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जैन पूजांजलि
पाप पुण्य तज जो निजात्मा को ध्याता है।
वही जीव परिपूर्ण मोक्ष सुख विलसाता है। आदिनाथ प्रभु से दीक्षा ले व्रत संयम को किया ग्रहण । चले तपस्या करने वन में रत्नत्रय को कर धारण ॥ एक वर्ष तक किया कठिन तप कायोत्सर्ग मौन पावन । किन्तु शल्य थी एक हृदय में भरत भूमि पर है आसन ॥ केवल ज्ञान नहीं हो पाया एक शल्य ही के कारण । परिषह शोत गोष्म वर्षादिक जय करके भी प्रटका मन। भरत चक्रवर्ती ने प्राकर श्री चरणों में किया नमन । कहा कि वसुधा नहीं किसी की मान त्याग दो हे भगवन् ॥ तत्क्षण शल्य विलीन हुई तुम शुक्ल ध्यान में लीन हुए । फिर अन्तरमुहूर्त में स्वामी मोह क्षीण स्वाधीन हुए। चार घातिया कर्म नष्ट कर आप हुए केवल ज्ञानी। जय जयकार विश्व में गूजा सारी जगती मुस्कानी । झलका लोका लोक ज्ञान में सर्व द्रव्य गुण पर्यायें । एक समय में भूत भविष्यत् वर्तमान सब दर्शायें ॥ फिर अघातिया कर्म विनाशे सिद्ध लोक में गमन किया। पोदनपुर से मुक्ति हुई तीनों लोकों ने नमन किया । महामोक्ष फल पाया तुमने ले स्वभाव का अवलम्बन । हे भगवान् बाहुबलि स्वामी कोटि कोटि शत् शत् वन्दन ॥ आज आपका दर्शन करने चरण शरण में आया हूँ। शुद्ध स्वभाव प्राप्त हो मुझको यही भाव भर लाया हूँ॥ भाव शुभाशुभ भव निर्माता शुद्ध भाव का दो प्रभु दान । निज परणति में रमण करू प्रभु हो जाऊँ मैं आप समान ॥ समकित दीप जले अन्तर में तो अनादि मिथ्यात्व गले । राग द्वेष पररगति हट जाये पुण्य पाप सन्ताप टले ॥