________________
जैन पूजांजलि
है मंयोग शरीर आत्मा का पर दोनों भिन्न हैं।
एक क्षेत्र अवगाही रहकर निज से सदा अभिन्न हैं। उतम आकिंचन रागादिक भावों का परिहार कह। सर्व परिग्रह से विमुक्त हो मुनिपद अङ्गीकार करू । उतम ब्रह्मचर्य उर धारूं आत्म ब्रह्म में लीन रहूं। कामवाण विध्वंस करूं मैं शील स्वभावाधीन रहे। दशलक्षण व्रत की महिमा का नित प्रति जय जय गान कह। दश धर्मो का पालन करके महामोक्ष निर्वाण वरू॥
ॐ हीं उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन, ब्रह्मचर्य दशधर्मभ्यो पूर्णाघम निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री दशलक्षण धर्म की महिमा अगम अपार । जो भी इनको धारते वे होते भव पार ॥
इत्याशीर्वादः 8 जाप्य-ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमा मार्दवार्जव शौच सत्य संयम तपस्त्यागाकिचन्य
ब्रह्मचर्य धाङ्गय नमः ।
श्री रत्नत्रय धर्म पूजन जय जय सम्पदर्शन पावन मिथ्या भ्रमनाशक श्रद्धान । जय जय सम्यक्ज्ञान तिमिर हर जय जय वीतराग विज्ञान । जय जय सम्यक्चरित सु निर्मल मोह क्षोभ हर महिमावान। अनुपम रत्नत्रय धारण कर मोक्ष मार्ग पर करू प्रयाण ॥
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्म अत्र अवतर अतवर संवौषट् । ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्म अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम ।
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्म अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । सम्यक् सरित सलिल जल द्वारा मिथ्या भ्रम प्रभु दूर हटाव । जन्म मरण का क्षय कर डालूं साम्य भाव जल मुझे पिलाव ।।