हैं साधु भक्त जन । भाव पूर्वक पाठ मात्र से कट जाते सब संकट तत्क्षण ॥ भक्तामर रच मानतुंग ने निज परका कल्याण किया था । अड़तालीस काव्य रचना कर शुभ अमरत्व प्रदान किया था। नृपकारा से मुक्त हुए मुनि श्रुत उपदेश महान दिया था । प्रादिनाथ की स्तुति करके निज स्वरूप का ध्यान किया था। मैं भी प्रभु की महिमा गाकर भाव पुष्प करता हूँ अर्पण । त्रैलोक्येश्वर महादेव जिन प्रादिदेव को सविनय वन्दन । नाभिराय मरुदेवी के सुत प्रादिनाथ तीर्थङ्कर नामी । आज आपकी शरण प्राप्त कर प्रति हर्षित हूँ अन्तर्यामी ॥ मैंने कष्ट अनंतानंत उठाये हैं अनादि से स्वामी । प्रात्म ज्ञान बिन भटक रहा हूँ चारो गति में त्रिभुवननामी ।। नर सुर नारक पशुपर्यायों में प्रभु मैंने अति दुख पाये। जड़ पुदगल तन अपना माना निज चैतन्य गीत ना गाये ॥ कभी नर्क में कभी स्वर्ग में कभी निगोद आदि में भटका । सुखाभास की प्राकांक्षा ले चार कषायों में ही अटका ॥ एक बार भी कभी भूलकर निज स्वरूप का किया न दर्शन । द्रव्यलिंग भी धारा मैंने किन्तु न माया आत्म चिन्तवन ॥ प्राज सुअवसर मिला भाग्य से भक्तामर का पाठ सुन लिया। शब्द अर्थ भावों को जाना निज चैतन्य स्वरूप गुन लिया ॥ अब मुझको विश्वास हो गया भव का अन्त निकट आया है। भक्तामर का भाव हृदय में मेरे नाथ उमड़ पाया है ॥ भेद ज्ञान की निधि पाऊंगा स्वपर भेद विज्ञान करूंगा। शुद्धात्मानुभूति के द्वारा अष्ट कर्म अवसान करूंगा ॥