________________
७८]
जैन पूर्जाजलि
पराए द्रव्य को अपना समझ कर दुख उठाता है । जगत की मोह ममता में स्वयं को भूल जाता है ।
चम्पापुर के महाराज वसुदेव पिता विजया माता । तुमको पाकर धन्य हुए हे वासुपूज्य मङ्गल दाता ॥ अष्ट वर्ष की अल्प आयु में तुमने अणुवत धार लिया। यौवन वय में ब्रह्मचर्य प्राजीवन अङ्गीकार किया । पंच मुष्टि कचलोच किया सब वस्त्राभूषण त्याग दिये। विमल भावना द्वादश भाई पंच महावत ग्रहण किये ॥ स्वयं बुद्ध हो नमःसिद्ध कह पावन संयम अपनाया। मति, श्रुति, अवधि जन्म से था अब ज्ञान मनः पर्यय पाया । एक वर्ष छदमस्थ मौन रह आत्म साधना की तुमने । उग्र तपस्या के द्वारा हो कर्म निर्जरा की तुमने ॥ श्रेणीक्षपक चढ़े तुम स्त्रामो मोहनीय का नाश किया । पूर्ण अनन्त चतुष्टय पाया पर अरहन्त महान लिया ॥ विचरण करके देश देश में मोक्ष मार्ग उपदेश दिया। जो स्वभाव का साधन साधे सिद्ध बने सन्देश दिया । प्रभु के छयासठ गणधर जिनमें प्रमुख श्री मन्दिर ऋषिवर । मुख्य प्रायिका वरसेना थीं नृपति स्वयंभू श्रोतावर ॥ प्रायश्चित व्युत्सर्ग, विनय, वैय्यावृत स्वाध्याय अरु ध्यान । अन्तरंग तप छह प्रकार का तुमने बतलाया भगवान ॥ कहा बाह्य तप छः प्रकार ऊनोदर कायक्लेश, अनशन । रस परित्याग सुव्रतपरिसंख्या, विविक्त शय्यासन पावन ।। ये द्वादश तप जिन मुनियों को पालन करना बतलाया। अणवत शिक्षाक्त गरगवत द्वादश व्रत श्रावक का गाया। चम्पापुर में हुए पंच कल्याण आपके मङ्गलमय । गर्भ, जन्म, तप,ज्ञान, मोक्ष कल्याण भव्य जन को सुखमय ॥