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बन पूजांजलि
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कर्म जनित सुख के समूह का जो भी करता है परिहार। वही भव्य निष्कम अवस्था को पाकर होता भव पार ।।
४ जयमाला 8 जिनवर पद पूजन कर नित्य नियम से नाथ ।
शुद्धातम से प्रीति कर मैं भी बनूं सनाथ ॥ तीन लोक के सारे प्राणी हैं कषाय प्रातप से तप्त । इन्द्रिय विषय रोग से मुखित भव सागर दुख से संतप्त ॥ इष्ट वियोग अनिष्ट योग से खेद खिन्न जग के प्राणी । उनको है सम्यक्त्व परम हितकारी प्रौषधि सुखदानी ॥ सर्व दुखों को परमौषधि पोते ही होता रोग विनष्ट । भवनाशक जिन धर्म शरण पाते ही मिट जाता भव कष्ट । है मिथ्यात्व असंयम और कषाय पाप की क्रिया विचित्र । पाप क्रियानों से निवृत्ति हो तो होता सम्यक् चारित्र ॥ घाति कर्म बंधन करने वाली शुभ प्रशुभ क्रिया सब पाप। महा पाप मिथ्यात्व सदा ही देता है भव भव संताप ॥ इसके नष्ट हुए बिन होता दूर असंयम कभी नहीं । इसके सम दुखकारी जग में और पाप है कही नहीं । मुनिव्रत धारण कर प्रेवेयक में अहमिन्द्र हुमा बहुबार । सम्यक् दर्शन बिन भटका प्रभु पाए जग में दुक्ख अपार॥ क्रोधाविक कषाय अनुरंजित हो भव सागर में डूबा । साता के चक्कर में पड़कर नहीं असाता से ऊबा ॥ पाप पुण्य दुखमयो जानकर यदि मैं शुद्ध दृष्टि होता। नष्ट विभाव भाव कर लेता यदि मैं द्रव्य दृष्टि होता ॥ मिथ्यातम के गए बिना प्रभु नहीं असंयम जाता है। जप तप व्रत पूजन अर्चन से जिय सम्यक्त्व न पाता है ॥