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________________ जैन पूजांजलि [७६ पुण्य से ही निर्जरा होती अगर तो। हो गया होता अभी तक मोक्ष कबका ।। परम पूज्य चम्पापुर की पावन भू को शत-शत वन्दन । वर्तमान चौबीसी के द्वादशम् जिनेश्वर नित्य न मन ॥ मैं अनादि से दुखी, मुझे भी निज बल दो भव वास हरू । निज स्वरूप का अवलम्बन ले अष्ट कर्म अरि नाश करूं ॥ ॐ ह्रीं श्री वासपूज्य जिनेन्द्राय गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष कल्याण प्राप्ताये अयम् नि० स्वाहा । महिष चिह्न शोभित चरण, वासु पूज्य उर धार । मन, वच, तन जो पूजते, वे होते भव पार ॥ * इत्याशीर्वादः ४ जाप्य- ॐ ह्मीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय नमः । श्री अनन्तनाथ जिन पूजन जय जय जयति अनन्तनाथ प्रभु शुद्ध ज्ञानाधारी भगवान् । परम पूज्य मङ्गलमय प्रभुवर गुण अनन्तधारी भगवान् ।। केवलज्ञान लक्ष्मी के पति भवभय दुखहारी भगवान् । परम शुद्ध अव्यक्त प्रगोचर भव भव सुखकारी भगवान् ।। जय अनन्त प्रभु प्रष्ट कर्म विध्वंसक शिवकारी भगवान् । महा मोक्ष पति परम वीतरागी जग हितकारी भगवान् ॥ ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवोप्ट । ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वपट् । मैं अनादि से जन्म मरण की ज्वाला में जलता आया। सागर जल से बुझो न ज्वाला तो यह सम्यक् जल लाया ॥ जय जिनराज अनन्तनाथ प्रभु तुम दर्शन कर हर्षाया। गुण अनन्त पाने को पूजन करने चरणों में आया । ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ।
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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