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________________ जैन पूजांजलि समकित रवि की ज्योति प्राप्तकर नाशो गपावलियां । मोह कर्म सर्वथ । नाशकर नाशो पुण्यावलियां || [१३५ जीवादिक नव तत्त्वों का श्रद्धान यही सम्यक्त्व इनका ज्ञान ज्ञान है, रागादिक का त्याग चरित्र १ "संते पुग्वणिवद्धं जाणदि" वह अबंध का सम्यक् दृष्टि सुजीव आभव बंध रहित हो उत्तम क्षमा धर्म उर धारू जन्म मरण क्षय कर मानूँ । पर द्रव्यों से दृष्टि हटाऊं निज स्वरूप को पहचानूं ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमा धर्मा गाय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वगमीति स्वाहा | सप्त भयों से रहित निशङ्कित निज स्वभाव में सम्यक् दृष्टि । मिथ्यात्वादिक भावों में जो रहता वह है मिथ्यादृष्टि ॥ तीन मूढ़ता छह अनायतन तीन शल्य का नाम नहीं । प्राठ दोष समकित के श्ररु आठों मद का कुछ काम नहीं ॥ उत्तम० प्रथम । परम || ज्ञाता है । जाता है ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमा धर्मा गाय संसारताप विनाशनाय चन्दनम् नि। अशुभ कर्म जाना कुशील शुभ को सुशील मानता नहीं । जो संसार बंध का कारण वह सुशील जानता नहीं ॥ कर्म फलों के प्रति जिसकी श्राकांक्षा उर में रही नहीं । वह निःकांक्षित सम्यक दृष्टि भव की बाँछा रही नहीं ॥ उत्तम० कारण है । तारण है ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमा धर्मा गाय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतम् नि० । राग शुभाशुभ दोनों ही संसार भ्रमण का शुद्ध भाव ही एकमात्र परमार्थ भवोदधि वस्तु स्वभाव धर्म के प्रति जो लेश जुगुप्सा करे नहीं । निवि चिकित्सक जीव वही है निश्चय सम्यक दृष्टि वही ॥ उत्तम० ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमा धर्मा गाय कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि० । (१) स. सा. १६६ - ( सम्यक दृष्टि ) सत्ता में रहे हुए पूर्व बद्ध कर्मों कोजानता है ।
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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