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जन पूजांजलि
विन समकित व्रत पूजन अर्चन जप तप सब तेरे निष्फल हैं।
संसार बंध के हैं प्रतीक भवसागर के ही दल दल हैं । नगर हस्तिनापुर के अधिपति विश्वसेन नृप के नन्दन । मां ऐरा के राजदुलारे सुर नर मुनि करते वन्दन ॥ कामदेव बारहवें पंचम चक्री तीन ज्ञान धारी । बचपन में अणुवत धर यौवन में पाया वैभव भारी॥ भरतक्षेत्र के षट खण्डों को जय कर हुए चक्रवर्ती । नवनिधि चौदह रत्न प्राप्त कर शासक हुए न्यायवर्ती ॥ इस जग के उत्कृष्ट भोग भोगते बहुत जीवन बीता। एक दिवस नभ मेंघन का परिवर्तन लख निज मन रोता ॥ यह संसार असार जानकर तप धारण का किया विचार। लौकान्तिक देव षि सुरों ने किया हर्ष से जय-जयकार ॥ वन में जाकर दीक्षा धारी पंच मुष्टि कचलोच किया। चक्रवति को अतुलसम्पदा क्षण में त्याग विराग लिया ॥ मन्दिर पुर के नप सुमित्र ने भक्तिपूर्वक दान दिया। प्रभुकर में पय धारा दे भव सिन्धु सेतु निर्माण किया ॥ उच्च तपस्या से तुमने कर्मों की कर निर्जरा महान । सोलह वर्ष मौंन तप करके ध्याया शुद्धातम का ध्यान ॥ श्रेणी क्षपक चढे स्वामी केवल ज्ञानी सर्वज्ञ हुए। दिव्य ध्वनि से जीवों को उपदेश दिया विश्वज्ञ हुए । गणधर थे छत्तीस आपके चक्रायुध पहले गणधर ॥ मुख्य आयिका हरिषेणाथों श्रोता पशु,नर,सुर, मुनिवर ॥ कर विहार जग में जगती के जीवों का कल्याण किया । उपादेय है शुद्ध प्रात्मा यह सन्देश महान दिया ॥ पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ प्राश्रव जग में भ्रमण कराते हैं । जो संवर धारण करते हैं परम मोक्ष पद पाते हैं ।