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जैन पूजाँजलि
दष्टि अपेक्षा से तो सम्यक् दृष्टि सदा ही मुक्त है । शुद्ध त्रिकाली ध्रुव स्वरूप निज गुण अनंत से युक्त है ॥
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श्रनायतन ।
कुगुरु कुदेव कुशास्त्र और इनके सेवक छः देव मूढ़ता गुरू मूढ़ता लोक मूढ़ता तीन जघन ॥ जाति रूपकुल ऋद्धि तपस्या पूजा श्रौर ज्ञान मद प्राठ । मूल दोष सम्यक् दर्शन के यह पच्चीस तजों मद श्राठ ॥ जय जय सम्यक् दर्शन प्राठों प्रङ्ग सहित अनुपम सुखकार । यही धर्म का सुदृढ़ मूल है इसकी महिमा अपरम्पार ॥
ॐ ह्रीं अप्टांग सम्यक् दर्शनाय अनघ पद प्राप्तये अर्धमें नि० स्वाहा । सम्यक ज्ञान निज अभेद का ज्ञान सुनिश्चय प्राठ भेद सब हैं व्यवहार । सम्यक् ज्ञान परम हितकारी शिव सुख दाता मङ्गलकार ॥ अक्षर पद वाक्यों का शुद्धोच्चाररण है व्यञ्जन प्राचार | शब्दों के यथाथं अर्थ का अवधारण है प्रर्थाचार || शब्द अर्थ दोनों का सम्यक् जान पना है उभयाचार | योग्य काल में जिन श्रुत का स्वाध्याय कहाता कालाचार ॥ नम्र रूप रह लेश न उद्धत होना ही है विनयाचार | सदा ज्ञान का प्राराधन, स्मरण सहित उपध्यानाचार ॥ शास्त्रों के पाठी अरु श्रुत का आदर है बहु मानाचार | नहीं छुपाना शास्त्र और गुरु नाम अनिन्हव है प्राचार ॥ आठ अङ्ग हैं यही ज्ञान के इनसे दृढ़ हो सम्यक् ज्ञान । पाँच भेद हैं मति श्रुत श्रवधि मन पर्यय अरु केवल ज्ञान ॥ मति होता है इन्द्रिय मन से तीन शतक चौरासी भेद । के प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं चउ श्रनुयोग सु भेद ॥ द्वादशांग चौदह पूरव परिकर्म अक्षर और अनक्षरात्मक भेद अनेकों हैं
श्रुत
चूलिका
प्रकीर्णक ।
सम्यक् ॥