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जैन पूजांजलि
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पूर्णा नंद स्वरूप स्वयं तू निज स्वरूप का कर विश्वास ।
ज्ञान चेतना में ही बसजा कर्म चेतना का कर नाश । श्री बाहुबलि स्वामी प्रभु चरणों में शीष हुकाता हूँ। अविनश्वर शिव सुख पाने को नाथ शरण में प्राता हूं। ॐ ह्रीं श्री जिन बाहुबली स्वामिने अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घम् नि० ।
(जयमाला) प्रादिनाथ सुत बाहुबली प्रभु मात सुनन्दा के नन्दन । चरम शरीरी कामदेव तुम पोदनपुरपति अभिनन्दन ॥ छह खण्डों पर विजय प्राप्त कर भरत चढ़े वृषभाचल पर । अगणित चक्री हुए नाम लिखने को मिला न थल तिल भर ।। मैं ही चक्री हुमा अहं का मान धूल हो गया तभी । एक प्रशस्ति मिटाकर अपनी लिखी प्रशस्ति स्वहस्त जभी ॥ चले अयोध्या किन्तु नगर में चक्र प्रवेश न कर पाया। ज्ञात हुआ लघु भ्रात बाहुबलि सेवा में न अभी प्राया ॥ भरत चक्रवर्ती ने चाहा बाहुबली प्राधीन रहे । ठुकराया आदेश भरत का तुम स्वतन्त्र स्वाधीन रहे। भीषण युद्ध छिड़ा दोनों भाई के मन सन्ताप हुए। दृष्टि, मल्ल, जल युद्ध भरत से करके विजयी प्राप हुए ॥ क्रोधित होकर भरत चक्रवर्ती ने चक्र चलाया है । तीन प्रदक्षिण देकर कर में चक्र आपके आया है ॥ विजय चक्रवर्ती पर पाकर उर वैराग्य जगा तत्क्षण । राजपाट तज ऋषभदेव के समवशरण को किया गमन ॥ धिक् धिक् वह संसार और इसको असारता को धिक्कार । तृष्णा को अनन्त ज्वाला में जलता पाया है संसार ॥ जग की नश्वरता का तुमने किया चितवन रारम्बार । देह भोग संसार आदि से हुई विरक्ति पूर्ण साकार ॥