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जैन पूजांजलि भावलिंग विन द्रलिंग का तनिक नहीं कुछ मूल्य है ।
अविरत चौथा गुणस्थान भी शिव पथ में बहु मूल्य है ।। दुर्लभ नर तन फिर पाया है चूक न जाऊँ अन्तिम दाँव । निज अनर्घ पद पाकर नाश करूंगा मैं अनादि का घाव ॥ दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव । रत्नत्रय को पूजन करके राग द्वेष का करू प्रभाव ॥ ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्माय अनर्घ पद प्राप्तये अर्घम् नि० स्वाहा ।
सम्यक दर्शन आत्म तत्व को प्रतीति निश्चय सप्त तत्व श्रद्धा व्यवहार । सम्यक् दर्शन से हो जाते भव्य भव जीव सागर पार ॥ विपरीता भिनिवेश रहित अधिगमज निसर्गज समकित सार। औपशमिक क्षायिक क्षयोपशम होता है यह तीन प्रकार ॥ पार्ष, मार्ग, बीज, उपदेश, सूत्र, संक्षेप, अर्थ, विस्तार । समकित है अवगाढ़ और परमावगाढ़ दश भेद प्रकार ॥ जिन वरिणत तत्वों में शङ्का लेश नहीं निःशङ्कित अङ्ग। सुर पद या लौकिक सुख बांछा लेश नहीं निःकांक्षित अङ्ग॥ प्रशुचि पदार्थों में न ग्लानि हो शुचिमय निविचिकित्सा प्रङ्ग। देव शास्त्र गुरु धर्मात्माओं में रुचि अमढ़ दृष्टि अङ्ग ॥ पर दोषों को ढकना स्वगुण वृद्धि करना उपगूहन अङ्ग । धर्म मार्ग से विचलित को थिर रखना स्थितिकरण सुप्रङ्ग। साधर्मों में गौ बछड़े सम पूर्ण प्रीति है वात्सल अङ्ग । जिन पूजा तप दया दान मन से करना प्रभावना प्रङ्ग । पाठ अङ्ग पालन से होता है सम्यक् दर्शन निर्मल । सम्यक् ज्ञान चरित्र उसी के कारण होता है उज्ज्वल ॥ शङ्काकांक्षा विचिकित्सा अरु मूढ़ दृष्टि अन उपगूहन । अस्थितिकरण प्रवात्सल्य अप्रभावना बसु दोष सघन ॥