________________
जैन पूजांजलि
[१२३
मिथ्यात्व मोह भ्रम त्यागो रे प्राणी ।
सम्यक्त्व सूर्य सम जागो रे प्राणी ।। दृष्टिवाद का भेद पांचवां पंच चूलिका नाम यथा। जलगत थलगत मायागत अरु रूपगता आकाशगता ॥ पाँच भेद परिकर्म उपांग के प्रथम चन्द्र प्रज्ञप्ति महान । दूजासूर्य प्रज्ञप्ति तीसरा जम्बु द्वीपप्रज्ञप्ति प्रधान ॥ चौथा द्वीप-समूह- प्रज्ञप्ति पंचम व्याख्या प्रज्ञप्ति जान । सूत्र प्रादि अनुयोग अनेकों हैं उपांग धन धन श्रुत ज्ञान ॥ तत्त्वों के सम्यक् निर्णय से होता सुद्धातम का ज्ञान । सरस्वती मां के आश्रय में होता है शाश्वत कल्याण ॥ इसीलिये जिनवाणी का अध्ययन चितवन मैं कर लूँ । काल लब्धि पाकर अनादि अज्ञान निविड़तम को हर लूँ ॥ नव पदार्थ छह द्रव्य काल त्रय सात तत्व को मैं जान तीन लोक पंचास्तिकाय छह लेश्याओं को पहचानें ॥ षटकायक को दया पालकर समिति गुप्ति व्रत को पा लू। द्रव्य भाव चारित्र धार कर तप संयम को अपना लू॥ निज स्वभाव में लीन रहे मैं निज स्वरूप में मुस्काऊं ॥ क्रम-क्रम से मैं चार घातिया नाश करूं निज पद पाऊँ ॥ प्राप्त चतुर्दश गुणस्थान कर पूर्ण अयोगी बन जाऊँ। निज सिद्धत्व प्रगट कर सिद्ध शिला पर सिद्ध स्वपद पाऊँ । यह मानव पर्याय धन्य हो जाये मां ऐसा बल दो। सम्यक् दर्शन ज्ञान चरित रत्नत्रय पावन निर्मल दो। भव्य भावना जगा हृदय में जीवन मङ्गलमय कर दो। हे जिनवाणी माता मेरा अन्तर ज्योतिर्मय कर दो॥
ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भव सरस्वती देव्य पूर्णा' यनि० स्वाहा ।