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जैन पूजांजलि
[१६१ ज्ञानदीप की शिखा प्रज्ज्वलित होते ही भ्रम दूर हुआ ।
सम्यक् दर्शन की महिमा से गिरि मिथ्यातम चूर हुआ। छयासठ दिन तक रहे मौन प्रभु, दिव्यध्वनि का मिला न योग। अपने आप स्वयं मिलता है, निमित्त नैमित्तिक संयोग । राजगृही के विपुलाचल पर, प्रभु का समवशरण पाया। अवधि ज्ञान से जान इन्द्र ने, गणधर का अभाव पाया ॥ बड़ी युक्ति से इन्द्रभूति गौतम ब्राह्मण को वह लाया। गौतम ने दीक्षा लेते ही ऋषि गणधर का पद पाया ॥ तत्क्षण खिरी दिव्य ध्वनि प्रभु की द्वादशांग मय कल्याणी। रच डाली अन्तर मुहूर्त में, गौतम ने श्री जिनवाणी ॥ सात शतक लघु और महा माषा अष्टादश विविध प्रकार। सब जीवों ने सुनी दिव्य ध्वनि अपने उपादान अनुसार ॥ विपुलाचल पर समवशरण का हुमा प्राज के दिन विस्तार। प्रभु की पावन वाणी सुनकर गूजा नभ में जय जयकार ।। जन जन में नव जाग्रति जागी मिटा जगत का हाहाकार । जियो और जीने दो का जीवन सन्देश हुआ साकार ॥ धर्म अहिंसा सत्य और अस्तेय मनुज जीवन का सार । ब्रह्मचर्य अपरिग्रह से ही होगा जीव मात्र से प्यार ॥ घृणा पाप से करो सदा ही किन्तु नहीं पापी से द्वेष । जीव मात्र को निज सम समझो यही वीर का था उपदेश । इन्द्रभूति गौतम ने गणधर बनकर भाषी जिनवाणी। इसके द्वारा परमात्मा बन सकता कोई भी प्राणी ॥ मेघ गर्जना करती श्री जिनवारणी का बह चला प्रवाह । पाप ताप संताप नष्ट हो गये मोक्ष की जागी चाह ॥ प्रथम, करणं, चरणं, द्रव्यं ये अनुयोग बताये चार । निश्चय नय सत्यार्थ बताया, असत्यार्थ सारा व्यवहार ॥