________________
जन पूजांजलि
[१३६ शुद्ध आत्मा में प्रवृत्ति का एक मार्ग है निज चिन्तन ।
दुश्चिन्ताओ से निवृत्ति का एक मार्ग है निचिन्तन । वाक् जाल में जो उलझे वह कभी सुलझ ना पायेंगे । निज अनुभव रस पान किये बिन नहीं मोक्ष में जायेंगे । अनुभव हो तो शिवसमुद्र है अनुभव शाश्वत सुखका स्रोत । अनुभव परम सत्यशिव सुन्दरअनुभव शिव से प्रोतप्रोत॥ निज अनुभव ही निविकल्प है अनुभव है चैतन्यमयी । अनुभव परम तरण तारण है अनुभव है संसार जयो ॥ निज स्वभाव के सम्मुख होजा पर से दृष्टि हटा भगवान । पूर्ण सिद्ध पर्याय प्रगट कर आज अभी पा ले निर्वाण ॥ ज्ञान चेतना सिन्धु स्वयं तू स्वयं अनंत गुणों का भूप । त्रिभुवन पति सर्वज्ञ ज्योति मय चिन्तामणि चेतन चिद्रूप॥ यह उपदेश श्रवण कर हे प्रभु मैत्री भाव हृदय धारूं । जो विपरोत दृष्टि वाले हैं उन पर मैं समता धारू॥ धीरे धीरे पाप, पुण्य शुभ प्राश्रव संहारू । भव तन भोगों से विरक्त हो निज स्वभाव को स्वीकारू। दश धर्मों को पढ़ सुनकर अन्तर में आये परिवर्तन । व्रत उपवास तपादिक द्वारा करूं सदा ही निज चिन्तन ॥ राग द्वेष अभिमान पाप हर काम क्रोध को चूर करूं । जो संकल्प विकल्प उठे प्रभु उनको क्षण क्षण दूर करू॥ अणु भर भी यदि राग रहेगा नहीं मोक्ष पद पाऊंगा । तीन लोक में काल मनन्ता राग लिये भरमाऊंगा ॥ राग शुभाशुभ के विनाश से वीतराग बन जाऊंगा । शुद्धात्मानुभूति के द्वारा स्वयं सिद्ध पद पाऊंगा ॥ पर्युषण में दूषण त्यागं बाह्य क्रिया में रमे न मन । शिव पथ का अनुसरण करू मैं बन के नाथ सिद्ध नन्दन ।।