Book Title: Haribhadrasuri krutanyashtakani
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ श्रीहरिभद्रसूरिकृतान्यष्टकानि । ( मूल, तेनो अर्थ, अने टीकानो भावार्थ. ) संस्कृतपरथी गुजरातीमां जामनगरनिवासि पंडित श्रावक हीरालाल वि. हंसराज पासे है भाषांतर करावी छपावी प्रसिद्ध करनार श्रावक नीमसिंह माणेक श्री. मुंबई... कन्द्र, काबा, मि. गांधीनगर निर्णयसागर छापखानामां छाप्यु. संवत १९५६. सने १९००. Readph o n - ७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. सर्वे जैनबंधुने मालुम थाय जे या "अष्टक" नामनो ग्रंथ जैन धर्मना अति उत्तम ग्रंथ मांहेलो एक ग्रंथ बे. या ग्रंथनी टीका पति विस्तारवाली तथा न्यायना विषयथी जरपूर बे. मूल ग्रंथना कर्ता महान आचार्य श्री हरीभद्रसूरिजी महाराज बे. तेमणे आ ग्रंथमां बत्रीश बाबतोपर तेना बीस जागो पाडीने अति उत्तम विवेचन कर्तुं बे. तथा ते दरेक बाबतोनाव व लोको रचीने या ग्रंथना बत्रीस अष्टको बनावेलां बे. ते बत्री से अष्टकोमां शं शं विषय वर्णव्यो बे? ते श्र ग्रंनुक्रमणिका तथा या ग्रंथ संपूर्ण वांचवाथी जणाशे. हालना समयमां जैनधर्म संबंधी जे जे पुस्तको उपाइ बहार पडेलां बे, तेथी पण या ग्रंथ प्रति उत्तम तथा जैनधर्मनुं रहस्य जाण - वानी इवावालाने घणोज उपयोगी बे. अने ते विषेनुं त्रे वधारे वर्णन नहीं करतां या ग्रंथ आद्यथी ते अंतसुधि वांची जवानीजो सर्वने लामण करीए बीए. श्र पुस्तकमां तेना मूलश्लोको, तेनो अर्थ तथा टीकानो जावार्थ पण विस्तार श्री दाखल करेलो बे. या ग्रंथ मूल संस्कृत भाषामां होवाथी, हालना समयमां तेाषानुं सर्वने जाणपणुं नहीं होवाथी मोए तेनुं गुजराती भाषांतर जामनगर निवासि पंडित श्रावक हीरालाल वि. हंसराज पासे करावी बपावी प्रसिद्ध कर्यु बे. या मूल ग्रंथना कर्ता श्री महान आचार्य हरिभद्रसूरीजा बे, तथा तेनी अति उत्तम ने न्यायगर्जित टीका श्री जिनेश्वरसूरिजी महाराजे बनावेली बे; छाने ते टीकाने श्री अभयदेवसूरीश्वरजीए शोधेली . अने तेटलामाटे ते ऋणे आचार्योनो जे टुंक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. इतिहास अमोने मलेलो, ते वाचक वर्गने विदित श्रवा माटे अत्रे प्रसंग होवाथी नीचे लखीए जीए. श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज. आमूल ग्रंथना कर्ता श्री हरिभद्रसूरिजी महाजनो जन्म विक्रम संवतना पांचमा सैकामां संनवे बे. तेमणे सर्व मली चौदसोने चम्मालीस ग्रंथो बनान्या कहेवाय जे. ते प्रथम ज्ञाते ब्राह्मण हता; अने महा विधान हता. मेवटे वेदादिकमां कहली हिंसादिक जोश्ने, ते धर्म तजीने तेमणे श्री जैनधर्मनी दीदा लीधी. तेमणे बनावेला ग्रंथोमां अनेकांतजयपताका ( टीकाश्री मुनिचंसूरि), शिष्यहिता नामनी आवश्यक सूत्रनी टीका, उपदेशपद, सिझर्षि माटे बनावेली चैत्यवंदनवृत्ति (ललित विस्तरा), जंबुद्धीप संग्रहणी (टीका-श्री प्रजानंदसूरि), ज्ञानपंचकविवरण, दर्शनसप्ततिका, दशवकालिकनियुक्तिटीका, दशवैकालिकबृहवृत्ति, दीदाविधिपंचासक, धर्मबिंड, ज्ञानचित्रिका, पंचासकवृत्ति, मुनिपतिचरित्र, लग्नकुंडलिका, वेदबाह्यतानिराकरण, श्रावकधर्मविधिपंचासक, समरादित्यचरित्र, योगबिंप्रकरणवृत्ति, पंचसूत्रवृत्ति, व्यवहारकरूप, योगदृष्टिसमुच्चय, षोडशक, तथा अष्टकजी विगेरे हाल दृष्टिए पडता मुख्य ग्रंथो .एवी रीते तेमणे बनावेला महान ग्रंथोज तेमनुं अपूर्व ज्ञान जणावी आपे . तेमना बनावेला दरेक ग्रंथोने बेडे "विरह" शब्द आवे. अने ते विरहांकथी श्री हरिभद्रसूरिजीनी कृतिनी साबिती थायचे. गडोत्पत्तिप्रकरणमा विक्रम संवत पांचसो पांत्रिसमां (५३५) तेमनुं देवलोक गमन कहेलुं . श्री जिनेश्वरसूरिजी महाराज. श्रा "अष्टकजी" नामना ग्रंथनी टीका करनारा श्री जिनेश्वरसूरिजी महाराज विक्रम संवत एक हजारना सैकामां विद्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. मान हता, एम सनवे . ते श्री वर्धमानमूरिश्वरजी महाराजना शिष्य हता; अने श्री अभयदेवमूरि, जिनचंद्रसूरि, तथा जिनभद्रसूरिजीना गुरु हता. ते संसारीपणामां सोम नामना ब्राह्मणना पुत्र हता, तथा तेमनुं नाम शिवेश्वर हतुं; तथा मालवाना रहेवासी हता. ते गुजरातना राजा दुर्लभसेनना समयमां चैत्यवासी साथे धर्मवाद करवाने पोताना नाश् वुद्धिसागरनी साथे गुजरातमां अव्या हता; तथा त्यां दुर्लभसेनराजानी सनामां, सरस्वतीलांडागारमाथी मगावलीदशवैकालिकनी टीकामांश्री साध्वाचारप्रकरण वांचीने तेमणे चैत्यवासीउँने हराव्या हता; अने एवी रीते सनाने जीतवाथी,राजाए तेमने "खरतर" नामर्नु बिरुद आप्युं हतुं. तेमणे आ अष्टकनी टीका विक्रम संवत १000 मां जावालपुर नामना गाममां बनावी . वली तेमणे पंचलिंगीप्रकरण, वीरचरित्र, तथा संवत १०ए। मां आसापलीमा रहीने लीलावती कथा, तथा डीडी यानकमां रहीने कथानककोश विगेरे ग्रंथो बनाव्या . श्री अभयदेवसूरिजीमहाराज. आ ग्रंथनी टीकाना शोधनार श्री अभयदेवमूरिमहाराज पण विक्रम संवत एक हजारना सैकामां विद्यमान हता, तेम कहेबुं निर्विवादज . तमेनो जन्म धारा नगरीना व्यापारी धननी स्त्री धनदेवीनी कुदिए थयो हतो, तथा संसारीपणामां तेमर्नु अभयकुमार नाम हतुं. ते श्री जिनेश्वरसूरिजी महाराजना शिष्य हता. तेमने विक्रम संवत १०७७ मां सोल वर्षनी वयेज आचार्यपदवी मली हती. अने तेथी तेमनो जन्म विक्रम संवत १०७२ मां होवानुं साबित थाय. वली विचारामृत नामना ग्रंथमां कहेलुं ने के, तेमणे विक्रम संवत ११२४ मां धोलकामां रहीने श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराजना बनावेला पं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ย प्रस्तावना. चासक नामना ग्रंथपर टीका रची बे. तेम तेम त्रणथी माडीने अग्यार सुधिना एटले नव अंगोनी टीकार्ड, जयतिदु स्तोत्र, जिनचंद्रगणिजीए बनावेला नवतत्वप्रकरानी टीका, निगोदषट्त्रिंशिका, पंचनिग्रंथ विचारसंग्रहणी पुफलषट्त्रिंशिका, संग्रहणी, जिन भद्रजीए बनानेला विशेषावश्यकभाष्यपर टीका, हरिभद्रसूरिजीना बनावेला पोडशकनी टीका, देवेंद्र महाराजे बनावेला सतारिकप्रकरणनी टीका विगेरे छानेक ग्रंयो बनावेला बे. एवीरीते ६७ वर्षोनुं आयुष्य संपूर्ण करीने, विक्रम संवत ११३ मां कपडवंजमां तेमनुं देवलोकगमन थयुं. एवीरीते ते त्रणे महान आचार्योनो संक्षेपथी इतिहास जाणवो. प्रस्तावना रचनार या ग्रंथनुं गुजराती भाषांतर कर्ता श्रीमसिंह माणेक पंडित श्रावक हीरालाल वि. हंसराज - जामनगरवाला. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रनुक्रमणिका. शाक. विषय. (महादेवाष्टकम् ) (१) १ टीकाकार- मंगलाचरण. २ टीकाकारे करेदी पोतानी लघुता. ३ महादेवनुं स्वरूप. ४ रागादिकनुं स्वरूप. ५ अन्यदर्शनीना देवोमा रहेला रागादिकनुं तेना ह_ष्टांतपूर्वक स्वरूप. ६ तात्विक महादेवना गुणातिशयर्नु न्यायपूर्वक स्वरूप. १७ ७ तात्विक महादेवना लक्षणांतरनुं स्वरूप. - वेदोना अपौरूषेयपणाचं खंडन. ए शास्त्रोनी त्रिकोटी परिक्षानुं स्वरूप. १० तात्विक महादेवने आराधवाना उपाय- स्वरूप. (स्नानाष्टकम्) (२) ११ व्यस्नान तथा नावस्नान, स्वरूप. १२ अन्यदर्शनीउँना सात प्रकारना निष्फलस्नान- स्वरूप. ३ए १३ व्यस्नान- विस्तारथी स्वरूप. १४ व्यस्नाननां कर्ताधाराए प्रधान अप्रधानपणानुं स्वरूप. ४२ १५ व्यस्नानमा रहेला गुणोनुं स्वरूप. १६ साधु शामाटे जव्यस्नान न करे ? तेनो उत्तर. १७ शंकाश श्रावकनुं दृष्टांत. १० लावस्नाननुं विस्तारथी स्वरूप. (पूजाष्टकम्) (३) १ए बे प्रकारनी पूजानुं स्वरूप. m . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ अनुक्रमणिका. यांक. विषय. २० सावद्य पूजानुं विस्तारथी स्वरूप. २१ सावद्य पूजानुं फल. २२ निरवद्यपूजानुं विस्तारथी स्वरूप. २३ व जावपुष्पोनुं स्वरूप. २४ निरवद्यपूजानुं फल. ( अग्निकारिकाष्टकम् ) २५ ध्यानरूप अग्निकारिकानुं स्वरूप. २६ अन्यदर्शनी ए कहेलुं अग्निकारिकानुं स्वरूप. (४) ३५ बे प्रकारना प्रत्याख्याननुं स्वरूप. ६१ ६२ २७ व्यग्निकारिकानुं फल. ६४ २० पापोनी शुद्धिनो उपाय. ६५ २ दीक्षिते शामाटे अग्निकारिका नहीं करवी ? तेनुं स्वरूप. ६७ ३० अन्यदर्शन उ॑ना शास्त्राधारे व्य अग्निकारिकानुं दूषण. ६८ ( भिक्षाष्टकम् ) (५) Jain Educationa International पृष्ठ. ५३ ५७ այ ३१ ऋण प्रकारनी निक्षानुं स्वरूप. go go ३२ सर्वसंपत्करी नामनी निक्षानुं स्वरूप. ३३ पौरुषघ्नी निक्षानुं स्वरूप. ३४ वृत्तिनिदानुं स्वरूप. ७६ 90 ( सर्व संपत्करी भिक्षापूर्वक पिंडविशुद्धयष्टकम्) (६) ३५ सर्वसंपत्करी निक्षानं विस्तारथी स्वरूप. ३६ संकहित तथा संकटिपत पिंडनुं स्वरूप. (प्रछन्नभोजनाष्टकम् ) (७) ३७ साधुर्जने गुप्त जोजन करवानुं कारण. ३० साधुने प्रकट जोजनथी शीरीते पुण्यबंधन थाय बे ? . तथा तेथी शुं थाय बे ? तेनुं स्वरूप. ( प्रत्याख्यानाष्टकम् ) ( ८ ) ए ६० For Personal and Private Use Only ८‍ ८३ ԵԽ एए Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. क. विषय. ४० व्यप्रत्याख्याननुं विस्तारथी स्वरूप. ४१ जावप्रत्याख्याननुं विस्तारथी स्वरूप. ( ज्ञानाष्टकम् ) ( ९ ) ४२ ऋण प्रकारना ज्ञानोनुं स्वरूप. ४३ विषयप्रतिज्ञास ज्ञाननुं स्वरूप. ४४ आत्मपरिणतिमद् ज्ञाननुं स्वरूप. ४५ तत्वसंवेदन ज्ञाननुं स्वरूप. (वैराग्याष्टकम् ) ( १० ) ४६ त्रण प्रकारना वैराग्योनुं स्वरूप. ४७ ध्यान नामना वैराग्यनुं स्वरूप. ४० मोहगर्जित वैराग्यनुं स्वरूप. ४९ ज्ञानसंगत वैराग्यनुं स्वरूप. ( वादाष्टकम् ) (१२) १२ त्रण प्रकारना वादोनुं स्वरूप. ५३ शुष्कवादनुं स्वरूप. ५४ विवादनुं स्वरूप. ५५ धर्मवादनुं स्वरूप. Jain Educationa International ( धर्मवादाष्टकम् ) ( १३ ) ५६ धर्मनां प्रमाणोनुं स्वरूप. पृष्ठ. (तपोऽष्टकम् ) ( ११ ) ५० तप करवामां दुःख बे के, नहीं ? तेनुं विस्तारथी वर्णन. ११४ ५१ रत्नार्थी व्यापारीनुं दृष्टांत. ११८ Ug १०१ For Personal and Private Use Only १०३ १०३ १०५ १०७ 20吧 १० ए ११० ११२ १२० १२१ १२२ १२५ ( एकांतनित्यपक्ष खंडनाष्टकम्) (१४) १३३ ५७ अन्यदर्शनीए मानेतुं श्रात्मानुं स्वरूप५० एकांत नित्यात्माने हिंसा श्रादिकनुं घटमानपणं १३४ १२७ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १४ए अनुक्रमणिका. आंक. विषय. (एकांतानित्यपक्षखंडनाष्टकम्) (१५) एए क्षणिक मतनुं खंडन १४१ (नित्यानित्यपक्षमंडनाष्टकम्) (१६) ६० हिंसाना त्रण प्रकारोनुं स्वरूप १४७ ६१ नित्यानित्यात्माप्रते हिंसादिकनुं घटमानपणुं (मांसभक्षणदूषणाष्टकम् ) (१७) ६५ मांसजदाणनां दूषणो १५४ (अन्यदर्शनीयमतशास्त्रोक्तं मांसभक्षणाष्टकम् )(१८) ६३ मांस शद्वनो निरुक्तार्थ १५ए ६५ अन्य दर्शनीए मानेला प्रोदित मांस लक्षण- स्वरूप १६० ६५ अन्य दर्शनीए मानेली श्राइनी विधि मद्यपानदूषणाष्टकम् (१९) ६६ मद्यपाननां दूषणो. १६३ ६७ मद्यपानथीथएलां अन्यदर्शनीना शषिनां दूषणोर्नुस्वरूप१६५ मैथुनदूषणाष्टकम् (२०) ६० मैथुननां दूषणो. १६७ ६ए मैथुननी प्रशंसा करवी न्याययुक्त नथी, तेनुं स्वरूप. १९० सूक्ष्मवुद्ध्यष्टकम् (२१) १० सूदमबुधिनुं स्वरूप. ___ भावशुद्ध्यष्टकम् (२२) ७१ लावशुचिर्नु स्वरूप. शासनमालिन्याष्टकम् (२३) । प्रशासनने मालिन्यपणुं खगाडवाथी थतां दूषणो. १७० ७३ शासनने मालिन्यपणुं नहीं लगाडवाथी श्रतुं फल. १८५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. यांक. विषय. पुण्यादि चतुर्भग्याष्टकम् (२४) १४ पुण्यानुबंधिपुष्यादि चारे जांगाउनुं स्वरूप. पितृभक्त्यष्टकम् (२५) ७५ महावीर प्रजुए पितृन तिमाटे ली धेला निग्रहनुं स्वरूप १०६ (महद्दानस्थापनाष्टकम् ) (२६) ७६ श्रीवीर प्रभुना दाननुं स्वरूप ( तीर्थदानाष्टकम् ) (२७) 99 दानमाटे वीरप्रनुनुं स्वरूप (राज्यादिदानदूषणनिवारणाष्टकम्) (२८) ७० तीर्थंकरने राज्यादिकनुं दान देवामां दोषपणुं ( सामायिकाष्टकम्) (२९) (३०) ७ सामायिकनुं स्वरूप. देशनाष्टकम् (३१) ८० प्रभु देशना शामाटे पे बे ? तेनुं स्वरूप. सिद्धस्वरूपाष्टकम् (३२) ८१ मोहनुं स्वरूप. ८२ टीकाकारनी प्रशस्ति. ८३ जाषांतरकारनी प्रशस्ति. ०४ जाहेर खबर. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only पृष्ठ. १८२ ԵԵ ११ ୧୯୪ १६ २०१ २०३ २०६ २०७ २०० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री जिनाय नमः ।। श्रीहरिभद्रसूरिकृतान्यष्टकानि C तथा (मूलनी अने टीकानी गुर्जरजाषा.) श्रीलीलायतनं वंदे, नीरजं नानिजन्मिनम् ॥ संसारातपतप्तानां, दत्तानन्दकदम्बकम् ॥ १॥ टीकाकार श्रीजिनेश्वरसूरि मंगलाचरण करे जे. आविकृताशेषपदार्थसार्था, दोषानुषक्तं तिमिरं विधूय ॥ गावाप्रथन्तेऽस्खलितप्रचारा, यस्येह तं वीररविं प्रणम्य ॥१॥ गुणेषु रागाडरिभद्रसूरेस्तदुक्तमावर्त्तयितुं महार्थम् ॥ विबुद्धिरप्यष्टकवृत्तिमुच्चैविधातु मिच्छामि गतत्रपोऽहम् ॥ २॥ युग्मम् ॥ अर्थ- प्रगट करेल ले सघला पदार्थोनां समूहो जेणे, एवी जेनी वाणी ( पदे-सूर्यना किरणो) दोषरूपी अंधकारनो नाश करीने, ( पदे-रात्रिसंबंधि अंधकारनो नाश करीने) अटकाव रहित अश् थकी विस्तार पामे ; तेवा श्री वीर नगवान रूपी सूर्यने नमस्कार करीने, हरिलप्रसूरि महाराजनां गुणोने विषे ( मने ) राग होवाथी, तेनां महान अर्थवाला वचनने हृदयगोचर करवा सारु, निधि, तथा लजा विनानो एवो हुँ उंचे प्रकारे अष्टकनी टीका करवाने खं वं. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ श्री हरिप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । हवे टीकाकार पोतानी लघुता दर्शावे बे. सूर्यप्रकाश्यं क्व नु मण्डलं दिवः, खद्योतकः क्वास्य विभासनोद्यमी ॥ क्व धीरागम्यं हरिभद्रसद्वचः, क्वाधीरहं तस्य विभासनोद्यतः ॥ ३॥ तथापि यावद्गुरुपाद्भक्ते, विनिश्चितं तावदहं ब्रवीमि ॥ यदस्ति मत्तोऽपि जनोऽतिमन्दो, भवेदतस्तस्य महोपकारः ॥ ४ ॥ अर्थ- सूर्यश्री प्रकाश यतुं एवं आकाशमंडल क्यां !!! ते आकाशने प्रकाशित करवाने उद्यमवंत यतुं एवं पतंगीक्यां ! ! ! ( तेमज ) बुद्धिवानथी जाणी शकाय एवं हरिजप्रसूरिजी नुं वचन क्यां !!! अने ते वचनने प्रकाशित करवाने उद्यमवंत थलो एवो हुं क्यां ! ! ! तो पण गुरुनां चरणानी से - वाथी जेटलुं में निश्चय करेलुं बे, तेटलुं हुं कहुं हुं; क्रेम के, माराथी पण वधारे मंद माणस ( दुनियामां ) बे, अने तेटला माटे तेने तेथी मोटो उपकार थाय. श्री जगतमां सारी रीते ग्रहण थएलुं बे, नाम जेमनुं एवा श्री हरिजप्रसूरि, मिथ्यात्विने मांहोंमांहें विवाद करता, तथा नवारां कार्योथी पोते नाश पामेला, छाने सत्य उपदेशथी बीजाजैने पण नाश करता जोइने, ते बन्नेने उपकार करवा माटे बत्रीश प्रकारनां शासनोवालुं शास्त्र बनाववानी इवा करता हवा. अने ते शास्त्रानां श्रेयपणाथी कदाच विघ्ननी प्राप्ति थाय, तो तेने दूर करवा माटे, असाधारण गुणोनां समूहरूपी मणिर्जना समूहने उत्पन्न करवामां समुझनी परें आचरण करता, एवा कोइ उत्तम पुरुषने नमस्कार करवा रूप नावमंगल ” आचार्य महाराज करे बे; ( कारण के, ) एवी रीते मंगलाचरण करवानी प्रवृ ፡ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाष्टक. विशेषे करीन . वली यो करता रहाराज त्ति सघला पारलौकिक प्रयोजनोने विषे घणु करीने सिद्धांतश्रीज जणाएली . अने ते मंगलाचरण पण कोइ उत्तम पुरुषनीज स्तुतिरूप करेलु प्रमाण गणाय; अने एवा उत्तम पुरुषनो निर्णय करवामां कुशास्त्रोनां अनुयायि लोको वादविवाद करे बे; माटे ते विवादनुं निवारण करवा माटे ते उत्तमोत्तम पुरुषनुं स्वरूप देखाडता थका (आचार्य महाराज ) प्रथम " महादेवाष्टक " नामनुं पेहेलु अष्टक कहे . महादेवनुं खरेखलं महत्त्व जगतनां सघला मनुष्योने न मली शके, एवा कोश् अतिशय विशेषे करीने होय जे; अने ते अतिशयो अपायापगम, ज्ञान, वचन, सुख आदिको बे. वली ते अतिशयोमा “अपायापगम" नामनो अतिशय बीजा सघला अतिशयो करतां पेहेलो ; माटे ते अतिशयतुं स्वरूप बे श्लोकोएं करीने आचार्य महाराज प्रथम कहे . यस्य संक्लेशजननो, रागो नास्त्येव सर्वथा ॥ नच द्वेषोऽपि सत्त्वेषु, शमेन्धनदवानलः ॥१॥ नच मोहोऽपि सज्झान-छादनोऽशुवृत्तकृत् ॥ त्रिलोकख्यातमहिमा, महादेवःसउच्यते ॥॥ युग्मम् अर्थ-जेने क्वेशने उत्पन्न करनारो राग सर्वथा प्रकारे नथीज, तथा समतारूपी काष्ठने दावानल समान एवो प्राणीउने विषे क्षेष पण नथी, तेम सत्य ज्ञानने आबादन करनारो, अने अशुध आचरण करनारो एवो मोह पण नथी, तथा जेनो, महिमा त्रणे लोकोमा प्रख्यात ने, तेवा देवने “महादेव" कहेवाय. टीकानो नावार्थ-जे कोइ देवविशेषने राग नथीज, ते महादेव कहेवाय, एवो आ श्लोकनो संबंध ; अहीं जे कोश (संसार समुथी.) पार पहोंचेला एवा बुझ, विष्णु, शंकर, ब्रह्मा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि। आदिक गमे ते देवनो सामान्य निर्देश करीने आचार्य महाराजे 'पोतानुं मध्यस्थपणुं देखाड्युं . केमके तेढ कहे के पक्षपातो न मे वीरे, न वेषः कपिलादिषु ॥ - युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥१॥ . (अर्थ-मारे वीर प्रन्नुमा पक्षपात नथी, तेम कपिल आदिकमां क्षेष पण नथी; पण जेनुं वचन युक्तिवालुं , तेनुं ग्रहण करवू.) एवी रीते श्राचार्य महाराजे पोतानुं मध्यस्थपणुं देखाडीने पोतानां वचनमा सांजलनाराउने उपादेय बुद्धि उत्पन्न करी; केम के, आग्रह विनानां वक्ताथी तत्त्व- जाणपणुं थाय ने. कां ने के, आग्रहीबतनिनीषतियुक्ति, यत्रतत्रमतिरस्यनिविष्टा॥ पक्षपातरहितस्यतुयुक्ति-र्यत्रतत्रमतिरेति निवेशम् ॥१॥ ' अर्थ-आग्रही माणस ज्यां पोतानी बुद्धि पहोंचे जे, त्यां युक्तिने खेंची जाय , अने निष्पक्ष्पातीनी बुद्धि ज्यां युक्ति होय बे, त्यां पहोंचे . __ हवे पूर्वापर विरोध न आवे, एवं रागनुं स्वरूप प्रतिपादन करवामाटे कहे के समस्तपणायें करीने वेशने उत्पन्न करनारो, एटले आत्मानां स्वानाविक शांतपणाने बाधा करनारो एवो जेने राग नथी, तेने "महादेव" कहीये. त्यारे अहीं वादी शंका करे के, जेने क्वेशने उत्पन्न करनारो एवो राग नथी, तेने "महादेव" कहीएं; एवी रीते ज्यारे तमोए अंगीकार कर्युः त्यारे शुं तमोए अंगीकार करेला महादेवने “अक्वेशने उत्पन्न करनारो" एवो राग ? वली तमोए अंगीकार करेला महादेवने तो प्रकारांतरथी, एटले कोइ बीजा प्रकारथी पण राग ,एम तमारी कहेवानी श्छा नथी; माटे रागने "क्वेशने उत्पन्न करनारो" एवं जे तमोए विशेषण आप्यु , ते फोकटर्नु . ( हवे ते वादीने प्रत्युत्तर दीये ने के) जे वस्तुनो स्वन्नाव जाणवामां आवतो नथी, तेनो स्व Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाष्टक. जाव प्रगट करवामाटे विशेषणनी खास जरूर ; केमके, परमाणु शब्दनो अर्थ समजवामाटे "अप्रदेश" (जेना नागो श्रश्न शके तेवू ) एवं विशेषण मुकवु पडे तेम अहीं पण रागर्नु स्वरूप जाणवामाटे “संक्वेशजननो" एवं विशेषण सार्थकज जे. एवी रीते आत्मानां स्वरूपने उपरंजन करनारो राग जेने बिलकुल अंशमात्र पण नथी, तेने महादेव कहीएं. अहीं कोई शंका करे के, उपशांतमोहावस्थामां अथवा उदयनी अपेक्षाए कदाचित रागनां कोइ पण जेदनी अपेक्षाए ते (राग) होय; तो तेने माटे ते वादीने कहे जे के, ते प्रस्तुत महादेवने तो “ सर्वथा" एटखे बंध, उदय अने सत्तानां लदाणवाला विषयराग, स्नेहराग, तथा दृष्टिराग, अव्य, क्षेत्र, काल अने लावथी पण नथी. वली ते महादेवने (उपर कहेलो) केवल रागज नथी, एटलुंज नहीं, पण तेमने प्राणीउपर क्षेष पण सर्वथा प्रकारे नथी. अहीं प्राणीउपर क्षेषनो अनाव कहेवानी मतलब ए के, क्रोध अने मानरूप एवो जे शेष, तेप्राणीउनाज विषयवालो ; अर्थात ते घेष प्राणीउपरज श्राय जे. केमके अजीव पदार्थोपर जे पेष करवो ते मोटी मूर्खाइ जे. केमके, कडुं ने के, किं एतो कठ्ठयरं, मूढो ज थाणुगंमि अप्फडिओ॥ थाणुस्स तस्स रुस्सइ, न अप्पणो दुप्पउत्तस्स ॥१॥ (अर्थ-आथी वधारे मुःखदायक (बीजु) शुंने? के कोइ मूढ माणस फाडनांगसाथे अथडा पडीने, ते उपर गुस्से थाय , पण पोतानी गफलतीप्रते गुस्से थतो नश्री) वली राग तो जीव अने अजीव बन्ने पदार्थोपर थाय ने, माटे ते महाविषयवालो होवाथी तेनुं प्रथम ग्रहण करेलुं बे. अहीं वली वादी शंका करे के, अप्रीतिनां लदाणवालो घेष स्पर्श आदिक विषयोमां अजीव पदार्थोपर पण थाय ; जेम के, कांटा आदिकनो स्पर्श अवाथी तेनापर क्षेष थाय ने, अने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि। श्रा महादेवने तो सर्वथा प्रकारे क्षेष नथी, माटे "प्राणीउपर तेने घेष नथी" एम कहे, अयुक्त जे. . त्यारे वादीने कहे ने के, एम नहीं;प्राणीउपर क्षेष नथी, एटले वैरीरूप एवा अन्य दर्शनीउपर पण श्रा महादेवने घेष नथी; केम के, आ वात तो लोकोमां पण प्रसिद्ध के के, सरखेसरखाउमां आपसापस अदेखा होय जे; अने एवी रीते जेने ज्यारे शत्रु अथवा मित्रपर पण क्षेष नथी, त्यारे ते महादेवने अजीव पदार्थोपर वेष तो बिलकुल संनवेज नहीं. अर्थात ते महादेवने जेम जीवपर क्षेष नथी, तेम अजीवपर पण शेष नथी. हवे ते केवो शेष नथी ? ते कहे . क्षमा आदिकना जावरूप जे काष्ठ, तेने बालवाने दावानल सरखो क्षेष नथी. हवे ते महादेवने उपर कहेला रागषेषज नथी, एटलुंज नहीं, पण जेने सर्वथा प्रकारे मोह पण नथी; हवे ते मोह केवो, ते कहे . - यथार्थ पदार्थोने देखाडनारं, अथवा उत्तम पदार्थोनुं जे झान तेने आचादन करवानो ने स्वजाव जेनो, तथा कलंकयुक्त चेष्टा करनारो, एवो मोह आ प्रस्तुत महादेवने नथी. __ वली जेनो महिमा त्रणे लोकोमा प्रख्यात ,तेने “महादेव" कहियें; केम के, सघला मनुष्योनां समूह, देव, इंश आदिकने कदर्थना करवामां समर्थ एवा रागादिक शत्रुऊनां समूहने दूर करवामां जे समर्थ होय, तेनोज ा त्रण जगतमां महिमा गवाय , अने तेज उत्तम पुरुष माणसोनां समूहमां मुकुटसमान वे. कडुं ने के, रागद्वेषमहामोहः, कर्थितजगजनैः॥ नाभिभूतं मनो यस्य, महिना तस्य कःक्षमः॥२॥ . (अर्थ-मुःखी करेल ने जगतनां लोकोने जेणे, एवा राग, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाष्टक. ष अने महामोहवडे करीने, जेर्नु मन परानव पामेलु नथी, एवा पुरुषनां महिमानी कोण बरोबरी करी शके तेम ?) एवी रीते उत्तम गुणोनां समूहरूप मणिउने उत्पन्न करवामा समुष सरखा “ महादेव” बुद्धिवानोने स्तुति करवा लायक ; अने महादेवनुं खरं स्वरूप जाणवावाला माणसो तो तेनेज "महादेव" कहे जे; पण जेनुं पराक्रम राग आदिक शत्रउँथी हपाएलुंजे, तेने “महादेव" कहेता नथी. वली अहीं वादी शंका करे ने के, सघला प्राणीमां राग तो होय बेज,माटे (कोश्ने पण) सर्वथा तेनो अनाव संजवेज नहीं. त्यारे वादीने हवे प्रत्युत्तर आपे के, एम नहीं. जो के, सघला प्राणीउने रागषेषनो अनाव नथी श्रतो, तोपण अमुक प्राणीउने तेनो अनाव थाय पण , माटे एवी रीते तारी शंकामां व्यभिचार दोष आव्यो. केम के, आपणने पोताने पण कोश् अप्रिय वस्तुमां ज्यारे रागनो अनाव मालुम पडे ने, तो ते दृष्टांतथी अनुमान करी लेवु के, एवो पण कोश् माणस होवो जोएं के, जेने तमाम वस्तुपर बिलकुल रागनो अजाक्ज होय; अने तेम कहेवामां कई विरोध आवतो नथी. केम के, कडुं ने के, दृष्टो रागाद्यभावस्तु, क्वचिदर्थे यथात्मनः ॥ तथा सर्वत्र कस्यापि, तद्भावे नास्ति बाधकम् ॥१॥ (अर्थ-जेम को कोई कार्यमां आपणने पोताने पण (अनिष्ट वस्तु आदिकपर) रागनो अनाव देखाय बे, तेम कोइ माएसने सघली वस्तुपर पण रागनो अनाव होय, (एम मानवामां) कंई बाधा नथी.) वली वरसादनी श्रेणि आदिकनी पेठे, पुजलिक जावो जेम थोडा, वधारे, अने तेथी पण वधारे नाश थता देखाय , तेम श्रा राग आदिको ज्यारे थोडा नाश थता देखाय , त्यारे ते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहरिजजसूरिकृतान्यष्टकानि । नो सर्वथा क्षय श्रवो पण संजवितज जे. केम के, कडं ने के, देशतो नाशिनो भावा, दृष्टा निखिलनश्वराः ॥ मेघपत्त्यादयो यद-देवं रागाद्यो मताः ॥१॥ (अर्थ-जेम थोडा नाश पामता एवा वरसादनी श्रेणि आदिक नावो, सर्वथा नाश पामता देखाएला बे, तेम राग आदिको पण थोडा अने सर्वथा पण नाश पामता मनाएला बे.) __ वली अहीं वादी शंका करे के, कदाच ( तमारा कहेवा प्रमाणे) कोश्ने ते राग आदिकोनो सर्वथा अनावसंनवी शके, पण ते चित्तवृत्तिरूप होवाथी जाणी शकाय तेम नथी, माटे ते रागघेषादिक विनानो “पुरुषविशेष" शीरीते जाणी शकाय? तेने माटे वादीने प्रत्युत्तर आपे ने के, तेवा पुरुषनां स्वरूप अने चरित्रथी तेने जाणी शकाय . केमके, जेनुं स्वरूप स्त्रीरहित, हथियार रहित, अने रुमाल रहित होय, तथा जेनुं चरित्र भंगारादिक रस रहित, फक्त एकांत शांतरसमयज होय, अने अंतरंग वैरीने जीतनारुं होय, पण असमंजस न होय, तेने “वीतराग" जाणवा. कडं ने के, रागोङ्गना संगमनानुमेयो, द्वेषो द्विषद्दारणहेतुगम्यः ॥ मोहः कुवृत्तागमदोषसाध्यो,नो यस्य देवःस स चैवमहन् अर्थ-स्त्रीनां संगमथी रागर्नु अनुमान थाय बे, वैरीने मारवाथी क्षेषनुं अनुमान थाय ने, पुष्ट आचरणोनां दोषथी मोहनुं अनुमान थाय ने माटे ते त्रणे जेने नथी, एवा देव तो श्री अरिहंतप्रजुज बे. वली, शृंगारादिरसांगारै, ने दूनं देहिनां हितम् ॥ एकांतशांततोपेत, मार्हतं वृत्तमद्भुतम् ॥ १॥ - अर्थ- श्रृंगार आदिक रसरुपी अंगारायें करीने जेथी प्रापीउनु हित नष्ट थयुं नथी, तथा एकांत शांत रसमय, एवं अरिहंत प्रजुनुं वृत्त आश्चर्यकारक बे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाष्टक. अने बीजा देवोनुं तो रागादिकपणुं, अनुचित रूप, तथा अनुचित चरित्र तो (लोकोमां) प्रख्यातज बे. ते कहे . ब्रह्मा लूनशिरा हरिदृशिसरुक व्यालुप्तशिश्नो हरः सूर्योप्युल्लिखितोऽनलोप्यखिलभुक्सोमाकलंकांकित: वर्नाथोऽपि विसंस्थुलःखलुवपुःसंस्थैरुपस्थैः कृतः सन्मार्गस्खलनाद्भवन्तिविपदःप्रायःप्रभूणामपि ॥१॥ अर्थ-उत्तम मार्गथी भ्रष्ट अवाश्री ब्रह्मा बेदाएला मस्तकवालो, विष्णु आंखमां रोगवालो, महादेव बेदाएला लिंगवालो, सूर्य उखडेली चांबडीवालो, अग्नि सर्व लदाण करनारो, चं कलंकवालो, तथा इंज हजार योनिउँवालो थयो; माटे एवी रीते पुराचरणथी समर्थाने पण प्रायें करीने आपदा थाय ने वली, यद्ब्रह्मा चतुराननः समभवद्देवो हरिमनः शकोगुह्यसहस्रसंकटतनुर्यच्च क्षयी चंद्रमाः यजिहादलनामवापुरहयो राहुः शिरोमात्रतां तृष्णे देवि विडंबनेय मखिला लोकस्य रेत्वत्कृता ॥२॥ अर्थ-ब्रह्मा चार मुखवालो थयो, विष्णुदेव वामनरूप अयो, इंश एक हजार योनिवालां शरीरवालो भयो, नागो चीराएली जीजवाला श्रया, राहुर्नु फक्त माधुंज रघु; माटे हे तृष्णादेवी ! आ सघली लोकोनी विडंबना तारी करेली . __हवे ते ब्रह्मानुं मस्तक शी रीते बेदाणुं ? ते कहे जे. एक समये तेंत्रीस क्रोड देवता एका श्रया, तथा ते मांहोंमांहें (पोतपोताना ) माबापोनुं वर्णन करवा लाग्या; त्यारे तेउए कह्यु के, अहो !!! एक महादेवनां माबापो जणातां नथी; ते सांजली एके कह्यु के, महादेवने माबाप बेज नहीं; ते वचन सांजलीने ब्रह्माए मत्सर लावीने पोताना पांचमा गईन आकारवालां मुखथी कडं के, सघली बाबतोनो जाणनार हजु हुँ जीवतो बेगे , बतां एम कोण कही शके. के, महादेवना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । माबाप जातां नथी ? हुं तेना माबापने जाएं ; एम कहीने ते तेनुं वर्णन करवा लाग्यो. पनी नहीं प्रकाशवा लायक एवी वातने प्रकाशित करवाना आरंभथी कोप पामीने महादेवे पोतानी टचली चांगली रूपी तलवारथी सघला देवोनी समक्ष ऊट लेने ब्रह्मानुं गर्दनमुख कापी नाख्युं. एवी रीते ब्रह्मा बेदाएला मस्तकवालो थयो. वली तेने माटे बीजार्ड नीचेप्रमाणे पण कहे बे. एक दहाडो ब्रह्मा विष्णुने पोतपोतानी मोटाश्वास्ते विवाद थयो; पी ते (तेनो निर्णय करवामाटे ) महादेवपासे गया. त्यारे महादेवे कह्यं के, तमारा विवादथी सर्यु. पण तमो बन्नेमांथी जे को मारा लिंगनो अंत लावशे ते ऊंचा दरजानो, अने जे अंत नहीं खावे, तेने तेनाथी नीचा दरजानो जावो. ( ते सांजली ) विष्णु ते लिंगनो त लेवामाटे पातालमां गयो. एवी रीते घणुं चाल्यो, पण त्यां रहेला वज्रसरखा अग्निथी जवाने शक्तिवान् न थवाथी तेना तने पाम्यो नहीं. छाने एवी रीते संतापथी श्याम शरीरवालो ने पालो वलीने ते महादेवपासे व्यो, क के तमारा लिंगनो तो पार पण आवतो नथी. एवी रीते ब्रह्मा पण ऊंचे जवा लाग्यो, पण ते महादेवना लिंगनो अंत न पामवाथी खेद पावा लाग्यो; पण एटलामां लिंगना मस्तकपरथी पडती केतकीनी माला तेने मार्गमां मली. त्यारे ब्रह्मा तेणीने पूयुंके, तुं क्यां हती ? त्यारे तेणीए कह्युं के, महादेवनां लिंगना मथालेथी हुं बुं बुं. त्यारे फरीने ब्रह्माए तेनेपूचुं के तने त्यांथी श्रावतां केटलोक वखत थयो ? त्यारे एक के, मने त्यांथी आवतां व मासो थया. पबी ब्रह्माए क के, महादेवना लिंगनो त लेवावास्ते हुं जलं तुं; पण जे ब महीनानो मार्ग तें बतान्यो तेथी तो हुं हवे कंटालीने पाठो वलीश; कारण के, ते बहु दूर बे; हवे तारे मारुं एक कार्य करवुं जोशे; ते एके, महादेव ज्यारे पूछे, त्यारे "हुं लिंगनो अंत पाम्यो " बुं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाष्टक. एवी रीतनी तारे मारी साक्षी पुरवी पछी ते वात केतकीए पण अंगीकार करी. पी ब्रह्मा तो ते केतकीने साथे लेइने महादेवनी पासे व्यो. अने तेने करूं के, हुं तारा लिंगनो त पाम्यो ; अने वली तने खातरी थवा माटे हुं या केतकीनी माला पण त्यांथी लाग्यो बुं. त्यारे महादेवे केतकीने पुबवाथी तेलीए पण एमज कह्युं. ते सांजली महादेवे विचार्य के, मारुं लिंग तो अनंत बे; बतां बन्ने तेनो अंत ठरावे बे; माटे श्र बन्ने जूहा बे; एम विचारि क्रोध चडवाथी महादेवे पोतानी टचली ग रूपी कुहाडाथी ब्रह्मानुं गर्छजरूप मस्तक बेदी नांख्यं; तथा केतकीने पण त्यारथी श्राप पीने दूर करीरी. विष्णुनी खोमां रोग थयो, तेने माटे नीचे प्रमाणे संजलाय बे. एक दहाडो र्वासा नामना ऋषिने उर्वशी नामनी अप्सरा साथे जोगविलास करवानी वा थइ. त्यारे उर्वशीए तेने कां के, तुं जो कोइ पूर्व वाहनपर बेसीने आवे, तो हुं तने इडीश. त्यारे ते वात दुर्वासा कबुल करी. पठी ते विष्णु पासे गयो. त्यारे विष्णु दरमानयी श्रववानुं कारण पू; त्यारे तेणे कयुंके, हुं देवलोकमां जवाने इतुं बुं. माटे तारे तारी स्त्रीसहित बलदनुं रूप करी रथमां मने बेसाडी त्यां लेइ जवो; पण रस्ते चालतां तमारे पातुं वालीने जोवुं नहीं. पत्नी विष्णुए जक्तिथी तथा ( श्राप दिकना ) जयथी ते कबूल कर्यु; तथा तेने लेने त्यांथी चाल्यो. वे लक्ष्मी तो स्त्रीजाति होवाथी पुरुनी बरोबर चालवा अशक्त थवाथी कृषि तेने चाबुकथी वारंवार मारतो थको हांकवा लाग्यो. एटलामां विष्णुए स्नेहने सीधे पोतानी स्त्रीने पडतो मार सहन न थवाथी पाउं फरीने जोयुं. एवी रीते विष्णुए प्रथम अंगीकार करेली बात नहीं पालवाथी, ते कोप पामेला शषिए तेनी खमां चाबुक मार्यो; अने , Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । तेथ विष्णुनी मां रोग थयो. बीजार्ज वली ते विषे नीचे प्रमाणे कहे . एक खते विष्णु को नदीने किनारे तप करता हता; त्यां कोइ तापसी स्नान करती हती. ते वखते ते तापसणीनुं अंग वस्त्र रहित होवाथी विष्णुए तेणीनापर कामविकारथी दृष्टि नांखी; तेम करतां तेने तापसणीए जोवाथी श्राप श्रापीने रोगिष्ट खवाल कर्यो. महादेव बेदाएला लिंगवालो थयो, ते नीचे प्रमाणे. दारुवन नामना तपोवनमां केटलाक तापसो रहेता हता. तेउनी कुंपडी मां हमेशां महादेव पोताना अलंकारो सहित, तथा घंटाना नाद ने तुंबरूनां ऊणकारथी सघली दिशाउने गजावतो थको निक्षामाटे श्रावतो हतो; तथा त्यां पोताना रूपथी कामविकारने प्राप्त थली एवी तापसणी साथे जोगविलास करवा लाग्यो. पी एक दहाडो तेना श्रा दुराचरणनी ऋषिर्जने मालुम पडवाथी ते गुस्से थइने श्राप थापी तेना लिंगनो बेद कर्यो. अने ते करवाथी सघला माणसोने संताननी उत्पत्ति थवी बंध पडी गइ. श्रा जोइने देवताईए विचार्य के आवी रीते एकी वेलाए आ निनो संहार न थाय तो सारुं; एम विचारि तेर्जए तापसोने समजावी शांत पाड्या. त्यारे तेन॑ पातुं महादेवनुं लिंग जेवुं हतुं तेवुं कर्यु; पण तेनी साथे एवं कां के, पूर्वकाले ते लिंग जे हमेशां स्तब्ध हतुं, ते हवे जोगनी वांबा होते बतेज स्तब्ध यशे; पी त्यारथी माणसो पण पाठा लिंगयुक्त श्रया; अने प्रजानी उत्पत्ति थवा लागी. सूर्य पण उखडेली चांबडीवालो थयो, ते नीचे प्रमाणे. सूर्यने रन्नादेवी नामे एक स्त्री हती; तेणीने यम नामे एक पुत्र हतो; हवे ते स्त्री सूर्यनां तापने सहन नहीं करवाथी पोताना स्थानके पोताना सरखं कृत्रिम रूप मूकीने, पोते घोडीनुं रूप करी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाष्टक. १३ समुद्रने किनारे रहेवा लागी पढी ते कृत्रिम स्त्रीए शनैश्चर तथा नामना संतानोने जन्म प्यो. एक दहाडो ते यमे बहारथी [वीने तेणीनी पासे जोजन माग्युं; पण तेणीए तेने प्यु नहीं. त्यारे यमने क्रोध चडवाश्री तेणीने तेणे लात मारी; तेथी तेणीए श्राप आपीने तेना पगनो नाश कर्यो पनी यमे ते वात पोताना पिता ने कही संजलावी; त्यारे सूर्य विचारखा लाग्यो के, सगी माता श्रम केम करे ? माटे खरेखर श्र श्रनी माता नथी; एम विचारतां तेणे तेनी ( यमनी ) माताने घोडी रूपे जोइ. पी सूर्ये त्यां जड़ तेलीनी इवाविरूद्ध बलात्कारथी तेनी साथे लोग जोगव्यो; अने त्यां अश्विन नामना बे देवोनी उत्पत्ति थ; वली तेणीए क्रोधथी लाल थपली आंखोथी तेना तरफ ( सूर्य तरफ ) जोवाथी ते कुष्टी थयो; पछी सूर्य ते रोगथी मुक्त थवामाटे धन्वंतरी पा गयो; त्यारे धन्वंतरीए कह्यं के, तारा शरीरनी चांबडी उखेड्या विना तुं निरोगी श्रइ शके तेम नथी; पनी सूर्ये चांबडी उखेडवा माटे धन्वंतरीने प्रार्थना करी; त्यारे ते वैद्यराजे कह्युं के, तारे ते सहन करवुं पडशे; नहींतर तने तजी देश; त्यारे सूर्ये क के, हुं ते सहन करीश; पछी ज्यारे माथांथी मांडीने घूंट सुधि चांबडी उखेडाणी त्यारे घणी पीडा थवाथी सूर्ये सीत्कार शब्द कर्यो; त्यारे धन्वंतरी पण चांबडी जखेडतो की पड्यो; एवी रीते चाविनानी स्त्रीने जोगववाथी, तथा उत्तम पुरुषनां मार्गथी स्खलित श्रवार्थी तेने दुःख सहन करवुं पड्युं. बीजा वली ते माटे नीचे प्रमाणे कहे बे. घोडीना रूपवाली पोतानी स्त्रीसाथे जोग जोगवीने, तेणीना बापने ते सूर्य ठपको देवा लाग्यो के, तारी श्र पुत्री मने तजीने बीजी जगोए जइ रहे बे. त्यारे ते सूर्यने कह्युं के, तारा शरीरना तापने ते सहन करी शकती नथी; तेथी ते बिचारी शुं करे ? माटे जो तारे तेणीनं प्रयोजन होय, तो तुं तारुं शरीर बोलाव ? पछी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्री हरिजसूरिकृतान्यष्टकानि । सूर्य ( शरीर बोलाववामाटे ) धन्वंतरी पासे गयो; अने बाकीनं वृत्तांत श्रगलनी वात मुजबज जाणी लेवु. अनि पण सर्वजी नीचे मुजब कहेवाय बे. कोइ एक ऋषि पोतानी कुंपडीमां रहेला अग्निने अत्यंत नक्तिपूर्वक तीवडे करीने पूजतो हतो. ते ऋषिए एक दहाडो ते कि के, तारे या मारी स्त्रीनं रक्षण करवु; एम कही ते कई कार्यमाटे बहार गयो. एटलामां कोक शषिए त्यां श्रवीने अग्निनी समज ते स्त्रीसाथे जोगविलास कर्यो ; पढी क्षणवारमांज पेलो कृषि पण त्यां श्रव्यो; तथा पोतानी हुशियारी थी ते जाएयुंके, स्त्रीने कोइ परपुरुषे जोगवी बे; एम विचारि ते अग्नि तथा स्त्रीने पूक्युं के, ऋहीं कोण श्रायुं हतुं ? ते सांली तेर्जए कई पण उत्तर आयो नहीं. त्यारे ते ऋषिए ज्ञानना उपयोगथी ते वृत्तांत जाणी लीधो; तथा रक्षण करवा ली वस्तुनुं रक्षण नहीं करवाथी, ने पूढचाथी प्रत्त्युत्तर प नहीं पवाथी, ते कृषिए निपर कोपायमान थने श्राप यो के, तुं सर्वजी थजे; अने त्यारथी ते अनि अशुचि पदार्थ विगेरेनो न करनारो थयो; काने एवी रीते, ते जे कंड खाय, ते सघलुं देवताउने मले; केमके ते देवोनुं मुख बे. पबी देवने शुचि पदार्थोनो स्वाद श्रववाथी उद्वेग पामीने तथा ज्ञानयी श्रापनो वृत्तांत जाणीने ते ऋषिपासे वी तेने शांत करवा लाग्या; पण ते कृषि शांत थयो नहीं; तो पण देवतार्जना ग्रहथी ते ते अग्निनी सात जीनो करी; अने त्यारथी ते अग्नि " सप्तार्चि " कहेवावा लाग्यो. पनी ते साते जीनोमांथी बे जी करीने आहुतीनेज जक्षण करवा लाग्यो; अने पांच जीनोथी तेने सर्वजी तरीके स्थाप्यो. " वली चंद्र कलंकित थयो, तेनुं वृत्तांत नीचे प्रमाणे जाणवुं. एक वखते चंद्र बृहस्पतिपासे जणवामाटे गयो; केमके बृह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाष्टक. स्पति देवोनो आचार्य जे; त्यां चंजे तेने घेर लणतां थकां ते बृहस्पतिनी स्त्रीसाथेनोगविलास करवा मांड्यो. ते वातनी बृहस्पतिने जाण थ त्यारे तेने तेणे श्राप थाप्यो के, रे! गुरुनी स्त्री नोगवनार ! तुं कलंकी थजे. एवी रीते चंज कलंकी थयो. वली इंज पण हजार योनियोथी नरेलां शरीरवालो नीचे प्रमाणे थयो. गौतम ऋषिने अहिल्या नामनी स्त्री हती. तेना रूपथी मोहित थएलो इंश तेनी कुंपडीमां जश्ने तेणीनी साथे लोग लोगववा लाग्यो; एटलामां त्यां ते शषि आवी चड्यो; त्यारे इंज पण तेना जयथी बिलाडानुं रूप करीने तेना घरमांथी निकलीने स्वर्गमां गयो; त्यारे मुनिए विचार्यु के, स्वानाविक बिलाडो होवो न जोश्ए; एम विचारतां तेणे इंजने उलखी कहाड्यो; तेथी क्रोधथी तेणे इंजना शरीरमां श्रापश्री हजार योनि करी; तथा पोताना शिष्योने तेने लोगववामाटे मोकट्या; पण मुनि गयो नहीं; पनी देवोए ते शषिने शांत पाडी खुशी करवाथी तेणे ते योनिउँने बदले नेत्रो कर्या. हवे ब्रह्मा पण चार मुखवालो नीचे प्रमाणे अयो. एक दहाडो ब्रह्मा मोटा उद्यानमा तपस्या करवा लाग्यो; ते वखते तेने चलायमान करवामाटे सघली अप्सराउनु तलतल जेटलृ रूप लेश्ने इंजे तिलोत्तमा नामनी अप्सरा बनावी; तथा तेणीने अने बीजी अप्सराउने पण ब्रह्मापासे तेनी समाधिनो नंग करवामाटे मोकली. ते पण त्यां जश्ने पूर्व दिशासन्मुख बेठेला ते ब्रह्मानी समीपे गायन, नाच विगेरे करवा लागी. त्यां ब्रह्माने पोतानी सन्मुख लोचनवालो तथा मनवालो जोइने तेउए दक्षिण दिशामां जश्नृत्यादिक करवा मांड्यु. एवी रीते नष्ट श्रएली ने समाधि जेनी एवो ते ब्रह्मा सजाथी सन्मुख जोवाने अशक्त होवाथी ते प्रते पोतानुं बीजुं मुख करतो हवो. एवी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । रीते पश्चिम दिशाए अप्सरा जवाथी ते दिशातरफ त्रीजुं, तथा उत्तर दिशाए जवाथी ते तरफ चोथु, तथा आकाशमां उपर जवाथी पांचमुं मुख कर्यु. एवी रीते ब्रह्मा पांच मुखोवालो थयो. अने पालथी शंकरे ज्यारे तेनुं गर्दनमुख कापी नाख्यु, त्यारथी ते चार मुखवालो थयो. विष्णु वामनरूपे थया, ते पण नीचे प्रमाणे. - एक वखते बलि नामना दानवने बांधवामाटे विष्णुए वामनरूप थश्ने कुंपडीमाटे तेनी पासेथी त्रण पगलां जमीन मागी; पनी ज्यारे बलिराजाए कबुल कर्यु, त्यारे तेणे त्रणे पगलांथी त्रणे खोकने रोकी लीधाथी स्थानविनाना ते बलिने पातालमा दाबी दीधो. - हवे चंज क्षयरोगवालो केम थयो ? तेने माटे कहे जे. ददने सत्तावीस दीकरी हती; तेउने चंड परण्यो; ते सघसीमां रोहिणी उपरज तेनुं मन आसक्त श्रयु: तेथी बीजी अणमानीतीए ते वात पोताना पिताने कही; त्यारे तेणे तेने कोधथी श्राप आपीने क्यवालो कर्यो; पण पालथी देवोए तेने शांत पाड्याथी, तेणे तेने एक पक्षमा वृधिवालो को. ___नागो पण नीचे प्रमाणे बे जीनोवाला श्रया. एक वखते देवताए वीरसमुज्ने मथीने अंदरथी अमृत मेलव्यु; ते अमृतना कूडां जरीने तेउपर घास आचादित कयुः तथा तेनी रक्षामाटे नागोने बेसाड्या; पची एकांत जोश्ने तेढए ते अमृत पीवा मांड्यु, त्यारे तेमां रहेला डालोथी तेउनी जीजो चीराइ गइ. बीजा वली ते माटे नीचे प्रमाणे कहे जे. - ज्यारे तेए अमृत पीवा मांड्यु, त्यारे इंजे वज्र मारवाथी तेउनी जीन चाराश् गइ... .. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाष्टक. राहु, फक्त माधुंज रह्यु; ते नीचे प्रमाणे. देवोए अमृतनां कुंडां नर्या; अने तेनी रक्षामाटे तेए विष्णुने बेसाड्यो. पडी विष्णु ज्यारे कंक कार्यमां गुंथाया, त्यारे राहु ते पीवा लाग्यो. विष्णुए तेने तेम करतो जोश्ने तेना पर चक्र फेंकी तेनुं मस्तक बेदी नाख्यु; पण अमृत पीधेलु होवाथी तेर्नु मस्तक अजरामर थयु. एवी रीते "ब्रह्मानुं मस्तक केम बेदायुं” इत्यादि विस्तारथी विवेचन कर्यु. वली. स एष भुवनत्रयप्रथितसंयमः शंकरो। बिभर्ति वपुषाधुना विरहकातरः कामिनीम् अनेन किल निजिता वयमिति प्रियायाः करम् करेण परिताडयन् जयति जातहासः स्मरः ॥१॥ अर्थ-कामदेव पोतानी स्त्रीसाथे हाथमां ताली देश्ने महादेवनी हांसी करे ने के, त्रण जगतमां जेनुं संयम प्रख्यात , एवो महादेव स्त्रीनो विरह नहीं सहन करवाथी पोताना शरीरनीसाथे तेणीने राखे अने ते महादेवे मने जीतेलो ( कहेवाय ;) ए केवी आश्चर्यकारक वात !!! वली, दिग्वासा यदि तत्किमस्य धनुषा सास्त्यस्य किं भस्मना । भस्माथास्य किमंगना यदि च सा कामं परिवेष्टि किं ॥ इत्यन्योन्यविरुहुचेष्टितमिदं पश्यनिजखामिनो श्रृंगी सां शिरावनद्धपरुषं धत्तेस्थिशेषं वपुः ॥१॥ अर्थ-ज्यारे महादेव दिशारूपीज वस्त्रवालो ने, त्यारे तेने धनुषनी शी जरूर जे ? तथा ज्यारे धनुष राखे , त्यारे लश्मनी शी जरूर ? तथा ज्यारे जस्म चोले , त्यारे स्त्रीनी शी जरूर ने ? तथा ज्यारे स्त्री राखे चे, त्यारे ते कामदेवनो शामाटे घेष करे ? एवी रीते पोताना स्वामिनुं परस्पर विरोधवालुं चेष्टित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । जोने, जुंगी केतां महादेवनो पार्षदगण मात्र नसो ने हाडकांथीज बनेलुं पोतानुं खेदयुक्त शरीर धारण करे बे. १.८ एवी रीते पायापगम नामनां श्रतिशयनां घारें करीने महादेवपणुं वर्णव्युं. हवे गुणातिशयना प्रतिपादनथी तेज महादेवनुं स्वरूप कहे बे. यो वीतरागः सर्वज्ञो, यः शाश्वत सुखेश्वरः ॥ क्लिष्टकर्मकलातीतः, सर्वथा निष्कलस्तथा ॥३॥ यः पूज्यः सर्वदेवानां, यो ध्येयः सर्वयोगिनाम् ॥ यः स्रष्टा सर्वनीतीनां महादेवः सउच्यते॥४॥ युग्मम् अर्थ- जे रागविनाना, सघलुं जाणनारा, शाश्वतसुखना मालिक, दुष्ट कर्मोना अंशथी रहित, सर्वथा प्रकारे शरीरना - यव विनाना, सर्वदेवोने पूजवालायक, सर्व योगीउने ध्यान धवालायक, तथा सर्व प्रकारनी नीतिने बनावनारा होय, ते महादेव कहेवाय. टीकानो जावार्थ-हीं जे वीतराग होय, इत्यादि सर्व पदोनी साथे " ते महादेव कहेवाय " एवी क्रिया जोडी लेवी. विशेषे करीने जेनो राग गयो बे, तेवो गमे ते कोइ देव ते वीतराग कवाय; वली घेषनो दय थवाथीज रागनो पण दय थाय बे, माटे जेने राग नथी, तेने द्वेष पण नथी, एम समजी लेवं. सघली याने पर्यायरूप वस्तुउने जे जाणे, एटले विशेषे करीने सघलां वरणो खसी जवाथी उत्पन्न थरला केवलज्ञाने करीने जे ( सघली बीनाने ) जाणे ते सर्वज्ञ कहेवाय; तेम सर्वदर्शी " ( सघलुं जोनारा ) प्रते सर्वज्ञपणानो व्यजिचार तो नहीं होवाथी जेम ते सघलुं जाणनारा बे, तेम ते सघलुं जोनारा पण बे, एम पण जाणी लेवु. (6 वादी शंका करे के, (प्रस्तुत महादेवने ) राग, द्वेष, छाने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाष्टक.. 麵 मोहन जाव तो प्रथम कही गएला बो, अने तेम कर्याथी तेमने ( महादेवने ) वीतरागपणुं तथा सर्वज्ञपणुं तो खुल्लुं जाइ आवे छे; ( केम के, वीतरागपणानुं तथा सर्वज्ञपणानुं ते स्वरूप बे; ) तो वली फरीने वीतरागपणुं छाने सर्वज्ञपणुं ांगीकार करवानी शी जरूर दती ? हवे ते वादिने हे के, जेम ते महादेवने रागादिक नथी, तेथीज ते " वीतराग " तथा " सर्वज्ञ" पण बे; एवी रीते हेतुफलनां जावें करीने, जेम " मेलनो नाश थवाथी पीला रंगना प्रकर्षवालुं सोनुं ” इत्यादि न्यायें करीने प्रस्तुत महादेवनो गुणातिशय कहेलो बे; माटे तेमां ( पुनरुक्तिनो ) दोष नथी; केम के, मोटा पुरुषो वाक्यमां एवी रीतना न्यायनो आश्रय करता देखाएला बे. अथवा केटलाको ( अन्य दर्शनी ) वैराग्य तथा ज्ञान दिने प्रकृतिनां जावो माने बे; अने ते जावो कैवल्यअवस्थामा प्रकृतिनो नाश थवाथी, दूर थाय बे; माटे तेर्जना मतने दूषित करवामाटे ( उडाववा माटे ) पण ते ( सर्वज्ञ आदिक ) विशेषणो निर्दोष बे. ते कदे ने के, ज्ञानाने वैराग्य आदिक चैतन्यनां स्वभावो बे; अने चैतन्य तो आत्मानुं स्वरूप बे; केम के " चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपं " ( चैतन्य ने ते श्रात्मानुं स्वरूप बे.) एम कहेतुं बे; माटे एवी रीते चैतन्य ज्यारे आत्मानुं स्वरूप अयुं, त्यारे ते ज्ञान ने वैराग्य श्रादिक ( कैवल्य वस्थामां पण ) शी रीते नाश थाय ? वली बीजा श्राचार्यो उपरना ( मूल श्लोको माटे ) नीचे प्रमाणे पण कडे बे. ८८ यस्य संक्लेशजननो " इत्यादि मूलना प्रथमना बन्ने श्लोको अरिहंत प्रजुनी बस्थ अवस्थाने श्रीने करेला बे; एम तेनुं व्याख्यान करे बे; केम के, " क्लेशने उत्पन्न नहीं करनारो " इत्यादि जे रागादिकनां विशेषणो कहेलां बे, तेज तेज व Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । स्थामां (उद्मस्थ अवस्थामां ) व्यवच्छेदफलरूप थइ शके बे; एटले जेने संक्वेशने उत्पन्न करनारोज राग नथी, तथा समतारूपी लाकडांने बालनारोज द्वेष नथी, ने सत्य ज्ञानने ढांकनारो, तथा शुवृत्त करनारोज मोह नथी; ते महादेव कहेवाय; " पण जेने सत्तामा रहेला ते ते कर्मोनां दलियां रूपे पण राग, द्वेष विगेरे नथी, तेज महादेव कदेयाय; " एवं कदेवानी छात्रे मतलब नथी; " ( उपरनो मत, " पेढेला बन्ने लोको अरिहंत जुन स्वस्थाने आश्रयी बे, " एम माननारा महान आचार्योनो बे, छाने ते पण सत्यज बे.) ( वली पण तेमनोज मत दर्शावे बे.) “यो वीतराग " इत्यादिक जे बीजा बे मूलना श्लोको बे ते संसारमा रहेला केवलीउने श्रश्रीने कहेला बे. वादी शंका करे के, उद्मस्थ अवस्थामां महत्वपणुं माअनुचित बे, केम के, तेथी "महत्तर" एवी बीजी अवस्थानो सद्भाव बे. त्यारे वादीने कहे वे के, एम नहीं. एम. मानवाथी तो सिद्धपणुं वे लक्षण जेनुं एवी महत्तम नामनी जे बीजी अवस्था, सेनो सनाव होवाथी केवलीने पण अमहत्वनो प्रसंग वे - थवा कोइ बीजी रीते अपुनरुक्तपणुं जावी लेवुं. et (प्रस्तुत महादेवने ) वीतरागनुं विशेषण लगाड - वाथी रागवालार्जुना महादेवपणानो प्रतिषेध को. ने तेने विषे पेहेलांज जावना देखाडेली बे. हवे अहीं " सर्वज्ञ” एवं विशेपण देवाथी कपिलना महादेघपणाने दूर कर्यु; केम के, तेनुं सर्वज्ञपएं तो तेना पोतानांज मतथी वरी शकतुं नथी; ते नीचे प्रमाणे जाणवुं. ad ( कपिल मत माननाराज) एम माने ने के, बुद्धिमां - वस्थित आत्मा चिंतवे बे; छाने प्रकृतिनां विकारपणाथी that saस्थामा ज्यारे प्रकृतिनो नाश थाय बे, त्यारे बुझिनो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाष्टक. पण नाश श्राय , अने तेथी ते अवस्थामा कोइ पण पदार्थर्नु जाणपणुं रहेतुं नथी; त्यारे सर्वज्ञपणानी तो वातज शी करवी!!! माटे ते कपिलनो पक्ष महादेपणामाटे जंची पायरीपर श्रावी शकतो नथी; केम के, ज्यारे ते बुझिमय ज्ञान माने , अने ते बुद्धि प्रकृतिने आधारे में तो ते आधारमय एवी प्रकृति ज्यारे कैवट्य अवस्थामां नाश पामे , तो पनी तेमां ज्ञानशक्ति तो रहेज शानी ? केम के, आत्माने ज्ञानमय मानवाथी तो, ज्ञानने अटकावनारी प्रकृतिनो ज्यारे नाश थाय, त्यारेज आत्माने सर्वज्ञपणुं घटी शके बे. वसी तेज “सर्वज्ञ" एवा विशेषणथी बुझ्नु महादेवपणुं पण दूर कयुः केम के, ते किंचित् किंचित् जाणनार के कारण के तेना (बुधना ) अनुयायिर्ड कहे के, सर्वं पश्यतु वामावा, ईष्टमर्थ तु पश्यतु ॥ कीटसंख्यापरिज्ञानं, तस्य न कोपयुज्यते ॥१॥ अर्थ-सघलु जुन अथवा न जुर्ख, पण फक्त तत्वनेज जुर्ज कारण के कीडाउनी संख्यानुं जे ज्ञान, तेनी अमारे शी जरूर ? एवी रीते किंचित् किंचित् जाणपणुं पण तेने ( बुद्धने) घटी शकतुं नथी; केम के तेने सर्वज्ञपणुं नहीं होवाथी सघला स्वपरपार्यायें करीने विशिष्ठ श्रयेला एवा एक अर्थने जाणवाने पण ते अशक्त बे. कडुं ने के, एको भावः सर्वथायेनदृष्टः, सर्वे भावाःसर्वथातेन दृष्टाः सर्वेभावाःसर्वथायेनदृष्टा, एकोभावःसर्वथातेनदृष्टः॥१ अर्थ-जेणे सर्वश्रा प्रकारे एक नाव जोएलो बे, तेणे सर्व जावो पण सर्वथा प्रकारे जोएला के अने सर्वे जावो जेणे सर्वथा प्रकारे जोएला जे, तेणे एक नाव पण सर्वथा प्रकारे जोएलो बे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहरिलजसूरिकृतान्यष्टकानि । वली अहीं वादी शंका करे के, सर्वज्ञ संजवी शकतोज नथी, केम के, शशलाना शिंगडांनी पेठे सत्तासाधक प्रमाणथी ते वात ग्राह्य थ शकती नथी, केम के आ " सर्वज्ञ"जे, एवं ते कासना ( सर्वज्ञ जे वखते विचरता हता ते वखतना) विधानो पण ते सर्वाने जाणी शकाय, एवा ज्ञानना अनावथी तेउने जाणवाने शक्तिवान थता नथी. ___ हवे ते वादीने कहे जे के, एम नहीं; केम के, सर्वज्ञपणुं सिद्ध करवाने सत्तासाधक प्रमाणनुं जे तें अग्राह्यपणुं कडं, ते वात असिद्ध अर्थात सर्वज्ञपणुं सिद्ध करवामाटे घणां प्रमाणो . ते नीचे प्रमाणे. __ जे पदार्थो थोडाथोडा नाशवंत होय, तेउनो समूलगो नाश थवानो पण संजव केम के, जेम सामग्री विशेषथी वस्त्र रत्ननां मेल आदिक पदार्थो अपचय (दय) धर्मवाला , तेम ज्ञानावरणादिक पण अपचय धर्मवाला बे; माटे तेउनो सर्वथा दय थवो पण संजवे के एवी रीते ज्यारे तेऊनो सर्वथा क्य थाय , त्यारे सर्वज्ञपणादिकजावो पण प्रगटी निकले के अने ते ज्ञानावरणादिकोने अपचयधर्मपणुं कई असिफ नथी, केम के पोताना संतानमां पण ज्ञान आदिक, थोडाघणापणुं देखायज . कधु ने के, दोषावरणयोर्हानि, निःशेषास्त्यतिशायनात् ॥ कचिद्यथाखहेतुभ्यो, बहिरंतर्मलक्षयः ॥ १॥ अर्थ-जेम पोतानां हेतुथी (जपायोथी) बहारनो अने अंतरनो मेल नाश पामे , तेम अतिशयपणाथी दोष अने आवरणनी हानि सघली पण संजवे बे. __ वली इजियोने गोचर न थ शके एवा बंध, मोक्ष अने परलोक आदिक लावो कोश्ने प्रत्यक्ष पण होय , केम के, अग्नि श्रादिकनी पेठे ते वात अनुमानयी सिद्ध थाय बे. कां.बे के, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाष्टक. २३ सूक्ष्मांतरितदूरार्थाः, प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा ॥ अनुमेयवतोऽन्यादि, रिति सर्वज्ञसंस्थितिः॥१॥ अर्थ-जेम सूक्ष्म, आंतरावाला, तथा दूर रहेला पदार्थो कोइने प्रत्यद , तथा अग्नि श्रादिक जेम अनुमानश्री सिद्ध थाय ने, तेम सर्वानी स्थिति पण जाणवी. ___एवी रीते ते सर्वाने जाणवाना ज्ञानथी शून्य एवा माणसो पण अनुमान प्रमाणथी “श्रा सर्वज्ञ ने के, नहीं” ते जाणी शके वे. (एवी रीते वीतराग पणानुं अने सर्वज्ञपणानुं विस्तारथी वर्णन कर्यु-) हवे वली जे शाश्वत सुखनांमालिक होय, तेने "महादेव" कहेवाय. अंहीं मूख श्लोकमां फरीने पण जे “यः" शब्द मुकेलो , ते बीजी (प्रस्तुत महादेवनी) श्रवस्थाने सूचवनारो के एटखे के, राग श्रादिकना क्यथी प्रगट थएबुं वीतरागपणुं अने सर्वज्ञपणुं नवमां रहेला केवली आदिकनी अवस्थामां महत्वने सूचवनारंजे आ " साश्वता सुखना मालिकपणादिक" त्रण विशेषणो मोक्ष अवस्थामां महत्वने सूचवनारां ने. हमेशां जे सुख रहे, तेने शाश्वतुं सुख कहीये, अने तेवं सुख मोह थकी उत्पन्न थता आनंदरूप जे. केम के, ते शिवाय ते शाश्वतुं सुख उपलब्ध अश् शकतुं नथी; अने तेवा शाश्वता सुखना जे स्वामी तेने " शाश्वतसुखेश्वरः" कहीयें. __ वली अहीं वादी शंका करे के, सघली वस्तुम्ने क्षणिकपणुं होवाथी सुखने शाश्वतपणुं शी रीते घटी शके ? ते शंकामाटे ते वादीने कहे ने के, वस्तुने सर्वथा प्रकारे तो क्षणिकपणुं घटी शकेज नहीं; केम के, तेनो स्वजाव तो उत्पाद (उत्पन्न अर्बु ते) व्यय, (नाश) अने ध्रौव्य (अचलपj) रूप . वली अहीं हजु ते माटे घणुं बोलवा जेवू ने, पण ते पंदरमां श्रष्टकधी जाणी लेवू; माटे एवी रीते तेवा प्रकारना शाश्वत सु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्रीहरिलजसूरिकृतान्यष्टकानि ।। खनो असंजवज जाणवो नहीं; केम के, सुखनु आवरण ज्यारे अपचयधर्मवा , त्यारे ते आवरण तमाम नाशवालुं पण संनवे के केम के, तेना अपचयनो संजव जे; अने तेने माटे पेहेलां वर्णन करेढुंज ; वली श्रा विशेषणथी दाणदाणप्रते क्य थती वस्तुउँने माननाराए ( बौछोए ) मानेला देवना महत्वपणाने दूर कयु: केम के, तेमना एवी रीतना मतथी तेमने तेवा प्रकारना ( शाश्वता ) सुखनो असंनव ; अने ज्यारे एवी रीतनुं शाश्वतुं सुख तेमना महादेवने मलतुं नथी, त्यारे तेमनुं महत्वपणुं तो फक्त कट्पनारूपज बे. वली ते प्रस्तुत महादेव “क्लिष्टकर्मकलातीतः" केतां नवनां हेतुपणाश्री क्वेशरूप एवा जे ज्ञानावरणादिक आठ प्रकारना कर्मोना अंशो, तेनाथी मुकाएला में आ विशेषणथी जे एम माने ने के, “ज्ञानी एवा धर्मतीर्थना करनाराठ मोदमां गया पनी पण फरीने पोताना तीर्थनी पडती जोड्ने, पाग संसारमां आवे बे;" तेए मानेला देवोना महत्वनो व्युदास (नाश) कर्यो. केम के, जो क्लीष्ट कर्मोना अंशोनो अनाव भएलो होय, तो लवमां पागे अवतार थवो असंजवित जे. कडं ने के, अज्ञानपांशुपिहितं, पुरातनं कर्मबीजमवीनाशि ॥ तृष्णाजलाभिषिक्तं, मुंचति जन्मांतरं जंतोः ॥ १॥ अर्थ-अज्ञानरूपी धूलिथी आबादित थएलु, अने पुराणुं, तथा नाश न पामे एवं कर्मरूपी बीज, तृष्णारूपी पाणीथी सिंचावाथी प्राणीने जन्मांतरमा लावी मुके . (वामन, नरसिंह) आदिक नगरांरूपो धरीनवने विषे अवतार खेनारा, अने पोतानां शासन- अपमान नहीं सहन करनारा, एवा ते देवोर्नु महत्वपणुं केवु ?! तथा जे सर्व प्रकारे शरीरना सघला अवयवरहित होय, तेज "महादेव" कहेवाय; कारण के, ज्यारे ते अवयवोनो अनाव थाय, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाष्टक. २५ मननो त्यारेज सुखनो पण संभव थाय बे. कह्युं वे के, ज्यारे शरीर अने व थाय, त्यारेज दुःखनो पण अजाव थाय; कारण के दुःखना संजवरूप शरीरपणामां ते महत्वपणुं शी रीते संजवे ? वली विशेषणथी ( " सर्वथा निष्कलः " ) एवा विशेषथी ) शरीरें करीने जे महत्वपणाने अंगीकार करे बे, तेना मतनो तिरस्कार कर्यो; केम के, तेज समस्त जगत्ने महादेवना चक्षु, मुख, हाथ, तथा पगथी जरेलुं माने बे; अने तेम श्रबुं तो संजवतुंज नथी, तेथी एवी रीतना पुरुषमां महादेवपणुं पण असंजवितज बे; केम के, समस्त जगत ज्यारे तेनां चक्षुमयज श्रयुं, त्यारे बीजा अवयवोने रहेवाने तो जगतमां कई पण स्थान रह्युं नहीं; माटे तेवा प्रसंगथी तेनुं महादेवपणुं घटी शकतुं नथी; अने ते शिवाय जो कोइ बीजी रीतथी ( पोतानुं ) महादेवपणुं कहेवा मागे, तो तेमना पोतानाज मतने विरोध आवे बे; केम के, ते मनाज शास्त्रमां कह्युं वे के, अपाणिपादो जवनो ग्रहीता, पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः ॥ स वेत्ति विश्वं नच तस्य वेत्ता, तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् ॥ १ ॥ " कार्थ- जे हाथ पगवीनां चाली शके बे, तथा ग्रहण करी शके बे, तथा चतुविना जुए बे ने कानविना सांजले बे, वली ते जगतने जाणे बे, पण तेने कोइ जातुं नथी, एवा पुरुषने अग्रेसर महानपुरुष ( महादेव ) कहे बे. ሰ वली बीजाचार्यो या विशेषणाने माटे नीचे प्रमाणे कहे बे. 'क्लिष्टकर्मकलातीतः " केतां नाश करेल बे, घाति कर्मो जेणे एवा जवमां रहेला केवली जाणवा; तथा " सर्वथा निष्कलः " एटले दय थएलां वे जवोपग्राही कर्मो जेना एवा सिकेवली जावा. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । हवे " यः पूज्यः सर्वदेवानां” केतां जे प्रस्तुत महादेव, सर्व नवनपति आदिक देवोने पूजनीक बे, केम के, जे" वीतराग" आदिक गुणोयें करीने युक्त होय, तेज देवोथी पूजाय जे; अने तेना पूजनिकपणाथी तेउनी प्रतिमाउनु पण पूजनीकपणुं सिद्ध थाय . अथवा सघला हरिहरादिक देवो के जेउँ, जेठने (तेना मतवालाउने) पूजनिक , (तेऊना समूहनी अपेदाथी) एवा बौझादिकोने पण प्रस्तुत महादेवज पूजनीक बे; केम के ते पोतपोताना देवोने पूजता श्रका पण तत्वश्री तो प्रस्तुत महादेवनेज पूजे के अथवा तेना उपदेशश्री स्वर्ग अने मोदनो संग थशे, एम मानता थका तेने पूजे जे; अने उपदेश पण ग्रहण करवा लायक मोदनां विसंवादरहित ज्ञानश्री, तथा वीतरागपर अपेषपणुं होते तेज थाय जे; बीजी रीते थतो नथी. माटे एवी रीते पोताना देवमां पण सर्वपणा आदिक गुणोनुं आरोपण करीने तेने पूजे बे, अने तेश्री परमार्थथी तो ते प्रस्तुत महादेवज तेमनाथी पूजाय बेमाटे प्रस्तुत महादेव “सर्व देवोने (सर्व देवो के, पूजनिक जेने एवा बौछादिकोने) पूजनीक " एम कहेवू दूषणरहित बे. तथा वली, “योध्येयः सर्वयोगिनां" केतां जे आ प्रस्तुत महादेव सर्व अध्यात्मचिंतकोने ध्यान धरवालायक के केम के तेवा योगी पण, एवा वीतराग आदिक महान् गुणोवासानुंज ध्यान धरे के अने तेवा तो उपर कहेली रीते करीने अरिहंत प्रनुज . वली “यः सृष्टा सर्वनीतीनां" केतां जे सघला नैगम आदिक नयोना, अथवा साम आदिक नीतिना प्रकाश करवाएं करीने उत्पन्न करनारा श्रा विशेषणथी केवल एमज नहीं जाणवू के, षनदेवप्रनुएज लोकोना व्यवहार माटे सामादिक नीति बनावी ,अने तेथी तेज "महादेव" कहेवाय अने बीजा अजितनाथ आदिक त्रेवीस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाष्टक. तीर्थकरो महादेव न कहेवाय; केम के, चौदे पूर्वोमा रहेली सघली वाणी सर्व तीर्थकरोए देखाडेदी होवाथी, ते पण नीतिने बनावनाराज . ___एवी रीतनां उपर कहेला गुणोए करीने जे युक्त होय, ते महादेव कहेवाय. ___ अहीं वादी शंका करे के, पेहेला बे इलोकने डे कहेलु ले के, तेवा तेवा गुणोवाला होय, ते महादेव कहेवाय; अने वली फरीने पण पालुं “ते महादेव कहेवाय" एम अत्रे शामाटे कयुं ? तेने माटे तेने उत्तर आपे ने के, सघला लावोनुं बे प्रकारनुं स्वरूप होय के एक व्यावहारिक अने बीजुं पारमार्थिक; तेमांथी पारमार्थिक महादेवपणुं जणाववा माटे आ वचन कहेलु जे. हवे प्रस्तुत महादेवने बीजा लक्षणथी लदयगोचर करवा माटे कहे . एवं सत्तयुक्तेन, येन शास्त्रमुदाहृतम् ॥ शिववर्त्म परं ज्योति, स्त्रिकोटीदोषवर्जितम्॥५॥ अर्थ-एवी रीते उत्तम आचरणोएं करीने युक्त एवा, जे देवे मोदना मार्गरूप, तथा उत्कृष्ट ज्योतिवालु, अने त्रिकोटि दोषोएं करीने रहित एवं शास्त्र बनावेलुं , ते “महादेव" कहेवाय. टीकानो नावार्थ-एवी रीते उपर वर्णवेला रागषना क्य करवारूप तथा जवमा रहेला केवलीने लायकनुं अनिंदित आचरण (वृत्त) अहीं जाणवू; पण शाश्वता सुखना मालिकपणा आदिक सिद्ध अवस्थाने उचित आचरण जाणवू नहीं; केम के, सिघ अवस्थामांशास्त्रोना उपदेशनो अनाव. माटे एवा आचरणे करीने जे युक्त होय, ते “ सवृत्तयुक्त" कहेवाय; एवा सवृत्तवाला जे कोश् देवे शास्त्र बनाव्युं होय, ते “महादेव" कहेवाय. हवे ते शास्त्र पण केवु होवु जोश्य ? ते कहे जे “शिववर्त्म" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ श्रीहरिजनसूरिकृतान्यष्टकानि । केतां जेमां मोदनो मार्ग जणावेलो ने एवं, अथवा मोदनां मार्गरूप, तथा “ परंज्योतिः" केतां महामोहरूपी अंधकारना समूहने दूर करनार एवा असाधारण प्रदीप समान शास्त्र जेणे रचेखें , ते “महादेव" कहेवाय; वली ते शास्त्र केतुं तो के, " त्रिकोटीदोषवर्जितं" केतां शास्त्रोनां आदि, मध्य अने अंतना नागमा आवता जे पूर्वापर विरोध आदिक दोषो, तेणे करीने रहित एवं; अथवा शास्त्ररूपी सोनानी कष, वेद अने तापरूप जे परीक्षा, तेमां आवता दोषोयें करीने रहित, एवं शास्त्र जेणे रचेलु , ते " महादेव" कहेवाय. अहीं " सवृत्ते करीने युक्त ” एवं जे महादेवनुं विशेषण आप्यु , तेथी कामीपणां आदिक अनुचित अनुष्ठानवाला देवोना महादेवपणानो निषेध कह्यो, केम के, रागादिकथी उत्पन्न श्राय,एवी असमंजस चेष्टा जेनी होय,तेउने पण महादेवपणामां जो लेखीए, तो तेवु महादेवपणुं तो सर्व प्राणीमां प्राप्त अश् शके !!! कडं ने के, कामानुषक्तस्य रिपुप्रहारिणः, प्रपंचिनोऽनुग्रहशापकारिणः ॥ सामान्यपुंवर्गसमानधर्मिणो, . महत्वक्लप्तौ सकलस्य तद्भवेत् ॥ १॥ अर्थ-काममां आसक्त, शत्रुने मारनार, प्रपंच करनार, प्रीति राखनार, तथा श्राप आपनार, एवा सामान्य माणस सरखा गुगोवालानी पण जो महादेवपणामां कल्पना करीएं, तो तेवं महादेवपणुं तो सघलाने प्राप्त थाय. __ वली “ शास्त्रमुदाहृतं” ( शास्त्रकहेढुंचे) एम कहीने, जेठ शास्त्रने मनुष्यनी कृतिविनानुं माने , तेजेनां मतनुं खंडन कर्यु बे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाष्टक. २ शास्त्रने मनुष्यनी कृतिविना थएलुं जे माने बे, तेज कहे बेके, तस्मिन् ध्यानसमापन्ने, चिंतारत्नवदास्थिते ॥ निःसरंति यथाकामं, कुड्यादिभ्योऽपि देशना: १ अर्थ - ते ध्यान प्राप्त ये बते, तथा तेमां चिंतामणि - लनी पेठे आस्था राखवाथी, इवा प्रमाणे जींत यादिकमांथी प उपदेशो निकले a. एवी रीतना उपदेशने माननाराउंना मतनुं खंडन एवी रीते थाय वे के, एवी रीते जींत यादिकमांथी निकलेलो उपदेश स पुरुषे कहेलो मनाय नहीं; अने तेथी तेमां ( लोकोनो ) विश्वास पण न थाय, केम के, ते उपदेश को बनाव्यो ? ( ते नक्की अइ शकतुं नथी.) जोके ते अन्य दर्शनीनां देवने चिंत्य पुष्यनां समूहें करीने घणां अतिशयो वे, तो पण (मुखथी) बोलवापणामां कई विरोध तो नथी, तो बोलवाणानो व्याघात करनारी एवी जीत - दिकनी देशना कल्पवानी शी जरुर हती ? माटे जे शास्त्र प्राप्त पुरुषे कहेतुं होय, तेज शास्त्र मोहना मार्गरुप बे; ने एम कहेवाथी जे शास्त्रानो करनार, कोइ पुरुष न होय, ते शास्त्र देवाय केम के एवां अपौरुषेय शास्त्रो बनवां पण तेनो असंव नीचे प्रमाणे जाणवो. जे जे वचननी रचना बे, ते ते “कुमारसंभव” यदिकनी पेठे (कालिदासादि) पुरुषनी बनावेली देखाय बे; एवी रीते वेद पण वचनोनी रचनावालो ने, माटे तेने पण कोइ पुरुषेज बनावेलो कही शकाय अने तेथी तालु ादिकना व्यापारवाला पुरुषना वचन रूप एवा वेदने “ अपौरुषेय " एटले पुरुषे नहीं बनावेला कहेवा, ए युक्त बे. कधुं बे के, Jain Educationa International प्रमाण कसंजवित बे; For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३० श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । ताल्वादिजन्मा ननु वर्णवर्गो, वर्णात्मको वेद इति स्फुटं च ॥ पुंसश्च ताल्वादिरतः कथं स्या, पौरुषेयोऽयमिति प्रतीतिः ॥ १ ॥ अर्थ - रोनो समूह तालु आदिक स्थानोथी उत्पन्न याय बे, ने वेद तो अक्षरमय बे, ए वात प्रसिद्धज बे; अने ते तालु यदि स्थानो तो पुरुषने होय बे, माटे या वेद "अपौरुषेय" बे, एवी खातरी शी रीते थाय ? " शास्त्रं शिववर्त्म ” ( ते शास्त्र मोक्षमार्गरूप वे, ) एम कह्याथी जे शास्त्र प्रमाणरुप माने बे, तेमनां मतनुं खंडन कर्यु. ते ( शास्त्र प्रमाण माननारा ) एम माने बे के, प्रत्यक्षप्रमाथी गोचर एवार्थोमां शास्त्रना वचनोनो व्यभिचार आवे बे, माटे शास्त्र मारे प्रमाण नथी. पण तेम मानवुं युक्त नथी; केम के, निश्चित एवा प्राप्त पुरुषे रचेलांज वचनने प्रमाणप प्राप्त थाय बे; अने तेथी बीजाउंना ( आप्त शिवायना ) वचननुं व्यभिचारपणं जोड़ने, सघलाना वचनोनुं प्रमाणप स्थाप युक्त नथी; ने जो एम नहीं मानीए तो कांऊवानां पाणी प्रत्यक्ष देखाय बे, बतां सत्य बे, अने तेथी " सघला प्रत्यक्ष देखता पदार्थो पण असत्य वे " एम मानवाजेवुं श्रायः छाने एवी रीते प्रत्यक्ष प्रमाणने ज्यारे अप्रमाणरुप मान्युं, त्यारे - नुमान प्रमाण पण प्रमाणरूप नहीं थाय, केम के, अनुमान प्रमाथी प्रत्यक्ष प्रमाण पेहेलुं बे; अने वली तेथी ፡ प्रत्यक्ष अनुमान एवां बे प्रमाणो बे " एवी रीतनुं महान पुरुषो - नुं वचन पण नाशने पामे बे; वली आगमवादीजए कां वे के, इंजिने गोचर नहीं एवी स्वर्ग आदिक गतिमां शास्त्रज प्रमाणरुप बे, केम के बीज प्रमाणना विषयरूप ते नथी; अने वली साधनना जाणकारो आगममां कहेला अर्थनेज पुष्टी आपे बे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाष्टक. ३१ हवे " त्रिकोटीदोषवर्जितं " एटले जे शास्त्र परीक्षामा समर्थ नथी; अर्थात् परस्पर विरोध आवे एवा लखाणवालुं बे, ते शास्त्र मोक्षमार्गरुप नथी, केम के, परीक्षामां टकी नहीं शके, एवं शास्त्र पण केटलाकोए (अन्यदर्शनीउए ) अंगीकार करेढुंजे ते कहे . पुराणं मानवो धर्मः, सांगो वेदश्चिकित्सितं ॥ __ आज्ञासिद्धानि चत्वारि, न हंतव्यानि हेतुभिः १ अर्थ-पुराण, मानवधर्मशास्त्र ( मनुस्मृति) अंगोपांग सहित वेद, अने चिकित्साशास्त्र (वैद्यकशास्त्र) ए चारे आझाकीज सिद्ध अएलां शास्त्रो , माटे तेउमां कदाच पूर्वापर विरोध - वे, तो पण ते ने हेतुथी दूषित करवां नहीं; आने माटे बीजा श्राचार्यों कहे ने के, ते अन्यदर्शनीना आ लखाणमां आपणे तेने पकडवा जेवू ,माटे ते तेथी निवारी शकाय तेम नथी. हवे जो सोनुं दोष रहित होय, तो तेनी परीक्षाथी शामाटे डरवू जोशए ? अने तेने माटे श्रीवीरप्रनु पण कहे ने के, निकषच्छेदतापैश्च, सुवर्णमिव पंडितैः ॥ परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्य, मद्रचो नतु गौरवात्॥१॥ अर्थ- पंडितो ( सोनाना परीक्षको ) जेम कष, बेद, अने तापथी परीक्षा करीने सोनाने ग्रहण करे बे, तेम हे साधु ! तमारे पण तेवीज रीतथी परीक्षा करीने मारं वचन ग्रहण करईं; पण फक्त मारां मानदाखल तमारे ग्रहण करवू नहीं. __ हवे शास्त्रनी कष, बेद, अने तापनी परीक्षार्नु स्वरूप नीचे प्रमाणे जाणवू. विधिमार्ग तथा प्रतिषेध मार्ग ते कष जाणवो; अर्थात् प्राणातिपातादिक पापस्थानोनो जे प्रतिषेध, ते “प्रतिषेधमार्ग” अने झान, अध्ययन आदिक जे विधि ते "विधिमार्ग;" अने तेउने धर्मकष जाणवो. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । विधिमार्ग अने प्रतिषेध मार्गने जेम बाधा न पहोंचे, तेवी रीते सम्यक्प्रकारे तेउँने पालवाना उपायनूत एवी क्रियानो जे उपदेश, तेनुं नाम “बेद" जाणवू. कडं ने के, जे बाह्य अनुष्ठानें करीने तप अने नियमोनो नंग श्रतो नथी, अने शुखता थाय ने, तेने “धर्मद” जाणवो. ____बंध अने मोक्षादिकना सनावना कारणरुप जे आत्मादिक नाव, तेने कहेवारुप “ताप” जाणवो. कडं वे के, जीवनां बंध आदिक लावधी शुद्ध श्रश्ने जे आत्मनाव मेलववो, तेने "धर्मताप” कहीएं. एवी रीते कष आदिक शुचिर्नु स्वरूप जाणवू. हवे जे शास्त्रमा मन, वचन, अने कायाश्री, जीवितपर्यंत, सूक्ष्म अने बादर जीवोनी हिंसानो, करवा, कराववा, अने अनुमोदवायें करीने, अर्थ अनर्थना आश्रयथी निषेध होय, तेने कषशुद्ध शास्त्र कहीएं. कर्वा ने के, सावद्य क्रियानी अंदर जे सूझमात्र पण प्रतिषेध ज्यां कह्यो , तथा जे राग आदिकनो नाश करे , एवं जेमां होय, तेने “कषशुद्ध शास्त्र" जाणवू, अने जे शास्त्रमा एवी रीतनो विधि के प्रतिषेध न होय, ते शास्त्र कपशुधन कहेवाय. जेमके, प्राणी, प्राणी संबंधि ज्ञान, घात करनारुं चित्त, ते संबंधि चेष्टा, अने प्राणीनी हिंसा, एवी रीते पांच प्रकारे हिंसा थाय ने तथा हाडकां विनानां जंतुर्जनां गाडाने गाडा नरीने जे हिंसा करवी, ते मात्र एकज हिंसा में एवी रीतनो जे शास्त्रमा विसंवाद आवे, ते शास्त्रने असत्य जाणवू; वली आ पापनो प्रतिषेध कंई आत्यंतिक नथी. तथा, अष्टवांतिकं बीजं, कवर्गस्य च पूर्वकम् ॥ वह्निनोपरिसंयुक्तं, गगनेन विभूषितम् ॥ १॥ एतदेव परं तत्वं, योऽभिजानाति तत्वतः॥ संसारबंधनं छित्वा, सगच्छेत्परमां गतिम् ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाष्टक. अर्थ-श्राप वर्गने अंते रहेवा, तथा कवर्गनी पेहेलांना, उपर रेफवासा, तथा अनुस्वारथी विजूषित थएखा, एवा "अर्ह" नामना उत्कृष्ट बीजतत्वने, जे खरी रीते जाणे , ते माणस संसारनां बंधननो बेद करीने परम गतिमां (मोदमा) जाय . इत्यादि स्वरूपवालो जे ध्यानविधि, ते नरादिकनां विकुट्टनने सहन करनारो केमके, घणां कालसुधि ते ध्यानने धरतां थकां पण उत्तर कालमां ते रागादिको एमना एमज रहे ; पण " रागादिको आ लोक अने परलोकमां पण दुःखदायक ," एवं चिंतवनारने उत्तर कालमां ते सूक्ष्म थया थका सर्वथा प्रकारे पण नाश पामे माटे राग आदिकोने दूर करवानुं जे ध्यान, ते श्रेष्ट विधि के अने तेथीज उत्तम (योगी) बीजां ध्यानोने तजीने, ते प्रकारनी (रागादिकनो नाशकरनारी) ध्यानविधि आचरे . कडं बे के, सघली क्रियाउँमा जेटला जेटला राग घेष वर्ते , तेटला तेटला आ लोक अने परलोकमां श्रहित करनारा . __ हवे जेमां उपर कहेला विधि अने प्रतिषेधनां उपायनूत एवी समिति अने गुप्ति संबंधि क्रिया देखाडाय , ते शास्त्रने "जेद शुध” शास्त्र जाणवू, कह्यु ने के, ___ "श्रा अमुक क्रियाथी ते समिति अने गुप्तिने बाध आवतो नथी, अने ते नियमपूर्वक पाली शकाय डे" एवी रीतनां वचनथी जे शास्त्र शुद्ध होय, तेने "बेदशुद्ध" शास्त्र जाणवू. अने जे शास्त्रमा दिगंबरीउनां शास्त्रनी पेठे प्राणीउनी रक्षामां, शुज ध्यान करवामां, तथा शुद्ध पिंड ग्रहण करवामां साधनरूप एवां वस्त्र अने पात्र आदिक उपकरणो (राखवानो) प्रतिषेध करेलो होय, ते शास्त्रने अशुद्ध शास्त्र जाणवू; अथवा देवनां श्राराधनमाटे साधू ने गायन करवा आदिकनो जे शास्त्रमा उपदेश करेलो होय, तेने पण अशुद्ध शास्त्र जाणवू. कह्यु के, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । जह देवाणं संगीय, यायिकजंमि उज्जमो॥ जइणो कंदप्पाइ, करणं असजवयणाभिहाणंच ॥१॥ अर्थ-साधुनो देवो प्रते गायन आदिक कार्योमां जे उद्यम श्रवो, ते कामविकार आदिकने करनारो, तथा असत्य वचनने उत्पन्न करनारो . हवे तापशुछ शास्त्रनुं स्वरूप नीचे प्रमाणे जाणवू. "आत्मा परिणामी, अने ते विचित्र कर्मोथी बंधाएलो ने, तथा ते कर्मोना वियोगथी ते मुक्तरूप थाय , अने हिंसा तथा अहिंसादिक तेऊनां (कर्मोनां) हेतुरूप ने" इत्यादि नाव जेमां सारी रीते देखाडेलो, ते शास्त्रने "तापशुध" शास्त्र जाणवू. एवी रीते आत्मादिक वस्तु प्रगट श्रये ते उपर कहेलु विधि प्रतिषेधादिक संघलु उत्पन्न थाय , पण बीजी रीते श्रतुं नथी; अने तेथी उलटी रीते वस्तुऊनां स्वरूपने प्रगट करनाहं शास्त्र, तापपरीक्षामां अशुद्ध गणाय बे. माटे एवी रीते उपर कदेला गुणोवाटुं शास्त्र जेणे कहेढुंचे, ते “महादेव" कहेवाय . ___ हवे अहीं वादी शंका करे के, जे वीतराग बे, तेनुं स्तुति आदिकथी तो आराधन थर शके नहीं, केम के तेथी तो सरागपणानो प्रसंग आवे; तेम निंदादिकधी पण तेनुं आराधन अश् शके नहीं, केम के तेथी स्तवनादिकनुं फोकटपणुं थाय; तेम उपेक्षाथी आराधन करवामां पण तेज दोष आवे ने. हवे ते वादीने उत्तर आपे ने के, यस्य चाराधनोपायः, सदाझान्यास एव हि ॥ यथाशक्तिविधानेन, नियमात्स फलप्रदः ॥५॥ अर्थ-वली जे आ माहादेवनां आराधननो उपाय, हमेशा तेनी आझानो अन्यास करवो तेज ने अने ते आज्ञानो अ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाष्टक. ३५ यास यथाशक्ति विधिपूर्वक करवाथी निश्चयें करीने फलदायक थाय बे. टी कानो जावार्थ - केवलमात्र जेणे शास्त्र कहेलुं तेज "महादेव" कहेवाय, एटलुंज नहीं, पण जे देवविशेषनी आराधनानो - पाय तेनी ज्ञानो अन्यास बे, ते "महादेव" कहेवाय; आराधन कर एटले, ते देवनुं प्रसाधन करवु; ते शा माटे के, तेनुं फल मेलववा माटे; पण रागनोज प्रसंग लावीने कंई आराधन करवानुं नथी. कांबे के, अचिंत्यचिंतामणि सरखा महा जाग्यवंत एवा तीर्थकर प्रते जे वत्सलस्वभाव राखवो, छाने तेनुं जे स्तवन कर, तेथी व पमाय बे. एव रीतनी आराधनानां उपायमां दुःखमादि कालमां पण यास करवो. छाने एवं कहेवाथी "उत्तम कालमांज श्राज्ञा पासवानुं शक्य बे; माटे ते कालमांज तेनी आज्ञानो अभ्यास, अने तेनां श्राराधननो उपाय करवो; ने दुःखम कालमां तो कानागमिक ( गम रहित ) वृत्ति बे, माटे ते कालमां तो ते आज्ञानो अन्यास थवो अशक्य बे,” एवी जेनी मति थाय, dai Haat निषेध कर्यो. मर्यादा वा विधियें करीने जेनाथी अर्थो जाय बे, तेने “आशा” अर्थात् " श्रागम" कहीयें; अने तेने ग्रहण करवानी पारतंत्र्य लक्ष्णवाली जे भावना तेने "अन्यास" कहीयें; पण फक्त तेनी तिथीज कं तेनी ज्ञानो अभ्यास थइ जतो नथी; अर्थात् तेथी कं तेनी श्रज्ञासहित वृत्ति यती नथी; वली पूजा दिक पण व्यस्तवरूप होवाथी ते तेनी ज्ञानो अन्यासज बे. श्रीं वादी शंका करे के, उपर कहेली आज्ञानो अभ्यास: प्रति पुष्कर दोवाथी, काल छाने संघयणनां (शरीर संबंधीनां ) दोषवालाने तो ते ज्ञानुं श्राराधन करवामां मुश्केली थशे. !!! तेने माटे वादीने हवे कहे बे के, ते ज्ञानो अन्यास यथा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । शक्ति करवो, पण शक्तिने उलंगीने करवो नहीं; अने तेमां शतिने गोपववी पण नहीं; छाने एवी रीते करवाथी वीर्याचार पण पायो कड़ेवाय. कां ने के, अणिगूहियबल विरिओ, परिक्क महजोजहुत्तमाउत्तो ॥ जुं जइय जहाथामं, नायव्वो विरयायारो. ॥ १ ॥ - बल ने वीर्यने नहीं गोपवीने जे माणस यथोक्त रीते सावधान थयो थको, उद्यम करे छे, छाने यथाशक्ति प्रमाणे जोडे बे, तेने "वीर्याचार" जाणवो. वली प्रव्य, क्षेत्र, काल ने जावनां अनुवर्तनवाला श्रागमिक न्यायें करीने आज्ञानो अभ्यास करवो; कां ने के, प्रवचमां तो सर्वनी अनुज्ञातेम सर्वनो निषेध पण नथी; माटे वाणीयानी पेठे यावक जावकनो हिसाब करीने लान लेवो. वादी शंका करे के, श्रज्ञाच्यासथी श्राराधन करेला श्र "महादेव" ज्यारे फलनां देवावाला थाय छे, त्यारे तेनी - राधना न करवाथी तो ते फलदायक थता नथी ने ? छाने एवी रीते तो ते विषमवृत्तिवाला थाय. तेने माटे तेने कड़े ने के, जेनी श्राज्ञानो अन्यास अवश्यें करीने वांबित फल देनारो थाय, ते "महादेव" कहेवाय; श्रने तेथी ते महादेवनुं कई फलदायकपणुं नथी, पण तेनी श्रज्ञानां श्रन्यासनुंज फलदायकपणुं होवाथी, तेने ( महादेवने ) विष - मवृत्तिशी रीते लागु पडी शके ? हवे तेज बाबतने दृष्टांते करीने पुष्ट करता थका कहे बे. सुवैद्यवचनाद्यद्, व्याधेर्भवति संक्षयः ॥ तदेव हि तद्वाक्याद्, ध्रुवः संसारसंक्षयः ॥७॥ अर्थ-जेम उत्तम वैद्यनां वचनथी (अर्थात् तेना कहेवा प्रमाणे करेला औषधोथी) जेम व्याधिनो नाश थाय बे, तेमज ते प्रस्तुत महादेवनी वाणीथी निश्चल एवो संसारनो क्षय थाय बे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाष्टक. टीकानो नावार्थ-उत्तम वैद्यनां उपदेशश्री जेम कुष्टादिक रोगनो सर्वथा प्रकारे नाश थाय ने, तेवीज रीते ते प्रस्तुत महादेवनां उपदेशथी अवश्य करीने संसारनो क्षय थाय ने अहीं " संसार" एवा शब्दें करीने एक नवश्री बीजा नवमां संचरवापणुं कह्यु, अने तेथी परलोकनुं बतापणुं देखाड्यु; अने तेने माटे नीचे प्रमाणे प्रमाण जाणवू... कार्य कार्यातराजातं, कार्यत्वादन्यकार्यवत् ॥ जन्मेदमपि कार्यत्वं, न व्यतिक्रम्य वर्तते ॥ १॥ अर्थ-कार्य होवाथी अन्य कार्यनी पेठे बीजां कार्यश्री कार्य थाय ने, अने ( तेज न्यायें करीने) आ जन्म पण कार्यपणाने नसंघीने वर्ततो नथी. वली जन्म, ज्ञाननां संतानविशेषरूप ने, अने तेथी तेनां जपादान कारणजूत तप एवो जन्मांतर अनुमित थाय ने पण ते जन्मनां उपादान कारणमां पिता आदिकने नहीं जाणवा, ___ हवे प्रकरणनां अर्थने उपसंहरता थका, जेना गुणोनुं विवेघन करेलु डे, एवा ते प्रस्तुत महादेवने नमस्कार करवामाटे कहे . एवंनूताय शांताय, कृतकृत्याय धीमते ॥ महादेवाय सततं, सम्यगजक्त्या नमोनमः॥७॥ अर्थ-एवी रीतनां गुणवाला, शांत, करेलां ने कार्यो जेमणे एवा, तथा बुद्धिवान एवा ते महादेवप्रते हमेशां उत्तम नक्तिश्री नमस्कार था. ___टीकानो लावार्थ-एवी रीतनी उपर वर्णवेली गुणसंपदाने प्राप्त अएला, पण अन्य दर्शनीउए मानेला एवा नहीं; तथा शांत एटले राग घेष विनाना, (श्रा विशेषण अनुवादरूप में, माटे तेमां पुनरुक्ति दोष जाणवो नहीं.) तश्रा केवलज्ञानरूप ने बुधि जेने एवा, अथवा (बीजा आचार्योना मत प्रमाणे) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । " धीमते " एटले सत्वयुक्त एवा, उपर वर्णवेला महादेवप्रते हमेशां उत्तम क्तिएं करीने नमस्कार था; अहीं " नमोनमः " शब्द कहीने जे बे वार नमस्कार कर्यो, ते जक्तिथी यता संभ्रमने सूचवे बे. एव ते पेलाष्टकनुं विवरण समाप्त थयुं. द्वितीयाष्टकं प्रारज्यते उपर कहेला क्रमश्री निश्चित थएला महादेवनी पूजा श्रादिक करवी जोइएं, नेते पूजा स्नानपूर्वक थाय बे, माटे ते स्नानना निरूपणमाटे हवे कडे बे. " द्रव्यतो जावतश्चैव द्विधा स्नानमुदाहृतम् ॥ बाह्यमाध्यात्मिकं चेति, तदन्यैः परिकीर्त्यते ॥ १ ॥ अर्थ-व्यथी ने जावथी, एम बे प्रकारनुं स्नान कहेलुं बे ने तेज स्नान बीजाउंथी " बाह्य " अने " आध्यात्मिक" एवा नामोनुं कहेवाय बे. टीकानो नावार्थ-ते ते पर्यायो प्रते जे प्राप्त थाय, तेने "व्यस्नान" कहीएं; तेथी एटले तेना कारणभूत एवा जलथी, मेलना नाशश्री शरीरने शुद्ध करवारूप जे स्नान करवुं, तेने "व्यस्नान" कहीएं; अथवा अपरमार्थथी जे स्नान करवुं, ते पण "व्यस्नान" कदेवाय, केम के, 5व्य शब्दनो अर्थ प्रधानपशुं पण थाय बे; अथवा अव्यथी एटले जावस्त्राननां कारणपणाथी, केम के, 5व्यनो " कारण " अर्थ पण थाय बे. तथा " जावतः " केतां परिणामथी स्नान करवुं ते; तेमां शुजध्यान कारणभूत बे; तथा तेथी उपयोगनावरूप आत्मा शुद्ध करवानो बे; श्रथवा जावने श्राश्रयीने जो अर्थ करीएं, तो उदय थता जावोनां कारणजूत जे कार्यो, ते रूपी मेलने दूर क रनार जे स्नान, तेने पण " जावस्नान " कहीएं; श्रथवा जावथी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयाष्टक. ३८ एटले परमार्थथी जे स्नान करवुं, तेने पण " जावस्नान" कहीएं. एवी रीते व्यथी ने जावथी, एम बे जेदे स्नान जाणवुं; नामादिकनां नेदोथी चार प्रकारनुं पण थाय; पण अहीं केवल ते चार प्रकारपणुं स्नाननुं श्राश्रित कर्यु नथी; केम के नाम अने स्थापनानुं तो फक्त प्ररूपणामात्रमां उपयोगीपणुं बे; छाने तेथी जिननां नाम ने स्थापना, जेम प्रमोदनां हेतुपणाथी, तथा पूजागोचरपणाथी उपयोगी बे, तेम स्नानमां नाम ने स्थापनानुं उपयोगीपणुं नथी. वली मूल श्लोकमां जे " एवकार " मुकेलो बे, तेने “ विधानी ” साथे जोडवाथी उपर कहेलुं बेज प्रकारनुं स्नान जावं; पण अन्य दर्शनी जे सात प्रकारनं स्नान कहे बे, ते जाण नहीं. ते अन्य दर्शनी नीचे प्रमाणे सात प्रकारनुं स्नान कहे . सप्त स्नानानि प्रोक्तानि, स्वयमेव स्वयंभुवा ॥ द्रव्यभावविशुद्ध्यर्थ, मृषीणां ब्रह्मचारिणाम् ॥ १ ॥ आग्नेयं वारुणं ब्राह्म्यं, वायव्यं दिव्यमेव च ॥ पार्थिवं मानसं चैव, स्नानं सप्तविधं स्मृतम् ॥ २ ॥ आग्नेयं भस्मना स्नान, मवगाह्यं तु वारुणम् ॥ आपोतृष्णामयं ब्राह्म्यं, वायव्यं तु गवां रजः ॥ ३ ॥ सूर्यदृष्टं तु यद्दष्टं, तद्दिव्यमृषयो विदुः ॥ पार्थिवं तु मृदा स्नानं मनः शुद्धिस्तु मानसम् ॥ ४ ॥ अर्थ- ब्रह्मचारी शषिनी प्रव्यशुद्धि छाने जावशुद्धिमाटे ब्रझाए पोतेज ( नीचे प्रमाणे ) सात प्रकारना स्नानो कहेलां बे; आग्नेय, वारुण, ब्राह्म्य, वायव्य, दिव्य, पार्थिव, छाने मानस. एव ते सात प्रकारनां स्नानो जाणवां; तेमां जे नइमथी स्नान करवुं, ते " आग्नेय " स्नान कहेवाय, पाणीथी नाहावं ते " वारुण स्नान कहेवाय, तृष्णा न राखवी, ते " ब्राह्म्य स्नान कवाय, धूलीथी स्नान करवुं, ते " वायव्य " स्नान कहेवाय, "" "" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि। सूर्यनी जे आतापना खवी, तेने शषिए "दिव्य" स्नान जा. गेलुं , माटीथी स्नान करवं, ते “ पार्थिव" स्नान कहेवाय, तथा मननी शुधिरूप ते “मानस” स्नान जाणवू. एवी रीते अन्य दर्शनी सात प्रकारनां जे स्नानो माने जे, ते निरर्थक; केम के, जे स्नान बाह्य मेखने प्रक्षालन करवामां समर्थ , ते तो व्यस्वानज ने, अने जे अंतरंग मेलने नाश करवामां समर्थ जे, ते नावस्वान के अने ते शिवाय बीजी रीते करेलुं स्नान तो श्रस्नानजकेम के, धूलि अथवा मंत्रथी कंई मेल दूर थतो नथी; माटे प्रव्यथी अने जावथी, एम बे प्रकारचेंज स्नान कहे, युक्त जे. अने तेथीज तत्वना जाणनाराए ते बे प्रकारचें स्नान कहेलु ने अथवा प्रधान अने अप्रधानना जेदथी, अव्यथी वे प्रकारनु, अने लावथी पण बे प्रकारनुं जाणवू. अने ते श्रागल देखाडशे. हवे श्रा मतमा अन्य दर्शनीठनी पण अविप्रतिप्रति ( नहीं जुदापर्यु) देखाडता थका कहे जे के, ते अन्यदर्शनी पण तेज प्रव्य तथा जावस्नानने “बाह्य" केतां शरीरसंबंधि, तथा "आध्यात्मिक" केतां मनसंबंधि स्नान कहे . हवे अव्यस्नाननां प्रतिपादनमाटे कहे . जलेन देहदेशस्य, क्षणं यनुझिकारणम् ॥ प्रयोऽन्यानुपरोधेन,अव्यस्नानं तदुच्यते॥२॥ अर्थ-पाणी करीने देहना लागर्नु, बीजा मेलने अटकाव्या विनांदणवार सुधि जे शुधपणुंकर, ते “अव्यस्नान" कहेवाय ने. टीकानो नावार्थ-पाणीथी "व्यस्नान" थाय ने, पण जस्म आदिकधी ते स्नान पण श्रतुं नथी; कारण के, ते जस्म श्रादिको मेलने दूर करवाने समर्थ नथी; वली गंध अने लेपनो नाश थवाथी जे पवित्रता थाय, तेने स्नान कहीयें; एवी रीते जलथी स्नान करीने शरीरना नागोने शुद्ध करवा, अने तेम कहेवाश्री Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ प्तिीयाष्टक. जे "सचेलस्नानें करीने देवार्चन करवु" एम माने , तेना मतYखंडनकयु: केमके पाणीथीनींजाएखां वस्त्रोवालानां स्नानपणानी अप्रतीति ने. वली श्राही "देश" शब्दथी जे एम माने के, “बुद्धिवानोए माटी करीने लींगनी एकवार, गुदास्थाननी त्राणवार, एकता हाथनी दशवार, अने बन्ने हाथोनी सातवार शुद्धि करवी; वली तेवा प्रकारनी शुद्धि ग्रहस्थोए बेवडी, ब्रह्मचारीए त्रेवडी, तथा वानप्रस्थाश्रममा रहेला यतिउए चोवडी करवी;" एवं माननाराऊनी हांसी थक्ष केम के, एवी रीते शुद्धता करवामां यत्न करनारा पण लिंग अने गुदानां अंदरनां नागने शुद्ध करवाने तो असमर्थज . अने वली तेथी फक्त चांबडीनीज शुद्धि थाय बे, पण तेवीज रीते ते कान, नाक श्रादिकनी शुद्धि तो करता नथी; वली ते कर्ण नाशिकादिको पण अशुद्ध नथी थतां, तेम नथी. वली ते शुद्धि पण प्रायें करीने क्षणमात्रज रहे , पण लांबो वखत रहेती नश्री; "प्रायें करीने" कहेवानी मतलब ए के, रोगी माणसने तो तेवी रीतनी शुद्धि कणमात्र पण रहेती नथी. तेवी शुद्धि दणमात्रज केम रहे बे ? तेने माटे कहे जे के, एक मेखने दूर करवाथी बीजा मेलनो उपरोध कंई शकतो नथी; केम के शरीरनो तो मलाश्रयनो स्वनावज ने, माटे बीजा मेखने रोकी शकातो नथी. माटे एवीरीतनुं जलादिकना आश्रयवालुं स्नान, ते “व्यस्नान" कहेवाय; अने तेथी स्नानना जाणनाराए तेने “अन्य स्वान" कहेडं जे. वली बीजा आचार्यो “प्रायोऽन्यानुपरोधेन" ए वाक्यनो अर्थ एवी रीते करे के, प्रायें करीने ते स्नानमा जलना जंतु शिवाय बीजा प्राणीउने उपरोध थतो नथी, तेथी तेने "अव्यस्लान" कहीये. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ श्रीहरिलजसूरिकृतान्यष्टकानि । हवे तेज स्नान- कर्ताधाराए करीने प्रधान श्रप्रधानपणुं कहे जे. कृत्वेदं विधानेन, देवतातिथिपूजनम् ॥ करोति मलिनारंजी, तस्यैतदपिशोजनम् ॥३॥ अर्थ-एवी रीते विधिपूर्वक स्नान करीने, सावध व्यापारवालो ग्रहस्थ देव तथा साधुनुं (अतिथिy) पूजन करे, केम के, तेने तम करवू पण शोजनिक बे. - टीकानो लावार्थ-उपर कहेढुं व्यस्नान, तेना अधिकारी धार्मिक माणसे पोताने उचित एवी नूमिपोजवारूप तथा पाणी गाखवारूप जतना पूर्वक स्नानविधियें करीने उपर वर्णवेखा माहादेव तथा अतिथि- पूजन करवं; हमेशां श्रप्रतिबद्ध विहारपणायें करीने जे गमन करे, ते “अतिथि" कहेवाय; अथवा तिथिरूप लक्षणवाला उत्सवादिक जेने नथी, ते पण “अतिथि" कहेवाय; अर्थात् उत्तम मार्गमां रक्त एवो साधु जाणवो. कडं ने के, तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे, त्यक्तायेन महात्मना॥ अतिथिं तं विजानीया, जेषमभ्यागतं विदुः॥१॥ अर्थ-जे महात्माए सर्वे तिथि, पर्व, तथा उत्सवो तजेला . तेने “अतिथि” जाणवो, अने बाकीनाउने तो श्रान्यागत (परोणा ) जाणेला . एवा ते देव तथा अतिथिर्नु पूजन एटले उचित सत्कार करे जे हवे तेवी रीतनुं व्यस्नान करीने देव, तथा अतिथिर्नु पूजन कोण करे ? ते कहे . पाप सहित ने व्यापार जेनो, अर्थात् सावध योगथी निवृत्त नहीं थएलो एवो ग्रहस्थी ते करे. श्रा विशेषण कुतीर्थिउने शिखामण देवानां अभिप्रायवालुं . ते एवी रीते के, हे कुतीथिर्ड! ज्यारे तमो मलीनारंजी नगे, त्यारे तमारे तो था “अव्यस्नान" करवु उचित ने; पण बीजी रीते स्नान करवं उचित नथी. वली श्रा व्यस्नान शुचनावना हेतुरूप , माटे तेनुं प्रशं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयाष्टक. ४३ सनी कप बे; अने निर्मलारं निटने तो ते शुद्धभाव हमेशांज होय बे, तेथे तेने प्रव्यस्नाननी शी जरूर बे ? माटे एवी रीते देव तथा तिथिनुं पूजन करनार एवा मलीनारंजी ग्रहस्थाने तो ते " द्रव्य स्नान" पण शोजानिक बे; पण जेनुं श्रगल स्वरूप कहेवामां श्रवशे, एवं " जावस्नान " करवुं, तेने उचित नथी; वली ते "प्रव्यस्नान” जोके, सावद्य तथा प्रायें मद ने दर्पादिकनां हेतुरूप बे, तो पण शुभभावनां हेतुरूप होवाथी ते शोजनिक पण बे. हवे " ते व्यस्नान करीने मलीनारंजी ने देव तथा साधुनुं पूजन करवुं ते शोजनिक बे,” एम जे कयुं, तेने समर्थन करता थका कहे बे. जावशुद्धिनिमित्तवात्, तथानुभव सिद्धितः ॥ कथंचिद्दोषजावेऽपि तदन्यगुणजावतः ॥ ४ ॥ अर्थ - ( ते द्रव्य स्नान ) जावशुचिना निमित्तपणाची अने तेवा प्रकारना अनुभवनी सिद्धिथी, जो के तेमां कंईक पण दोषनो सद्भाव बे तो पण, तेथी थता अन्य गुणना सानथी ते शोजनिक . टीका जावार्थ - ते “प्रव्यस्नान” अध्यवसायना कारणरूप होवाथी शोजनिक बे; केम के, ते व्यस्नाननुं जावशुद्धिनुं हेतुपणुं कई प्रसिद्ध नथी; कारण के, तेवी रीतनो जे अनुभव, तेथी ते सिद्ध थाय बे. वहीं वादी शंका करे के, जो के ते "व्यस्नान" जावशुचिना निमित्तरूपे बे, तो पण ( तेथी यती ) काय श्रादिक जीवोनी हिंसारूपी दोषपणाथी ते अशोजनिक बे. तेने माटे हवे ते वादीने कड़े ने के, कोइ पण प्रकारे कायश्रादिकनी विराधनारूप दोष जोके तेमां बे, अर्थात् जोके ते केवल निर्दोष नथी, तो पण तेथ। श्रतो जे सम्यग्दर्शनरूपी अन्य गुणनो लाज, ते थवाथी ते "व्यस्नान" शोजनिकज बे. कधुं वे के, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । पूया काय हो, पडिकुट्ठो साउ किंतु जिणपूया ॥ सम्मत्त सुद्धिउत्ति, भावणियाउ निरवज्जा ॥ १ ॥ अर्थ- पूजामां जोके, काय जीवोनी जिंसा तथा कुट्टन था - य े, तो पण जिनपूजा सम्यक्त्वशुद्धिनां हेतुरूप होवाथी, निरवद्य जाव ५४ ने पूजा माटे जे स्नान करवुं, ते पूजानुं एक अंग होवाथी शोजनिक बे; केम के, जे जे क्रिया जावशुद्धिनां निमित्तवाली बे, ते ते शोजनिकज बे. अहीं वादी शंका करे के, ते वात तो सिद्ध बे; तो तेने माटे कहे बे के, जेम सुख श्रादिकनुं ज्ञान अनुभवाय बे, तेम जे जेम अनुभवाय, तेम ते अंगीकार कर, अने तेवी रीते जावशुद्धिनां निमित्तपणाथी " प्रव्वस्तान " अनुजवाय बे, माटे ते व्यस्नान " जावशुदिना निमित्तरूप बे. “ वहीं वादी शंका करे के, ते प्रव्यस्नानमां ज्यारे कईकं पण दोषपणुं बे, त्यारे तेनुं शोजवापणुं शीरीते कड़ेवाय ? तेने माटे कहे ने के, जे कार्य बीजा उत्तम गुणोने उत्पन्न करवामां हेतुरूप बे, ते कदाच दोषवालुं होय तो पण ते शोजनिक बे; केम के, कुवानुं खोदवुं जो के, श्रम ने कादव श्रादिकना दोवालुं बे, तो पण ते तृषाना नाश आदिक उत्तम गुणोना हेतुरूप बे. तेवीज रीते उत्तम सम्यग्दर्शननी शुद्धि श्रादिक गुणोना हेतुरूप " प्रव्यस्नान" पण बे. वहीं वादी शंका करे के, एवीरीते जावशुद्धिना निमित्तरूप "प्रव्यस्नान” ज्यारे शोज निक बे, त्यारे ते मलीनारंजीज करे, एम शामाटे कां ? निर्मलारंजी ने पण ते तेवीज रीते शोजनिक होवु जोइएं, माटे ते स्नान ते पण शामाटे न करे ? तेने माटे हवे वादीने कड़े बे के, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयाष्टक. अधिकारी शाछास्त्रे, धर्मसाधनसंस्थितिः ॥ व्याधिप्रतिक्रियातुल्या, विज्ञेया गुणदोषयोः ॥ ५ ॥ - शास्त्रमां धर्मसाधननी स्थिति अधिकारीनी अपेक्षाये ( कहेली . ) अने ते गुण ने दोषना संबंधमां रोगना उपायनी क्रिया तुझ्य जावी. टीकानो जावार्थ-अधिकारी एटले योग्य अनुष्टानवालो, तेनी अपेक्षाथी; ( पण कंं मरजी मुजब नहीं; ) आप्तना - गममां धर्मसाधनरूप प्रव्यस्नान ने जावस्त्राननी स्थिति कहेली बे; हवे ते स्थिति केवी ? तो के, रोगना उपाय सरखी एवी ते स्थिति, अर्थी सद्गुरुना उपदेशथी जाणी लेवी ; हवे ते स्थिति का विषयमा जाणवी ? ते कहे बे के गुण छाने दोषने आश्रयीने जाणवी; अर्थात् रोगीनी अपेक्षाएं तेना रोगनो उपाय जे गुण दोषवालो बे, ते मलीनारंगी ने निर्मलारंजी ने ते " द्रव्यस्नान” तथा “जावस्नान" गुणदोषने करनारा बे; अर्थात् "व्यस्नान" मलीनारंजी नेज गुणकारक बे, पण निर्मलारंजी ने गुणकारक न; एवो जावा जाणवो; केम के, मलीनारंभीज देवने उद्देशीने स्नानादिकमां अधिकारी बे, पण निर्मलारंजी तेम नथी. कोकवादी वली एम कहे के, मलीनारंजी पण ते soreaner अधिकारी नथी; तो तेने वास्ते आज ग्रंथकार हवे कदेशे. धर्मार्थं यस्य वित्तेहा, तस्यानिहा गरीयसी ॥ प्रक्षालनाद्धि पंकस्य, दूरादस्पर्शनं वरम् ॥ अर्थ - धर्मने माटे जेनी धननी इच्छा बे, तेनी ( ते धर्ममाटे ) धननी नहीं इलाज ( इला नहीं करवी तेज ) श्रेष्ट ने; केम के, कादवने धोवा करतां तेने स्पर्श नहीं करवो तेज श्रेष्ठ बे. वहीं कोइ वादी शंका करे के, आथी करीने धर्मने माटे सावद्यप्रवृत्तिनो निषेध कर्यो; तथा “ शुद्धागमैर्यथाखानं " एवी Jain Educationa International v For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । रीतर्नु वाक्य आगल कहेशे, तेथी फूल तोडवानो अनाव कह्यो, अने देवसंबंधि बगीचो राखवानो पण अन्नाव कह्यो. तेने माटे तेने कहे ने के, तेम कहे, युक्त नथी; केम के, स्नान तो देवपूजा माटे विधेयपणाथी कहेढुंज . वली श्रहीं वादी शंका करे के, ते उपदेश तो प्रासंगिक स्नाननी अपेक्षावालो ने, पण देवने उद्देशीने नथी, तेने माटे तेने कहे जे के, तेम कहे, पण युक्त नथी; केम के, एम जो मानीएं, तो “ज्यारे कोश्क दिवसे स्नान करेलुं होय, त्यारेज देवपूजन करवू;" एवो उपदेश थ जाय; पण हमेशना कार्यतरीके न थाय; अने देवपूजन तो नित्य करवानुं जे. कडं जे के, "वंदति चेइआइंतिकालं पूहउणविहिणाउ"॥ अर्थ-त्रणेकाख पूजवायोग्य विधिएं करीने चैत्योने वंदन करे . वली धर्मने माटे सावध प्रवृत्तिनो जे निषेध कर्यो , ते केवल सर्वविरतीनी अपेक्षाएं के केम के, या श्लोक तेनां अधिकार माटे कहेलो ; श्रने गृहस्थीनी अपेक्षाएं तो सावध प्रवृत्तिनी अनुज्ञा श्रापेलीज के सिद्धांतमां पण कडुंबे के, व्यस्वान करवामां तो सावध प्रवृत्ति श्रावेज. वसी तेवीज रीते "शंकाश" श्रावकनी पेठे (जिनपूजा अथवा जिनमंदिरमाटे) व्यापार श्रादिक सावध प्रवृत्ति पण पुष्ट गणी नथी, केम के, तेमां धार्मिक कार्योर्नु पक्षपातपणुं होवाथी (वटे) पापोनो क्ष्य थ उत्तम गुणरूपी बीजनी प्राप्ति थाय बे. ते " शंकाश" श्रावक- दृष्टांत नीचे प्रमाणे जाणवू. - शंकाश नामना श्रावके प्रमादमा रही देवजव्यर्नु लक्षण कर्युः अने तेथी तेणे खालांतराय नामनुं निबिड कर्म बांध्यु. अने तेथी ते घणो काल संसारमा रखड्यो; पजी अनंते काले केटलेक कष्टे मनुष्य नव पामीने पण ते दरिडी थयो; पण एटलामां को महाज्ञानी जैन गुरु तेने मसी जवाथी तेनी पासेथी तेणे पोताना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयाष्टक. ४७ पूर्वजवनुं वृत्तांत सांजस्युं; पबी गुरुना उपदेशथी दुर्गति आपनारां कर्मोनो नाश करवामाटे तेणे एवी रीतनो अभिग्रह लीधो के, हवेथी जेटलुं प्रव्य डुं कमाउं, तेमांथी मारा खावापिवाना तथा पेहेरवा ढवाना खरचशिवाय बाकी जे कंई अव्य वधे, ते सघलुं हुं जिनमंदिर श्रादिकमां वापरीश; एवी रीते पोतानो - निग्रह पालीने तें ते मोक्षं गयो. वादी शंका करे के, तेना पोताना कर्मोंना जयनी उपपतिथी संकाशने तो ते तेम करवुं युक्त बे; पण तेवी रीते बीजाए करवुं युक्त नथी. त्यारे ते वादीने कड़े ने के, एम नहीं; केम के, सर्वथा प्रकाa रेज अशुभ स्वरूपवाला व्यापारने, उत्तम निर्जराना कारणपणानो योग ; अर्थात् जे व्यापारमां फक्त पापकार्यनीज धारणा होय, ते व्यापार कर्मनी निर्जरा करी शकतो नथी; पण धर्मबुद्विथी कराएलो ते व्यापार पण लाजकारकज बे. वली " शुद्धागमैर्यथालानं " इत्यादि जे श्रगल कहेवामां श्रवशे, तेनी मतलब कई एवी नथी के, पोते जाते ज‍ ( पूजा माटे ) पुष्पो तोडवां नहीं; पण तेनी मतलब तो ए वे के, (( पूजा श्रादिक श्रवसरे श्रावेला माली पासेथी (पुष्पो सेवामां ) शासननी प्रजावना माटे वणिक्कला वापरवी नहीं; अर्थात् कपटी के कोइ बीजी कलाथी थोडा पैसा आपी वधारे पुष्पो सेवां नहीं; एवार्थने ते वाक्य तो प्रगट करनारुं बे. सिद्धांतमां पण क बेके, डुग्गर नामनी स्त्री पुष्पोएं करीने जिनपूजा करवा उत्तम गतिमां गइ अने तेणीए " यथालाने" करीने नहीं, पण न्यायोपार्जित धनें करीने ते पुष्पो सीधेलां हतां. तथा जिनमंदिरमाटे (सिद्धांतोमां ) गाम आदिकना अंगीकारपणाश्री राम ( बगीचा) आदिको अभाव कहेलो नथी. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । माटे एवी रीते मलीनारंजीए धर्मने माटे स्नानादिक कर, ते विरुद्ध नथी. ४० हीं वादी शंका करे के, अव्यस्नानमां साधु शामाटे श्रधिकारी न आय ? केम के, कर्मरूपी व्याधि तो ते बन्नेने ( साधु गृहस्थ ) तुझ्यज बे, अने तेथी तेनी चिकित्सारूप पूजा पण तेने तुझ्यज होवी जोइए, अने तेथी ते अव्यपूजामां एकनो ज्यारे अधिकार कह्यो, त्यारे बीजानो तेमां शामाटे अधिकार न होय ? तेने माटे तेने कहे बे के, कह्युं वे के, स्नानमुद्वर्तनाभ्यंगं, नखकेशादिसंस्क्रियाम् ॥ गंधं माल्यं च धूपं च त्यजंति ब्रह्मचारिणः ॥ १ ॥ अर्थ- ब्रह्मचारी स्नान, उर्तन, अभ्यंग ( तैलादिकनुं मर्दन ) नख, केश आदिकनो संस्कार, सुगंधि, पुष्प, तथा धूपने तजे बे. एवी रीतना वचनथी मुनिर्जने प्रव्यस्नान तथा अव्यपूजा करवानो अधिकार नथी; वली ते ते कार्योनो मुनिर्जने कई शसागारमाटेज निषेध कर्यो बे, एम नहीं; पण ते मुनि सावद्यथी निवृत्त थरला बे, माटे तेना ते अधिकारी नथी. वहीं वादी शंका करे के, जो के यति पापकार्योथी निवृत्त एलोबे, तो पण स्नान करीने देवार्चन करे, तेमां तेने शुं दोष वे ? त्यारे तेने कहे बे के ज्यारे साधु स्नानपूर्वक देवपूजनमां सावद्य योगवाल थाय, त्यारे तो ते गृहस्थनी पण तुल्यज थइ जाय; अने तेथी तेने (ग्रयस्थने) पण ते नहीं करवालायक थाय; वली गृहस्थी तो कुटुंब श्रादिकने माटे पण सावद्य कार्योमां प्रवृत्त थलो वे अने तेथी ते व्यस्नान श्रादिकमां पण प्रवर्ते; पण यति तो ते सावद्य कार्यमां प्रवृत्त थयो नथी, तो ते sव्यस्नानादिकमां शी रीते प्रवर्ते ? वहीं बादी शंका करे के, जोके कुटुंब श्रादिकमाटे गृ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितीयाष्टक. हस्थी सावध कार्योमां वर्ते , तो पण धर्मने माटे तेमा प्रवर्तवू, ते तेने लायक कहेवाय नहीं; केम के एक पाप आचर्यु, तेथी बीजुं पाप पण आचरवू, ए व्याजबी कहेवाय नहीं. तेने माटे तेने कहे ने के, कुवाना उदाहरणथी पूजादिकथी उत्पन्न थएला आरंजना दोषने शोधीने गृहस्थी ( सम्यक्त्व आदिक ) बीजा ( उत्तम ) गुणोने मेलवे ने, माटे ते गृहस्थीने अव्यस्नान तथा पूजादिक करवां युक्तज बे. वली वादी शंका करे के, जेम कुवाना उदाहरणथी गृहस्थीने स्नानादिक करवां युक्त ने, एवी रीते यतिने पण युक्त ने, माटे तेने स्नानादिकमां शा माटे अधिकारी न कहेवाय? तेने माटे तेने कहे बे के, यति तो सर्वथा प्रकारे सावध व्यापारथी निवृत्त भएका बे, माटे कुवाना उदाहरणथी पण तेमां जो तेठे प्रवर्ते, तो पण तेउने तो चित्तमां पापज स्फुरायमान श्राय, पण धर्म स्फुरायमान थाय नहीं; केम के, तेनुं तो हमेशां शुन्न ध्यानादिकें करीनेज प्रवतवापणुं अने गृहस्थी तो सावध कार्यमां स्वनावधी हमेशांज प्रवर्तता रह्या , पण जिनार्चनादिक घारें करीने स्वपरना उपकाररूप धर्ममा प्रवर्तता नथी; माटे तेथी ज्यारे ते तेमा प्रवर्ते बे, त्यारे तेऊना चित्तमां ते धर्मज लागेलुं होय बे, पण पाप लागेलुं होतुं नथी, माटे एवी रीते कर्ताना परिणामना वशथी अधिकार अनधिकारमानवा अर्थात अव्यस्नानादिकमांगृहस्थीज अधिकारी बे, पण यति अधिकारी नथी, अने आगममां पण एमज कह्यु बे, अने तेवीज रीते सामायिकमां रहेलो श्रावक पण अव्यस्तव माटे अधिकारी नथी; केम के, ते वखते ते सावद्यथी निवृत्त थश्ने, जावस्तवमां आरूढ थएलोबे; माटे ते साधुतुट्यज जे. अने तेथीज स्वनावधीज पृथ्वीकाय आदिकनी विराधनाथी डरवावाला, यतनावाला, तथा सावध कार्यमां थोडी रुचिवाला, अने यतिनी क्रियामा अनुरागवाला एवा गृहस्थीने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहरिलप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । धर्मने माटे सावद्य आरंजनी प्रवृत्ति युक्त नथी; वली ते सावध आरंजमा प्रवर्तेलो नथी, तेथी तेने तजीने प्रव्य स्नानादिक जे सावध आरंल, तेमां ते प्रवृत्ति करे, ते केम युक्त कहेवाय ? माटे एवी रीते नक्की आयु के, सघला माणसो सघलां कार्यना अधिकारी हो शकता नथी; पण जे एक कार्यमां अधिकारी, ते बीजा कार्यमां अधिकारी नथी. हवे नावस्नानना प्रतिपादनमाटे कहे जे. ध्यानांजसा तु जीवस्य, सदा यत्रुझिकारणम् ॥ मलं कर्म समाश्रित्य, नावस्नानं तफुच्यते॥६॥ अर्थ-कर्मरूपी मेलने आश्रीने ध्यानरूपी पाणीथी जीवनुं हमेशां जे शुद्धि करवापणुं, ते "जावस्नान" कहेवाय जे. टीकानो नावार्थ-शुल चित्तनी एकाग्रतारूप जे धर्मध्यानादिक, ते रूपी पाणीयें करीने, आत्माने हमेशां जे शुद्ध करवो, ते "लावस्नान" कहेवाय; ते पाणीथी ज्ञानावरणादिक कर्मोरूप मेलने धोवो; अने एवी रीतनां स्नानने तेनुं स्वरूप जाणनारा “लावस्नान" कहे . __ हवे ते नावस्नान करनारना दे करीने, तेनु उत्तमपणुं तथा अनुत्तमपणुं कहे जे. रुषीणामुत्तमं ह्येतन्, निर्दिष्टं परमर्षिभिः॥ हिंसादोषनिवृत्तानां, वृत्तशीलविवर्धनम् ॥ ७ ॥ अर्थ-हिंसारूपी दोषथी निवृत्त अएला झषीउने वृत्त अने शीलने वृद्धि करनालं, ते लावस्नान करवू, ते परम मुनिए ( सर्वज्ञोए ) उत्तम कहेलुं वे. टीकानो नावार्थ-यथास्थित वस्तुम्ने जे जाणे ते झषि कहेवाय. तेवा झपिए जावस्नान करवू ते उत्तम ने, एम सर्वशोए कहेलुं ने अने तेथी बीजाए ते स्नान करवं, ते अनुत्तम जे; Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयाष्टक., एम सिद्ध थयु; केम के, तेउने विशिष्ट धर्मध्याननो अनाव , अने शषिजने तो ते नावस्नानज करवू उत्तम बे; पण देवाचेनने माटे प्रव्यस्नान करवू, ते तेमने उत्तम नथी. हवे ते इषिर्ड केवा ? ते कहे . प्रमादश्री थती प्राणीउनी जे हिंसा, तेरूपी दोषणथी निवृत्त थएला; अहीं वादी शंका करे के, शषि एवाज होय , एम कहेवू अनर्थक जे. त्यारे ते वादीने कहे जे के, एम नहीं; आ विशेषण हेतुपणाथी उपन्यास करवू; माटे एवो अर्थ करवो के, ऋषि हिंसारूपी दोषथी निवृत्त थएला , माटे तेमने तो न्यस्नानन करवं ते उत्तम बे. हवे ते स्नान के ? ते कहे . व्रत कहेतां (पांच ) महाव्रतो, अने शील केतां समाधि; अथवा व्रत एटले मूलगुणो, अने शील एटले उत्तर गुणो, तेउने विशेषे करीने वृद्धि करनारुं अर्थात् धर्मध्यान अने शुक्लध्यानरूप ते “लावस्नान" जाणवू. हवे आ स्नानाष्टकने उपसंहरता थका कहे जे. स्नात्वानेन यथायोग, निःशेषमलवर्जितः ॥ नूयो न लिप्यते तेन, स्नातकः परमार्थतः ॥७॥ अर्थ-एवी रीते ते प्रव्यथी तथा नावथी अधिकार प्रमाणे स्नान करीने, (माणस) सघला ( कर्मोरूपी ) मेलथी रहित अयो श्रको, फरीने तेनाथी लेपातो नश्री, अने एवी रीते परमार्थथी स्नातक ( स्नान करेलो) थाय . टीकानो भावार्थ-आनावना हेतुरूप एवा अव्यस्नानश्री, अने नावस्नानथी अनुक्रमे मलीनारंजी तथा निर्मलारंजी स्नान करीने, अनुक्रमे सादात् सघला कर्मरूपी मेलथी रहित थाय ने अने तेवी रीते स्नान करवाथी फरीने कर्मरूप मेलश्री लेपातो नथी. अने एवी रीते परमार्थथी ते स्नान करेलो थाय ने अने बीजी रीतथी स्नान करेलो माणस परमार्थथी स्नान करेलो श्रतो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहरिजजसूरिकृतान्यष्टकानि । नथी, केम के, तेथी कर्मरूपी मेलनो नाश थतो नथी; अने फरीने पागे मेल लागे . माटे हे कुतीर्थिडे, जो तमो परमार्थथी स्नातक श्रवाने श्चता हो तो, नावस्नानश्रीज स्नान करो? पण अव्यस्नान करो नहीं; केम के, ते प्रव्यस्नान तो फक्त मलीनारंजी माटेज कहेलुं ने. अथवा आ श्लोकनी व्याख्या नीचेप्रमाणे करवी. उपर कहेला नावस्नानथी युक्तिपूर्वक सघला ( कर्मरूपी) मेलथी वर्जित थयो थको फरीने तेनाथी लेपातो नथी. कोण नथी लेपातो, तो के परमार्थथी स्नान करेलो. अहीं " क्वा" प्रत्यय रूढीना वशश्री जे. एवी रीते बीजा अष्टकनुं विवरण समाप्त श्रयु. तृतीयाष्टकं प्रारज्यते स्नान कर्या पनी देवर्नु पूजन करवू जोएं; तेथी पूजा, स्वरूप कहेवा माटे हवे कहे . तथा जेठ एम माने ने के, “ श्वेतांबर मुनि देवनी पासे जश्ने पण तेने पूजता नथी, माटे तेमनु ( देवसमीपे ) जq अनर्थक ," तेऊना मतनुं खंडन करवामाटे पूजाष्टक कहे बे. अष्टपुष्पी समाख्याता, वर्गमोक्षप्रसाधनी ॥ अशुद्धतरत्नेदेन, द्विधा तत्वार्थदर्शिनिः॥१॥ अर्थ-स्वर्ग अने मोदने आपनारी, एवी अष्टपुष्पी नामनी पूजा, तत्वोना अर्थने जाणनाराए अशुद्ध अने शुद्ध नेदें करीने बे प्रकारनी कहेली बे. टीकानो जावार्थ-पूजापणाए करीने जेमां आठ पुष्पो एकगं करेलां , तेने" अष्टपुष्पी” कहीएं. अहीं आठ पुष्पो जघन्यपदने आश्रीने कहेलां बे; पण तेथी एम नहीं धारयूँ के, आउज पुष्पो चडाववां; केम के, आगल कहेशे के, “थोडां अथवा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ तृतीयाष्टक. घणां पुष्पोथी पूजन करवू.” वली ते देवपूजनमां आठ पुष्पो लेवानुं कारण पण कदेशे. वली ते अष्टपुष्पी पूजा, जीवादिक तत्वोने परमार्थ वृत्तिथी जाणनाराजए बे प्रकारनी कहेली बे. ते बे प्रकारनी कई? तो के, एक सावद्य तथा बीजी निरवद्य. अहीं "इतर” शब्दने जे पुंवन्नाव मे ते “ वृत्तिमात्रे सर्वादीनां पुंवनावः ” एवी रीतना व्याकरणना वचनथी थएलो . हवे ते पूजानुं फल देखाडे . पेहेली (सावद्य) पूजा स्वर्गने देनारी ने, तथा बीजी (निरवद्य ) पूजा मोक्ने देनारी बे. हवे बे श्लोकोश्री अशुद्ध पूजानुं स्वरूप कहे जे. शुभागमैर्यथालानं, प्रत्यौः शुचिनाजनैः ॥ स्तोकैर्वा बहुभिर्वा पि, पुष्पैर्जात्यादिसंजवैः॥२॥ अष्टापायविनिर्मुक्त, स्तबगुणनूतये ॥ दीयते देवदेवाय, या सा शुक्रेत्युदाहृता ॥३॥ अर्थ-श्राप कर्मोरूपी अपायथी मुक्त भएला, अने तेथी उउत्पन्न चे गुणोनी संपदा जेने, एवा देवाधिदेवप्रते, जेम लाल थाय, तेवी रीते शुधने प्राप्ति जेनी, तथा नहीं कमलाएलां, अने पवित्र नाजनमा रहेला, एवां मालती आदिक उत्तम जातिनां थोडांअथवा घणां पुष्पोएं करीने जे पूजा करायचे ते पूजाने “सावद्य पूजा" कहेली . ___टीकानो नावार्थ-शुध केतां निर्दोष , मेलववानो उपाय जेनो एवां पुष्पो, अर्थात् न्यायोपार्जित धनथी, अने चोरीविना ग्रहण करेलां, एवां पुष्पोएं करीने जे पूजा देवप्रते देवाय (कराय ) नेने अशुद्ध पूजा कहेली बे, हवे ते पूजा केम करवी ? ते कहे जे. जेमां लान- उबंधन न श्राय, एवी रीते शासननी प्रत्नावना माटे, उदार नावथी मालीपासेथी देशकालनी अपेहाए उत्तम, मध्यम, तथा जघन्य जातिमांथी जे पुष्पो मले, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४. श्रीहरिलजसूरिकृतान्यष्टकानि । ते पुष्पोश्री पूजा करवी. हवे ते पुष्पो केवां? ते कहे जे के, नहीं करमाएलां, तथा पवित्र बाल आदिकमां रहेलां; केम के जो ते पुष्पो एवां न होय, तो स्नानादिकनी पवित्रता पण मननी निवृत्तिने उत्पन्न करी शकती नथी. वली ते पुष्पो थोडां एटले दरेक (झानावरणादिक) आठ अपायोने दूर करवामाटे श्राप, अथवा घणा एवां मालती बिचकील आदिकथी उत्पन्न थतां पुष्पोएं करीने पूजा करवी. अहीं मूलभ्लोकमां जे “वा" शब्द मूकेलो , ते थोडां अथवा घणां पुष्पोवाली पूजानुं सरखं फल देखाडवामाटे . __ अहीं कोई वादी शंका करे के, उत्तम जातिनां जे पुष्पो कह्यां, ते सुवर्ण आदिकनां पुष्पोना निषेधमाटे जे; केम के उत्तम जातिनां पुष्पो तो एकजवार चडावी शकाय , तथा पळी तेमने निर्मात्य करीने वारंवारं ते चडावातां नथी; अने सोना आदिकनां पुष्पो तो वारंवार चडावाय ; अने तेथी निर्माट्यारोपणनो दोष आवे . हवे ते वादीने तेनो उत्तर आपे ने के, ते अयुक्त जे. केम के सिद्धांतमां कडं ने के, “कंचणमोतियरयगाइदामएहिंचविविहेहिं” (विविध प्रकारनी कंचन, मोती, तथा रत्न आदिकनी मालाउँथी जिनपूजन करवू. ) वली ज्यारे ते पुष्प आदिक पागं न उताराय, त्यारे तो “ निर्माल्यपणानो" दोष न आवे, पण ते मालती आदिकनां पुष्पो तो थोडा काल पठी सुगंधिरहित श्राय ने, माटे ते अवश्य उतारवां जोएं, अने सुवर्ण आदिकना पुष्पो तो तेम निर्गध श्रतां नथी, माटे ते अवश्य उतारवा लायक थतां नथी, अने तेथी तेउने फरीने चडाववामां पण ते दोष आवी शकतो नथी. वली केटलाको एम कहे जे के, वीतरागने अलंकार पहेराववा अयुक्त के केम के तेथी वीतरागरूप आकारनी अप्राप्ति थाय ने ते कहे पण युक्त नथी, केम के, जो एम मानीएं, तो पुष्प आरोपण करवामां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ स्तुति करवातारवी,ते पूजासापायविनिमुक्त जाणार तृतीयाष्टक. पण तेज (निषेधपणानो) प्रसंग आवे; केम के, वीतरागने ज्यारे आजूषणो न पहेराववां, त्यारे पुष्पो पण न चडाववां जोइए, केम के, ते बन्ने रागने गोचर वे. ___ हवे अष्टपुष्पी पूजानुं कारण कहे जे. अनर्थना हेतुजूत एवा ज्ञानावरणादिक जे आठ अपायो, अथवा प्रकारांतरथी दग्धरज्जुनी कल्पना करवाथी नवोपग्राही एवां चार कर्मोश्री मुकाएला, अने तेवी रीते कर्मोएं करीने मूकायाथी उत्पन्न थती जे अनंत ज्ञानदर्शन आदिकनी लक्ष्मी, ते वे जेने एवा जिनेश्वरप्रते पूजा करवी. ते जिनेश्वर केवा तो के, स्तुति करवालायकने पण स्तुति करवालायक, एवा देवप्रते जे अष्टपुष्पी पूजा करवी,ते पूजा सर्वज्ञोए अशुध(सावद्य)कहेली बे. अहीं वादी शंका करे के, “अष्टापायविनिर्मुक्तागुणतियस्य” एवी रीतना वाक्यश्रीज अष्टपुष्पीन कारण तो जणा आवे , उतां “तत्” शब्द ग्रहण करवानी शी जरूर हती ? त्यारे तेने कहे जे के, एम नहीं; “ अष्टापायविनिर्मुक्तायदीयते" एम कहेवाथी अष्टपुष्पीन कारण कह्यु; अने “तमुत्थगुणनूतये” एम कहेवाथी चतुःपुष्पीन कारण कयु; केम के, ते अनंतझान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, तथा अनंतवीर्यरूप . त्यारे वली अहीं वादी शंका करे के, “अष्टापायविनिर्मुक्ताय" एवं कहेवाश्रीज तेथी उत्पन्न श्रता अनंतझानादिक गुणो तो जणाश् आवे बेज. (त्यारे फरीने ते ग्रहण करवानी शी जरूर हती ?) त्यारे तेने कहे जे के, एम पण नहीं. __ केम के, केटलाको ( अन्य दर्शनी पोताना ) सिद्धोने प्रकृतिना वियोगश्री ज्ञाननो अनाव, शरीर अने मनना वियोगश्री वीर्यनो अनाव, तथा विषयना वियोगथी सुखनो अनाव कहे ; तेना मतनुं खंडन करवा माटे एवी रीते सुकवू पड्युं बे. त्यारे वली अहीं वादी शंका करे के, ज्यारे एम ने त्यारे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । ज्ञानावरणादिकनो क्ष्य अवाथी केवलीने पांचे ज्ञाननो प्रसंग नहीं आवे; केम के, “ नमिनचाउमहिए नाणे” एवं सिद्धांतनुं वचन . ___ त्यारे ते वादीने कहे जे के, एम नहीं केवलज्ञानथीज बाकीना ज्ञानथी ज्ञेय पदार्थनुं प्रकाशितपणुं होवाश्री, अने ते बाकीना झानोनुं अनर्थकपणुं होवाश्री, तेनुं नष्टपणुं कां बे. वली अहीं वादी शंका करे के, श्लोकना आ पूर्वार्धथी तो, जेट एम माने जे के, जिनबिंबनी प्रतिष्ठामांत्रण अवस्था कट्पाय बे, अने तेथी बाल्य अवस्थाने आश्रीने स्नान, दीदामाटे निकलती वेलाने आश्रीने रथारोपण, तथा पुष्पपूजा आदिक, अने कैवल्य अवस्थाने आश्रीने वंदन कराय ; एवी रीतना मतनुं खंडन थयु, केमके अष्टापायविनिर्मुक्तिनी अपेदाए कराती पूजा कई गृहस्थावस्थाने विषयरूप करती नथी; पण ते तो केवल कैवल्य अवस्थानेज विषयरूप करे ; अने एम पण नहीं विचार, के, अष्टापायविनिर्मुक्तिने आलंबीने कैवल्य अवस्थामां पूजा करवी; केम के, चारित्रिने स्नानादिक घटतां नश्री, अने तेनी पेठे साधूनने पण तेनी प्रसक्तिथी ते चरित्र अनावलंबनीय नथी; जो एम न होत तो जेनो स्पर्श फरी जइ जे अचित थइ गएल , एवा पण अप्काय आदिकनो त्याग ते आचारना निषेध माटे केम थात ? केम के ( सिद्धांतोमां ) एम कहेलं संजताय ने के, एक वखते स्वजावधीज अचित श्रएला, एवा तलावना मध्यसागमा रहेला पाणीने, तलना ढगखाने, अने स्थंडिल प्रदेशने, जोश्ने पण जगवान महावीर स्वामीए, तेना प्रयोजनवाला साधुऊने पण ते ग्रहण करवा माटे निषेध कर्यो बे; केम के, लगवाने एम विचार्यु के, अमारा आ आचरण- आलंबन लेग्ने, आचार्यों बीजाउँने तेवा काममां प्रवावे नहीं; अने साधुः पण तेवी रीते प्रवर्ते नहीं तो सारुं. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयाष्टक. त्यारे हवे ते वादीने कहे ने के, ते सघलु सत्य , पण बिंबकल्प तो जूदी तरेहनो मनाय बे अर्थात् जेम नावअर्हत्प्रते. वर्तवं; तेवीज रीते स्थापनाअहत्पते पण वर्तवू; अने तेथी करीनेज गौतमादिक साधु जगवाननी समीपे रहे थे अने तेथी बिंबनी समीप रहेवामां तेमने निषेध कह्यो ; अने वली तेथीज साधवी दंडस्थापनारूप आचार्यने स्थापे ; जो एम न होत, तो जेम नाव आचार्य समीपे आवश्यक करती नथी, तेम ते स्थापनाचार्य पासे पण नहीं करत. वली ते प्रवर्तिनीने स्थापे बे, एम पण नहीं कहेवू; केम के, प्रतिक्रमण वखतेज चैत्यवंदन करती वेलाए महावीरादिकना अवश्य कट्पवापणायें करीने, ते दोषनुं समानपणुं श्रावे. वली जगवान तो वीतराग हता, तो पण रात्रिए चंदनबाला श्रादिक आर्या नगवाननी समीपे रहेतीनहीं. वली अहीं वादी शंका करे के, प्रतिक्रमण वखते अरिहंत प्रजुनी स्थापना करीने चैत्यवंदन करवाथी आशातना दोषनो प्रसंग आवे. त्यारे ते वादीने कहे जे के, एम नहीं; केम के, जिनालयमां पण चैत्यवंदन करवानी सिद्धांतसां अनुझा आपेली . ___एवी रीते स्वरूपथी अशुद्ध ( सावद्य ) एवी अष्टपुष्पी, वर्णन कर्यु. अने तेज स्वर्गने देनारी चे, एवं जे कडं, ते हवे देखाडता थका कहे . संकीर्णेषा स्वरूपेण, अव्याद्नावप्रसक्तितः॥ पुण्यबंधनिमित्तत्वाद, विझेया वर्गसाधनी॥४॥ अर्थ-सावयें करीने मिश्र एवी उपर कहेली व्यपूजा पुपादिकना प्रसंगथीनावने उत्पन्न करनारी होवाथी, तथा पुण्यबंधनना निमित्तरूप होवाश्री स्वर्गने देनारी जाणवी. टीकानो नावार्थ-संकीर्णा एटले अवयें करीने मिश्रित थएली एवी उपर कहेली अष्टपुष्पी पूजा स्वजावें करीने पुष्पादिकना प्रसंगथी, जगवानने विष चित्तना आल्हादपणाने उत्पन्न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० श्रीहरिलजसूरिकृतान्यष्टकानि । करनारी होवाश्री, स्वर्गने देनारी जे; अर्थात् पुष्पादिक जव्यना उपयोगथी अवद्य अने शुननाव बन्ने थाय बे एवी रीतर्नु आ (अव्यपूजानुं ) मिश्रपणुं कर्मने नाश करवामां कई निमित्तरूप नथी; पण पुण्यबंधनना निमित्तरूपज बे; ते, कहे ; एवी रीते ते पूजा पुण्यबंधनना निमित्तरूप होवाथी स्वर्गने देनारी, अने उपलदाणथी ते उत्तम एवा मनुष्यपणाने, तथा अनुक्रमे नावपूजाना कारणपणाने पामीने मोहने साधनारी जे. हवे निरवद्य एवी अष्टपुष्पीन स्वरूप कहेवामाटे कहे . या पुनर्नावजैः पुष्पैः, शास्त्रोक्तिगुणसंगतैः ॥ परिपूर्णत्वतोऽम्लाने, रत एव सुगंधिनिः॥ ५ ॥ अर्थ-शास्त्रनी आझारूपी दोराथी गुंथेलां, अने संपूर्णपणाथी नहीं करमाएलां, अने तेथीज सुगंधिवालां एवां लावरूपी पुष्पोयें करीने जे पूजा करवी (तेने निरवद्य केहेतां उत्तम पूजा कहेली ने,) . टीकानो लावार्थ-जे अष्टपुष्पी पूजा, आत्मानी परिणतिथी उत्पन्न भएखां, तथा आगमनी आझारूपी गुणनी साथे जोडाएलां, अर्थात् कषादिक परीदाथी शुद्ध थएलां, आगमोना पारतंत्र्यपणानुं अनुगमन करतां, अथवा शास्त्रना वचनरूपी जे गुण केतां दोरो, तेमां परोवेलां; अर्थात् मालारूप करेलां पुष्पोश्री करवी, ते शुध केतां निरवद्य पूजा कहेवाय; वली आधी करीने एम पण देखाड्यु के, ज्यारे व्यपुष्पो पण मालारूप करीने आरोपण करवां, त्यारे पण आठ अपायापगमोनुं स्मरण करीने आरोपवां. वली ते पुष्पो केवां? ते कहे . परिपूर्णतायें करीने, अथवा सघला जीवना मृषावादादिक विषयपणायें करीने निरतिचारपणाश्री म्लानिने नहीं प्राप्त श्रएलां, अने तेथी करीनेज सुगंधिवाला एवां पुष्पोथी जे पूजा करवी; ते निरवद्य पूजा कहेवाय जे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयाष्टक. हवे ते जावरूप व पुष्पोनां नामो कहे . श्रहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमसंगता ॥ गुरुनक्तिस्तपो ज्ञानं, सत्पुष्पाणि चचते ॥ ६ ॥ अर्थ-अहिंसा, सत्य, चोरी न करवी ते, ब्रह्मचर्य, संगीपणुं, गुरुनी जक्ति, तप, तथा ज्ञान, एटलां व जातिनां उम पुष्पो कवा . टीकानो जावार्थ- प्रमादना योगथी ( कोइना पण ) प्राणनो जे नाश करवो, ते हिंसा, अने तेन जाव जे अहिंसा, ते एक पुष्प जाणवु तथा जूठपणानो जे अभाव, अर्थात् सत्य, ते बी - जुं पुष्प जाणवुः तथा चोरीनो जे नाव ते त्रीजुं पुष्प जाणवुं, तथा मन, वचन, छाने कायाथी काम सेवनना वर्जवारूप जे ब्रह्मचर्य, ते चोथुं पुष्प जावं. तथा धर्मना उपकरणो शिवायना परिग्रहनो जे त्याग, ते पांचमुं पुष्प जाणवु; ( धर्मना उपकरपोने वीरप्रजुए सिद्धांतोमां अपरिग्रहपणं कहेलुं छे. जो एम कह्युं न होत, तो शरीर, आहार विगेरे पण परिग्रहरूप यात . ) तथा गुरुनुं जे बहुमान करवुं; ते बहुं पुष्प जाणवुं; शास्त्रोना जे जाणे ते गुरु कहेवाय. कह्युं बे के, धर्मज्ञो धर्मकर्ता च, सदा धर्मपरायणः ॥ सत्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थ, देशको गुरुरुच्यते ॥ १ ॥ - धर्म जाणनार, धर्मने करनार, हमेशां धर्ममां तत्पर, तथा प्राणी प्रते धर्मशास्त्रना अर्थनो उपदेश देनार, ते "गुरु" कहेवाय बे. तथा जेनाथी रुधिर, मांस, चरबी, हाडकां, मजा, ने वीर्य तपे बेः तथा अशुभ कर्मो पण जेनाथी तपे बे; ते "तप" रूपी सातनुं पुष्प जाणवुः तथा जेनाथी अर्थो जाय, ते ज्ञान, अर्थात् सम्यक् प्रवृत्तिनो हेतुभूत एवो जे बोध, ते रूपी श्रमुं पुष्प जावं; एवी रीते ते आवे जावपुष्पो, ते द्रव्यपुष्पोनी पे Jain Educationa International ए For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहरिजजसूरिकृतान्यष्टकानि । दायें उत्तम जाणवां; अने ते पुष्पोने शुद्ध एवी अष्टपुष्पीना स्वरूपने जाणनारा (लावपूजामाटे) अंगीकार करे बे. - हवे ते कहेलाज अर्थने वाक्यांतरें करीने कहे . एनिर्देवाधिदेवाय, बहुमानपुरस्सरा ॥ दीयते पालनाद्यातु, सावै शुझेत्युदाहृता ॥ ७ ॥ अर्थ-एवी रीतना पुष्पोथी, बहुमानपूर्वक, ते पुष्पोना रदणथी, देवाधिदेवप्रते जे पूजा कराय , तेने शुग्छ ( निरवद्य) पूजा कहेली . टीकानो नावार्थ-उपर कहेला नावपुष्पोएं करीने, इंजथकी पण अधिक एवा आगल वर्णवेला महादेवप्रते अत्यंत प्रीतिपूवेक जे पूजा करायचे, ते शुद्ध पूजा जाणवी. केवी रीते ? ते कहे . अहिंसा आदिक जे, पुष्पो तेना राणघारें करीने; केम के, ते पालवाथी देवनी आज्ञा पालेली कहेवाय जे; केम के, आज्ञाने विराधीने, आझेश्वर महाराजनी पेठे जोके सघली पूजामां उद्यमवंत श्राय, तो पण ते आराधित अतो नथी. एवी रीतनी पूजाने तत्वना जाणनाराउए निरवद्य कहेली बे. हवे ते शुद्ध पूजा, मोदसाधनपणुं देखाडता थका, तथा तेमां उत्तम पुरुषोनुं संमतपणुं देखाडता का कहे जे. . प्रशस्तो ह्यनया नाव, स्ततः कर्मदयो ध्रुवः॥ · कर्मदयाच्च निर्वाण, मत एषा सतां मता ॥ ७ ॥ अर्थ-ते नावपूजाएं करीने शुफलाव थाय , तथा ते शुधनावथी निश्चल अथवा अवश्य अनारो एवो कर्मोनो दय थाय , अने ते कर्मक्ष्यश्री मोक्ष थाय ने, अने ते कारणोथी ते जावपूजा उत्तम पुरुषोने माननीक बे. टीकानो जावार्थ-उपर कहेली शुद्ध अष्टपुष्पीरूपी पूजाथी आत्माना परिणाम शुद्ध पाय के; पण व्यरूप एवी अष्टपुष्पीथी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाष्टक. तेम अतुं नश्री, केम के ते जीवहिंसाथी मिश्रित भएसी के अने ते उत्तम जावथी ज्ञानावरणादिकनो दय अवश्य करीने थाय बे; अने एवी रीतना कर्मक्यथी मोक्ष प्राय ने अने तेथी शुद्ध एवी ते अष्टपुष्पी पूजा यतिउने विधेयपणाथी इष्ट बे, पण तेउने अव्य अष्टपुष्पी इष्ट नथी. माटे हे कुतीर्थको, जो तमो यति हो, तो तो ते नावपूजाज करो! एवी रीते त्रीजा अष्टकनुं विवरण समाप्त अयुं. चतुर्थाष्टकं प्रारज्यते पूजा कर्या पढ़ी लोको अग्निकारिका करे , माटे तेनुं निरूपण करवामाटे हवे कहे बे. कर्मेधनं समाश्रित्य, दृढा सन्नावनाहुतिः ॥ धर्मध्यानामिना कार्या, दीक्षितेनाग्निकारिका॥१॥ अर्थ-कर्मोरूपी बलतणनो आश्रय करीने, धर्मध्यानरूपी अग्निएं करीने, दीक्षित, सन्नावनारूपी आहुतीवाली दृढ एवी अग्निकारिका करवी. टीकानो नावार्थ-कर्म एटले मूल प्रकृतिनी अपेक्षाएं ज्ञानावरणादिक आठ प्रकारना कर्मों, तेउने बालवानी (दूर करवानी) अपेदाथी ते रूपी जे काष्ट (इंधन) तेने आश्रीने अग्निकारिका करवी. ते अग्निकारिका केवी ? तो के, दृढ केतां कर्मरूपी लाकडांउने बालवामां समर्थः तथा वली जीवनी जे शुज वासना, ते रूपी ने आहुति जेमां एवी; हवे ते कर्मरूपी काष्ठो शानेथी बालवां ? ते कहे जे. धर्मध्यान अने उपलदणी शुक्लध्यानरूपी जे अग्नि, तेणे करीने ते कर्मोरूपी काष्ठोने बालवारूप अग्निकारिका करवी. हवे तेवी रीतनी अग्निकारिका कोणे करवी ? ते कहे बे. दीक्षित केतां जेणे प्रव्रजा लीधेली होय, तेणे तेवी री Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ श्रीहरिलजसूरिकृतान्यष्टकानि । तनी अग्निकारिका करवी; पण तेणे अव्यअग्निकारिका करवी नहीं, केम के, तेमां प्राणीउनी हिंसा थाय ने अने तेवो दीदित तो तेवी हिंसाथी निवृत्त भएलो जे; तेथी तेमां (अव्यअग्निकारिकामां ) ते अधिकारी नथी, केम के, “अधिकारिववशाच्चधर्मसाधनसंस्थितिः” (अधिकारिनी अपेक्षाएं धर्मसाधननी स्थिति के ) एम अगाउ कहेलुं ; अने गृहस्थ तो सर्वथा प्रकारे जीवहिंसाथी निवृत्त भएलो नथी, तेथी ते अव्यअग्निकारिका करवाने अधिकारी होवाथी ते करे , अने तेथीज जैन गृहस्थो धूप, दीप आदिकना प्रकारथी अव्य अग्निकारिका करे . ___ आ श्लोके करीने एम कहेलुं थाय ने के, हे कुतीर्थिज, ज्यारे तमो दीक्षित श्रएला बगे, त्यारे कर्मोरूपी काष्टोने एकगं करी, तथा तेमां धर्मध्यानरूपी अग्नि प्रदीप्त करीने, सद्लावनारूपी आहुतीथी अग्निका रिका करो ? पण बीजी अग्निकारिका करो नहीं; केम के, ते दीक्षितने अनुचित के; पण जो तमो गृहस्थो हो, अथवा तेऊनी तुल्य हो, तो अव्यअग्निकारिका करो! __ हवे, “दीहिते तो ध्यानरूपीज अग्निकारिका करवी," एम अन्यदर्शनीउनाज सिद्धांते करीने साधता थका कहे . दीक्षा मोक्षार्थमाख्याता, ज्ञानध्यानफलं स च॥ शास्त्रजक्तो यतः सूत्रं, शिवधर्मोत्तरेह्यदः ॥२॥ अर्थ-दीदा मोक्नेमाटे कहेली ने अनेते मोद ज्ञानध्यानना फलरूप के एम शास्त्रमा कहेलुं ; केम के, तेवी रीतनुं सूत्र (अन्यदर्शनीना) “शिवधर्मोत्तर" नामना शास्त्रमा कहेलुं . टीकानो नावार्थ-दीदाने तेना जाणनाराउंए सकल कर्मोथी मुक्त श्रवाना निमित्तरूपे कहेली; माटे ते दीक्षाने प्राप्त भएलाए तो मोक्ने साधनारीज क्रीया करवी जोएं; पण तेणे प्रव्यअग्निकारिका करवी नहीं; एवो जावार्थ जाणवो. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाष्टक. वह ६३ अहीं कोई वादी शंका करे के, अव्यअग्निकारिकाज मोक्न साधन जे; तेने माटे ते कहे जे के, ते मोद, ज्ञान अने शुन एवी एकाग्रता, साध्य ; पण अव्य अग्निकारिकानुं साध्य नथी. __ वली अहीं वादी शंका करे के, ते शी रीते जणाय ? केम के, ते प्रत्यक्ष आदिक प्रमाणने अगोचर जे. तेने माटे कहे ने के, ते आगमने विषे ज्ञानध्यानना फलपणाए करीने कहेलो ; माटे जोके, ते प्रत्यक्ष अने अनुमान प्रमाणने अगोचर , तो पण आगममां कहेलुं होवाथी ज्ञान अने ध्यानना फलपणाएं करीने ते मोद अंगीकार करवो; अने सघला मोहवादीए आगमने प्रमाणपणाएं करीने मानेझुंज . वली जोके, बौछ लोको तेम नथी मानता, तो पण संशय विशेषनां कारणे करीने प्रवृत्तिनी निवृत्तिना हेतुपणाथी तेठए कोइ पण रीते ते मानेलोज ने. बली अहीं वादी शंका करे के, ते शी रीते नक्की थाय ? के, ते मोद, शास्त्रमा फलपणाएं करीने कहेलो बे. तेने माटे तेने कहे ने के, ते अन्यदर्शनीना शिवधर्मोत्तर नामना शास्त्रमा मोदने ज्ञानादिकना फलपणाएं करीने कहेलो ने माटे हे कुतीर्थि! तमोएज अंगीकार करेलां शास्त्रमा ज्यारे तेम कहेलुं ने, त्यारे मोक्षना अर्थि तथा दीक्षित एवा तमोए ते प्रव्य अग्निकारिका नहीं करवी जोइए; एवो जावार्थ . हवे तेज सूत्र देखाडता का कहे . पूजया विपुलं राज्य, मनिकार्येण संपदः॥ तपः पापविशुष्ट्यर्थ, ज्ञानं ध्यानं च मुक्तिदम्॥३॥ अर्थ-पूजाथी उत्कृष्ट राज्य, तथा अग्निकारिकाधी संपदा मले ने तथा तप पापोनी शुधिमाटे के अने ज्ञान, तथा ध्यान मोदने देनारां कह्यां . टीकानो लावार्थ-पूजाथी एटले देवतुं पुष्प आदिकथी अर्चन करवाथी ( पण जावपूजाथी नहीं, केम के, ते तो तप अने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की ६४ श्रीहरिलजसूरिकृतान्यष्टकानि । ज्ञानरूप होवाथी, पापशुधि अने मोक्ने संपादन करनारी ;) तेना करनारने विस्तीर्ण एवं राज्य मले ने, अने अग्निकारिकाथी समृघि मले ने, (अहीं पण अव्य अग्निकारिकाज जाणवी; पण नाव अग्निकारिका जाणवी नहीं; केम के, ते तो ध्यानरूप होवाथी मोदने साधनारी जे.) तथा अनशनादिक तप अशुन कर्मोना क्यमाटे थाय ; तथा ज्ञान, अने शुनचित्तनी एकाग्रतारूप जे ध्यान, ते मोहने देनारांचे; (एवी रीते ते शिवधर्मोत्तर नामना ग्रंथना सूत्रनो अर्थ बे.) एवी रीते अन्यदर्शनीउना दीक्षितने, तेणेज मानेला शास्त्रश्री अग्निकरिकानुं करवू, ते दूषण नरेलुं बे. __ हवे फरीने पण तेनी पूजा, अने अग्निकारिकानुं प्रकारांतरथी दूषण देखाडता थका कहे . पापं च राज्यसंपत्सु, संजवत्यनघं ततः ॥ न तछेतोरूपादान,मिति सम्यग् विचिंत्यताम्॥॥ अर्थ-राज्यसंपदामां पाप थाय ने, अने तेथी तेना हेतुनूत एवी व्यपूजा तथा अग्निकारिकार्नु उपादान निर्वद्य श्रइ शकतुं नथी; माटे (हे कुतीर्थिन; ) ते बाबत तमो सारीरीते विचारो? ____टीकानो नावार्थ-केवल मुमुठुने अग्निकारिकानुं करवु निरर्थक नथी; पण ते अव्यपूजा अने अग्निकारिका करवा पठी फखरूप अती एवी जे राज्यनीसंपदा, तेमां अशुन्न कर्मों उत्पन्न थाय ने अने तेथी ते राज्य संपदाना कारणनूत एवी ते जव्यपूजा अने अग्निकारिकानुं जे ग्रहण करवू, ते निर्वद्य अश् शकतुं नथी; माटे हे कुतीर्थिठ, एवी रीते अव्यपूजा अने अव्य अग्निकारिकाना ग्रहण करवामां उपर कहेलु सावधपणुं तमारा पोतानाज सिधांतनां अविरोधथी विचारो. केम के, सारी रीते विचार पूर्वक कार्य करनाराज मुमुकु श्रश् शके ने. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाष्टक. ६५ वली अहीं वादी शंका करे के, राज्यसंपदामां नले पाप थाय, पण दान आदिकश्री तेनी शुद्धि थशे; तेने माटे हवे तेने कहे . विशुझिश्चास्य तपसा, न तु दानादिनैव यत् ॥ तदियं नान्यथा युक्ता, तथा चोक्तं महात्मना॥५॥ अर्थ-( राज्य आदिकथी थता पापनी) शुद्धि तपथी श्राय बे, पण दान आदिकथीज अती नथी, माटे ते व्यअग्निकारिका युक्त नथी, पण तेथी उलटा प्रकारनी युक्त जे अने महात्मा ( व्यासे ) पण तेमज कहेलु . टीकानो लावार्थ-राज्य आदिकथी उत्पन्न थएला पापनी शुधि अनशनादिक तपथी थाय ने, (केम के तप नेते, पापनी शुधिमाटे बे.) पण होमादिक दानश्री अती नथी; ( केम के, दानथी लोगो मले बे.) माटे दीक्षितने ते व्यपूजा, तथा - व्यअग्निकारिका केम युक्त कहेवाय ? अहीं मुख्य दूषण तो 5व्यअग्निकारिकानुं देखाड्युं बे; अने प्रव्यपूजा, दूषण तो प्रासंगिक जे; माटे हवे अग्निकारिकानुं निगमन कहे जे. ते प्रव्यअग्निकारिका पापना साधननूत एवी संपदाना हेतुनूत ने, माटे ते मुमुकुने युक्त नथी; अने धर्मध्यानरूप अग्निकारिकाना प्रकारांतरने प्राप्त भएली एवी ते अव्य अग्निकारिका युक्त जे. शुध करवा लायक एवां जे पाप, तेने उत्पन्न करनारी जे संपदा, तेना निमित्तपणाथी, व्यअग्निकारिकानुं न करवापणुं, व्यासे पण न्यायथी अंगीकार करेलुंगे एम देखाडता का हवे कहे जे के, जेवी रीते अमोए कहेढुंचे, तेवीज रीते महात्मा व्यासे पण कहेलुं ने अहीं हरिजप्रसूरि महाराजे मिथ्यादृष्टि एवा व्यासने पण जे महात्मा कहीने बोलाव्या बे, ते अन्यदर्शनीना मतना अलिप्रायथी तथा पोताना मध्यस्थपणाने प्रकट करवामाटे में; माटे तेम कहे, विरुद्ध नथी. वली अन्यदर्शनीए व्यासने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । महात्मा तरिके मानेला बे, अने तेथी पोताना पक्षमा अन्यदर्शनीनी प्रीति अवामाटे तेनुं वचन अत्रे मुकेतुं . वली पण तेज कहे . धर्मार्थं यस्य वित्तेहा, तस्यानीहा गरीयसी ॥ प्रदालनाकि पंकस्य, दूरादस्पर्शनं वरम् ॥१॥ अर्थ-धर्मने माटे जेनी धननी चेष्टा के तेनी(धर्ममाटे धननी) नहीं चेष्टाज श्रेष्ट बे केम के, कादवने धोवा करतां, तेने स्पर्श नहीं करवो, तेज वधारे श्रेष्ट ने. ___टीकानो लावार्थ-धर्मने माटे जे कोश् पुरुषनी खेती, वेपार आदिकथी अव्य उपार्जन करवानी जे चेष्टा के ते पुरुषनी ते धमैने माटे तेवी अचेष्टाज (प्रव्य उपार्जन न करवू, तेज) वधारे श्रेष्ट ; अर्थात् धनने माटे व्यापार आदिक करवामां अवश्य पाप थाय ने, अने ते पापने उपार्जन करेलां एवां अव्यना दानथी अवश्य शोध, पडे बे; माटे तेथी धनने माटे खेती श्रादिकनी चेष्टा नहीं करवी तेज श्रेष्ट बे; केम के तेम करवाश्री धनना दानथी शुद्ध कर, पडे एवं पाप लागतुंज नथी; वली ते अचेष्टामां परिग्रह अने आरंजनुं वर्जवापणुं जे; तेथी ते धर्मरूप . हवे ा बाबतमाटे दृष्टांत कहे ने के, अशुचिरूप एवा कादवने धोवा करतां, तेने प्रकर्षे करीने स्पर्श नहीं करवो, तेज वधारे श्रेष्ट ने अर्थात् कादवमां हाथ पग आदिक अवयवोने नांखीन पण पग ते धोवा पडे बे, तेना करतां ते कादवने स्पर्श न करवो, ते श्रेष्ट बे; तेवीज रीते अव्यअग्निकारिका करीने संपदा उपार्जने करवी, अने तेथी उत्पन्न श्रता पापने पाडं दान आपीने शोधकुं, तेना करतां अहींज ते व्यअग्निकारिका नहीं करवी ते श्रेष्ट जे. श्रानो मतलब ए जाणवो के, मुमुहुए व्यअग्निकारिका करवी नहीं; केम के, तेथी उत्पन्न थता कर्मरूपी कादवने कीचडमां नाखेला पग आदिकनी पेठे फरीने धोवो पडे ने. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाष्टक. अहीं वादी शंका करे के, ज्यारे एम बे, त्यारे तो गृहस्थे पण पूजादिक नहीं करवां जोएं. त्यारे तेने कहे जे के, एम नहीं, केम के, जैन गृहस्थो कई राज्यादिक मेलववामाटे पूजा करता नथी; तेम “ राज्य आदिकथी उत्पन्न थतां पापोने अमो दान आदिकथी शोधशें,” एम पण मानता नथी. पण फक्त मोदने माटेजतेनी पूजादिकमां प्रवृत्ति जे. वली मोदना अर्थी एवा आगमानुसारीने वीतरागनी पूजा आदिकथी मोदरूपज मुख्य फल मले बे, अने राज्य आदिक तो प्रसंगेप्रसंगे मलतुं फल बे; माटे गृहस्थीने पूजा आदिक अ'विधेय ( नहीं करवा लायक ) नथी, एवी रीते दीक्षित अने वगरदीक्षितने तेनी क्रियानुं अनुक्रमे तुरत अने परंपराधी मोक्षरूप फल मले . ___ अहीं वादी शंका करे के, दीक्षितने पण जो संपदा मेलववानी श्या होय, तो तेने पण व्यअग्निकारिका करवी युक्त जे. तेने माटे हवे ते वादीने कहे जे. मोदाध्वसेवया चैताः, प्रायः शुजतरा नुवि ॥ जायंते ह्यनपायिन्य, श्यं सहास्त्रसंस्थितिः॥७॥ अर्थ-मोक्ष मार्गनी सेवाथी ते संपदा प्रायें करीने पृथ्वीमां वधारे शुन, तथा पापरहित थाय के अने एवी रीतनी स्थिति आगममां कहेली बे. टीकानो नावार्थ-सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन अने सम्यग् चारित्ररूपजे मोदमार्ग, तेनी सेवायें करीने, ते संपदार्ज वधारे शुन बे, पण ते अव्य अग्निकारिकानी कार्यनूत एवी ते संपदाउँ, पापहेतुयें करीने अशुल ने, अने तेथी मोक्ष मार्गनी सेवायें करीने अग्निकारिका करवाथी, उपर कहेली अग्निकारिकाना फलजूत एवी संपदा प्रायें करीने, तेना करवावालाई प्रते आ पृथ्वीमां वधारे शुलरूप थाय ने अहीं "प्रायें" कहेवानी मतलब ए के, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ श्री हरिप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । कोने मोक्षमार्गनी सेवावाला जवमांज ( अनारा ) मोदजावथी ते ( व्यरूपे) शुभतर नथी पण थती; वली तेवी रीते मोक्षमार्गनी सेवाथी ते संपदा पापवर्जित थाय बे; माटे या अग्निकारिका मोक्षमार्गनी सेवा शिवाय बीजी रीते करवी युक्त नथी. वादी शंका करे के, मोक्षमार्गनी सेवाथी ते वधारे शुभ थाय छे, एम शी रीते जाएयुं ? तेने माटे तेने कहे बे के, तेवी रीतनी उपर कहेली स्थिति श्रागममां कहेली बे; कां वे के, न मानमागमादन्यद्, मुमुक्षूणां हि विद्यते ॥ मोक्षमार्गे ततस्तत्र, यतितव्यं मनीषिभिः ॥ १ ॥ अर्थ- मुमुगम शिवाय बीजुं प्रमाण नथी; तेथी बुशिवानीए ते मोक्षमार्गमां यत्न करवो. हवे अन्यदर्शनीर्जना शास्त्रने आधारेज प्रव्यग्निकारिकानुं करवापएं दूर करता थका कहे बे. ईष्टापूर्त न मोहांगं, सकामस्योपवर्णितम् ॥ कामस्य पुनयक्ता, सैव न्याय्याग्निकारिका ॥८॥ अर्थ - (कुती ) " ईष्टापूर्त" ने मोहनुं अंग ( तमाराज शास्त्रमां ) करूं नयी, पण ते ( स्वर्गादिकनी ) जिलाबावालाने माटे कहेतुं बे; पण जेने ते स्वर्गादिकनी अभिलाषा नथी, तेने माटेतो, ते ( उपर वर्णवेली ) जाव अग्निकारिकाज करवी, न्यायवाली बे. टीकानो जावार्थ अंतर्वेद्यांतु यद्दत्तं ब्राह्मणानां समक्षतः ॥ ऋत्विग्भिर्मत्रसंस्कारै, रिष्टं तदभिधीयते ॥ १ ॥ अर्थ-वेदीनी अंदर, ब्राह्मणोनी समक्ष, मंत्रसंस्कारोथी पुरोहितोयें करी ने जे देवाय, ते " ईष्ट" कहेवाय. अने वापीकूपतडागादि, देवतायतनानि च ॥ अन्नप्रदानमारामाः, पूर्त्त तदभिधीयते ॥ २ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमाष्टक. ६ए अर्थ-वाव, कूवा, तलाव आदिक, तथा देवालयो, अन्नदान, अने बगीचा, ते “पूर्त" केहवाय जे. ___एवी रीतना उपर कहेला स्वरूपवावं “इष्टापूर्त" मोदनुं कारण नथीज, अने तेवी रीते व्यअग्निकारिका ईष्टकर्मरूप होवाथी मोदनुं अंग नथी; केम के वेदीमां आहूतीनी प्रधानताथी कर्मो कराय ने. हवे ते मोदनुं अंग शामाटे नथी ? ते कहे . हे कुतीथी ! सकाम केतां अच्युदयना अनिलापिने माटेज तमाराज शास्त्रमा ते वर्णवेलु जे. केम के तमाराज शास्त्रमा कह्यु बे के, “स्वर्गकामो यजेत्” ( स्वर्गनी श्वावालाए यज्ञ करवो ) एवं श्रुतिनुं वचन 33; एवी रीते तेने उत्तम मानता थका, तथा बीजाने श्रेय नहीं मानता थका, जे मूढ पुरुषो “ईष्टापूर्तने" वखाणे , ते पुण्यबंधनश्री देवलोकमां जश, पाग आ लोकमां अथवा तेथी पण हीन एवी गतिमां उपजे जे हवे त्यारे अकामने एटले निरिन्छ माणसने शुं करवू? ते कहे जे. स्वर्ग अने पुत्रादिकनी श्वा नहीं करता एवा मुमुकुने तो “कर्मेधनं" इत्यादि उपर कहेली नावअग्निकारिकाज करवी न्यायवाली अर्थात् श्रेष्ठ जे. एवी रीते चोथा अष्टकर्नु विवरण संपूर्ण आयु. पंचमाष्टकं प्रारज्यते. एवी रीते, तात्विक महादेवने लावस्नानपूर्वक नावपूजाथी पूजता, तथा धर्मध्यानरूप अग्निकारिका करवामां तत्पर एवा मुमुकुने अनारंजिपणुं होवाथी तथा निष्परिग्रहपणुं होवाथी, धर्मना आधारजूत एवी जे ( पोताना ) शरीरनी स्थिति, ते निदायीज थइ शके जे; माटे तेनुं (निदानुं ) स्वरूप निरूपण करवा माटे हवे कहे . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । सर्वसंपत्करी चैका, पौरुषघ्नी तथा परा ॥ वृत्ति निक्षा च तत्व, रिति निक्षा त्रिधोदिता ॥ १ ॥ अर्थ - पहेली "सर्वसंपत्करी" बीजी "पौरुषघ्नी” तथा त्रीजी "वृत्तिनिक्षा" एवी रीते तत्वना जाणनाराए ऋण प्रकारनी - दा कहेली बे. टीकानो जावार्थ - लोकसंबंधी, परलोकसंबंधी, तथा बेक मोक्षसुधिनी संपदा करवानो वे स्वभाव जेनो, तेने “ सर्वसंपत्करी” नामनी पेहेली एटले उत्तर जिदा जाणवी तथा पुरुषाकारने निष्फल करवायें करीने जे नाश करे, तेने "पौरुषघ्नी” नामनी बीजी एटले जघन्य निक्षा जाणवी तथा आजीविकामाटेनी जे निक्षा, तेने त्रीजी सामान्य शिक्षा जाणवी, एवी रीते परमार्थना जाणनाराए ऋण प्रकारनी निक्षा कहेली बे. go " ते मांथी पेहेली निक्षानुं स्वरूप हवे हे बे. यतिर्ध्यानादियुक्तो यो, गुर्वाज्ञायां व्यवस्थितः ॥ सदानारं जिणस्तस्य सर्वसंपत्करी मता ॥ २॥ अर्थ-मुनि ध्यानादिकमां जोडाएलो बे, तथा जे गुरुनी आशामा रहेलो बे, तथा हमेशां आरंज विनाना एवा ते यतिने " सर्वसंपत्करी" नामनी पेहेली निक्षा मानेली बे. टीकानो जावार्थ- जे साधु थलो होय, तेने "सर्व संपत्करी” नामनी पेहेली जिक्षा कहेली बे; आ वचनथी गृहस्थीने जुदो पाड्यो. वली “यति” शब्द कहेवाथी तो ऽव्ययति पण वी जाय, माटे तेने जुदो पाडवा माटे कहे बे के, जे यति ध्यानादिकमां जोडाएलो होय, ते यतिने ते पेहेली जिक्षा कहेली े, ध्यान एटले सेंकडो नवमां उपार्जन करेलां कर्मोरूपी वनने बावामां समर्थ एवा अंतरंग तपनी क्रियारूप धर्मध्यान ने शुक्लध्यान जाणवु, अने आदि शब्दथी सघली परलोकसंबंधी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमाष्टक. क्रियाउने प्रकाश करवामां दीपक सरखा एवा ज्ञानने पण ग्रहण करवं; अर्थात् तेवा प्रकारना ध्यान अने झाने करीने युक्त एवो यति, ते पेहेली जिदाने लायक जे. वली या विशेषणथी केवल क्रिया करनारने, तथा क्रिया विनाना केवल ज्ञान धरावनारने पण, तेवा यतिथी जुदा पाड्या. कडं बे के, हयं नाणं कियाहिणं, हया अन्नाणउ किया । पासंतो पंगुलो दह्रो, धावमाणोय अंधउ ॥ १ ॥ अर्थ-क्रियाविनानुं ज्ञान नष्ट बे, अने ज्ञान विनानी क्रिया नष्ट ने, केम के, पांगलो माणस आसपास जोतोज बेशी रहे ने, अने आंधलो माणस तेवीज रीते दोड्या करे ; (अर्थात् ) ते बन्ने पोताना उचित स्थानके पहोंचता नथी. माटे एवी रीते ज्यारे क्रिया अने ज्ञान बन्ने साथे मले बे, त्यारेज कार्यसिद्धि थाय ने, माटे ते बन्ने- उपादेयपणुं कडं. कहुं ने के, संजोगसिडियफलं वयंति, नहु एगचक्कण रहोपयाइ अंधोयपंगुयवणे समिच्चा,ते संपउत्ता नयरं पविठ्ठा॥१॥ अर्थ-संयोगथी इजित फल श्राय ; केमके, एक चक्रथी कई रथ चालतो नथी; वली वनमा रहेलो आंधलो अने पांगलो, बन्ने ज्यारे एकग थया, त्यारे तेठ नगरमां पहोंच्या. एवी रीतनो ध्यान अने ज्ञानमां जोडायेलो गमे ते कोइ यति(अहीं)जाणवो. हवे एवी रीतना विशेषणथी, उपर वर्णावेलांउत्तम झान विनाना एवा जे “माषतुषादिकचारित्रि” तेउने “सर्वसंपकरी" निदानो प्रतिषेध न आवे, तेने माटे कहे जे के, जे मुनि गुणोवाला एवा आचार्यनी आशामा रहेलो, तेने पण “सर्वसंपत्करी" लिदा जाणवी; केमके, ते गुरुना ज्ञानश्रीज ज्ञानवान ने, केमके ज्ञानना फलनी तेने सिद्धि थाय . कडं ने के, योनिरनुबंधदोषात, श्राद्धोनाभोगवान् वृजिनभीरुः ॥ गुरुभक्तो गृहरहितः, सोऽपि ज्ञातैव तत्फलतः ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्रीहरि प्रसूरिकृतान्यष्टकानि । अर्थ- स्पष्ट बे. अथवा विशेषणाथी गुरुकुलमां वसतां श्रकां, बहुसाधुपपाथी जरा नेषणीय ( न कटुपे एवा ) जोजन आदिकना ग्रहण करवाथी उत्पन्न थता दोषना प्रगट श्रवाथी, जे गुरुनी अपेक्षा राखतो नथी, तेवा साधुने जुदो पाड्यो; वली सद्गुरुना उपदेशनी अपेक्षा नहीं राखनारा शास्त्रने निंदे बे. वली " व्यवस्थित " शब्दें करीने जे मुनि कोइ वखते गुरुनी श्राज्ञामां रहतो होय, अनेको वखते तेथी उलटो वर्ततो होय, तेने पण जुदो पाड्यो. हवे हीं वादी शंका करे के, जिनकल्पिठे, तथा प्रतिमाकस्पर्ट आदिक, के जेट गनुथी निकली गएला बे, एवा गुरुनी आज्ञा विनाना मुनिर्जने ते “ सर्वसंपत्करी निक्षापणं” शी ते घट शके ? तेने माटे हवे कहे बे के, ते कटपज गुरुनी आज्ञारूप बे. " एवा तथा सर्वदा पृथ्वी काय आदिकनी हिंसाने तजनारा एवा यतिने ते " सर्वसंपत्करी ” नामनी पेहेली निदा उचित बे. या विशेषणाथी पृथ्वीकाय आदिकनी दया नहीं पालनार यतिने जुदो पाड्यो; केमके तेना ध्यानादिक योगनुं पण निष्फलपणुं बेः केमके, सिद्धांतमां पण कां बे के, “जोके सम्यग्दृष्टिवालो होय, पण जो अविरति होय, तो तेने तप महागुणवालो तो नथी." वली अहीं "सदा" शब्द ग्रहण करवाथी, करेली एवी सामायिक तथा पौषधपणाथी कोइ वखते रंजविनानो, एवो जे देशयति, तेने जुदो पाड्यो; केमके तेवा देशय तिने आगमां कि तरीके गएयो नथी. वादी शंका करे के, गीयारमी प्रतिमाने प्राप्त थलो एवो जे श्रमणोपासक ( जैनगृहस्थ ) तेने तेनां नारं जिपणामाटे ते प्रतिमाना समयनी अवधि होवाथी, तेने पहेली जिक्षा तो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमाष्टक. संजवे नहीं; तेम ते शिवायनी बीजी निक्षा पण तेने संनवे नहीं; केम के तेवी रीतनी जिदाना अधिकारपणानो तेने अयोग, माटे तेनी लिदा ते कश् कहेवी ? तेने माटे ते वादीने हवे कहे के, तेवा प्रतिमाधर श्रावकने श्रमणरूप (साधु सरखो) कहेलो होवाथी, अने तेनी निदाने पण साधुनी निदानुं तुट्यपणुं होवाथी अने ते अवस्थामां तेवी निदा सर्वज्ञ प्रजुए कहेली होवाथी, तेनी निदाने पण सर्वसंपत्करीनुं तुट्यपणुं जाणवू; केमके यथार्थ कहेनारा एवा आप्त पुरुषो, पोताना आप्तपणाने थती हानीना प्रसंगथी सर्वसंपत्तिने नहीं करनार, अथवा तेना कारणरूप नहीं, एवी वस्तुनो विधेयपणाथी उपदेश देता नथी; अहीं “ध्यानादियुक्त” कहेवाथी “आदि" शब्दथी “सदाअनारंजिपणुं" पण अंदरज आवी जतुं हतुं, तोपण नेदें करीने तेनुं उपादान हेतुपणामाटे जे; अने तेथी, ते सदाअनारंजिपणाथी, उपर कहेसी “सर्वसंपत्करी" लिदा, तत्वना जाणनाराउने माननीक बे. वली सदा अनारंजी एवा साधुनी वृत्ति निदाथीज थाय बे; अने ते शिवायनी आजीविकाथी तो आरंजीपणानो ते साधुने प्रसंग आवे; अने तेथी अनारंजीपणाथी “ सर्वसंपत्करी" निक्षा अति वखाणवा लायक जे. कडं ने के, अहो जिणेहिं सावजा, वित्ति साहु ण देसिया मोख्खसाहणहेउस्स, साहुदेहस्स धारणा ॥१॥ अर्थ-अहो ! जिनेश्वर प्रनुए, सारं कर्यु ने के, साधु माटे, मोदसाधनना हेतुजूत एवा तेऊनां शरीरना आधारमाटे, सावद्य निदा कहेली नथी. वली ते यति केवो? ते कहे . वृद्धाद्यर्थमसंगस्य, चमरोपमयाटतः ॥ गृहिदेहोपकाराय, विहितेति शुजाशयात् ॥३॥ अर्थ-शुल आशयथी, वृक्ष आदिक माटे, जमरानी पेठे ज १० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । मता, तथा ( इंजिना) विषयोनो संग नहीं करनारा, एवा मुनिनी ( सर्वसंपत्करी नामनी) निक्षा, गृहस्थीना तथा तेना शरीरना उपकार माटे कहेली े. टीकानो जावार्थ- जमता एवा यतिनी “सर्वसंपत्करी " निहा बे. हवे ते यति शामाटे जमतो ? ते कहे बे. वृद्ध केतां वयथी, चारित्रथी, ज्ञानथी स्थविर ( तथा यदि शब्दयी बालक, रोगी, शिष्य, परोणा आदिकनुं पण ग्रहण करकुं; ) तेने माटे; करीने पोतानुंज पेट नरवामां तत्पर अंतःकरणवाला - पाक आदिको व्यवच्छेद कह्यो; वली वृद्ध श्रादिकनुं वैयावछ, सघला कल्याणरूपी वेलडीउना मूल सरखुं छे. कां बे के, वेयावचं कारह, संजमगुणेधरंताणं ॥ सव्र्वकिरि पडिवाई, वेयावच्चं अपडिवाई ॥ १ ॥ - संयम गुणने धरनारार्जुनी वेयावच्च करो ? सघली क्रिया (कदाच ) निरर्थक जाय बे, पण वैयावञ्च निरर्थक जती नथी. माटे ते वैयावनी अपेक्षा नहीं राखनार साधुने, “सर्वसंपत्करी" चिहानुं जागी पणुं शी रीते यावी शके ? वली ते यति केवो ? तोके, संग केतां शब्दादिक ( इंडि ना) विषयोनो संग नहीं करनारो; अथवा वृद्ध अथवा रोगी माटे मतां थकां तेज॑ना उद्देशथी मलेलां मनोहर दाल, जात, कूर, श्रादिक जोजनमां "असंग ” केतां लालसा नहीं राखनारो; अने तेथी उलटी रीते चालनार साधुने उपर वर्णवेला अलुब्ध साधुश्री दो पाड्यो. वली ते यति केवो? तोके, जमराना दृष्टांतथी जमतो; - र्थात् जेम नमरो केटलाक मकरंदना कणोने लेइने, तथा तेथी पुष्पने पण पीडा नहीं उपजावीने, पोताना आत्माने प्रसन्न करे बे, तेम मुनिरूपी जमराठे पण थोडां थोडां न्नरूपी मकरंदने प्रद करता था, तथा तेथी गृहस्थी रूपी पुष्पने पीडा नहीं उप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमाष्टक. जावीने, पोताना आत्मानुं रक्षण करे जे; एवी रीतनो यति जाणवो; आथी करीने एकज घेर जइ, जे लोजन करे , तेवा साधुने दूर कर्यो; ( यति, एकज घरे नोजन करवामां कोश्क रीते थता दोषने त्याग करवामां कदाच समर्थ होय, तोपण “पुरःकर्म; पश्चात्कर्म" रूपी असंयतिनी चेष्टाथी श्रता दोषनो तेने प्रसंग आवे.) एवी रीते नमरानी पेठे निक्षा लेवालायक कुलोमां जमतो मुनि जाणवो. "नमतो" एम कहेवाश्री जे यति जिदा माटे जमतो नथी, तेने दूर कर्यो; केमके, जम्याविना निक्षा ग्रहण करवाथी “अन्याहत" नामनो दोष यतिने लागे बे. अहीं वादी शंका करे के, जे गृहस्थो ज्यारे साधुउने वंदना करवा आवे , ते ते वखते तेउँने माटे (साधुउने माटे)जोजननी वस्तु जो लावे, तो ते “ अन्याहत" दोष न लागे; केमके, वंदना माटे श्राववामां गृहस्थोने प्रयोजनपणुं बे; अने साधु माटे ते वखते लोजन लावq, ते तो प्रासंगीक वे. हवे तेने माटे ते वादीने कहे जे के, एम नहीं; केमके, जोके, तेमां " अन्याहत" दोष श्रावतो नथी, तो पण “मालापहृत, निदिप्त, पिहित, " श्रादिक अनेक प्रकारना दोषोनो प्रसंग श्रावे. त्यारे वली वादी शंका करे के,ते लावनार गृहस्थना वचनना प्रमाणिकपणाथी तेने पूजवाथी ते दोषनो परिहार थशे; (माटे ते गृहस्थे लावेलुं लोजन साधु ले, तो तेमांशुं हरकत ?) त्यारे वली ते वादीने कहे ने के, ते सघटुं सत्य के, पण “गृहस्थहस्तस्थापित" आदिक दोष तेथी पण टली शके तेम नथी; (माटे गृहस्थे त्यां लावेलुं लोजन साधुने खेवू लायक नथी.) हवे ते यति केवा अभिप्रायथी जमे? ते कहे . गृहस्थोना उपकार माटे, तथा पोताना शरीरना उपकार माटे ते यति जमे. (आरंज अने परिग्रहना आग्रहथी ग्रहित थएल, आत्मा जेऊनो, तथा मुर्गतिमा जवाना कारणरूप एवां कर्मोनो बे, बंध जेने, एवा ग्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । हस्थीउने, धर्मने साधनार एवीजे पोतानी (मुनिनी) काया, तेना उपकारने करनार एवो जे आहार, तेना ग्रहण करवायें करीने, श्रदयसुखनां फलरूप जे मोदरूपी वृद, तेना बीज समान, एवी पुण्यनी प्राप्तीथी, ते यति उपकार करे ,) अने, आहारविना शुद्ध धर्मरूपी मेहेलना शिखरपर बेसवाने असमर्थ, एवा पोता'ना देहने आहाररूपी आलंबन देवाथी, तेनो ( पोताना देहनो) पण उपकार करे . आम कहेवाथी गृहस्थीने अप्रीति जपजावीने आहारनी लोलताश्री, धर्मने नुकशानकारक आहार ग्रहण करीने, जे यति, धर्मना कार्यनो उलटो अपकार करे , तेना ( यतिपणानो ) निषेध कर्यो. तथा धनवानना पुत्रादिकपणाश्री जे मुनि दीनताथी शरमातो को निदा माटे नमे बे, तेना निषेधने माटे हवे कहे जे. “ विहिता" केतां यतिनी अवस्थाने उचित एवी आ लिदा, तीर्थकरोए पण आचरेली तथा उपदेशेली; एवी रीतनी निदा उत्तम अध्यवसायथी जमता एवा यतिने थाय ने, अथवा “ विहिता” एटले गृहस्थी अने देहना उपकार माटे जिनेश्वर प्रनुए कहेली . उपर कहेली रीतथी उलटी रीते करेली निदा, “पौरुषत्री" थाय ने तेनुं स्वरूप प्रतिपादन करवा माटे हवे कहे जे. प्रव्रज्यां प्रतिपन्नो य, स्तहिरोधेन वर्तते ॥ असदारंनिणस्तस्य, पौरुषनीति कीर्तिता ॥५॥ अर्थ-जे मुनि दीक्षा लेने पण, तेश्री विरुष्ध रीतें करीने वर्ते बे, एवा असदारंजी मुनिनी निदाने “ पौरुषत्री” कहेली ने. __टीकानो लावार्थ-सर्व वीरतिरूप एवी दीक्षा लेने पण जे यति, तेनाथी विरुष्ठ रीते, एटले मूलगुण अने उत्तरगुणने विराधीने, अथवा पूर्वे कहेला ध्यान, ज्ञान, अने गुरुनी आज्ञानी अपेक्षा नहीं राखीने, वर्ते , तथा असदारंजी एटले (पृथ्वी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gg पंचमाष्टक. कायादिक) प्राणीउनी हिंसादिकमां प्रवर्ते जे; तेनी निक्षाने "पौरुषत्री" लिदा कहेली . अहीं वादी शंका करे के, प्रबजाना विराधकपणाधीज "श्रसदारंजिपणुं" तो जणाएलुं हतुं, तो ते यतिनुं “ असदारंजिपणुं" जुडं करीने शामाटे कडं? तेने माटे तेने कहे जे के, ते सत्य बे, पण ते निदाना हेतुपणाथी ते कहेढुंबे, माटे निर्दोष जे; अर्थात् जेथी ते " असदारंजी”, तेथीज तेनी निदाने “पौरुषत्री" कहेलीजे; एवो वाक्यनो अर्थ थाय; अथवा प्रव्रज्याथी विरुधरीते वर्तनार, एवा ते यतिनी,अशोलन आरंजना ग्रहण करवाथी, जे लिहा, ते “पौरुषघ्नी” , एवो पण अर्थ करवो अथवा, "असदा” एटखे हमेशां आरंज नहीं करतो अर्थात् अष्टमी श्रादिक तिथिने दिवसे आरंज नहीं करतो एवो ते यति; एवो पण अर्थ करवो. प्रव्रज्याथी विरुध रीते वर्तनार, सामान्य प्राणीप्रते पौरुषत्री निहाथी हवे अन्वर्थघटना कहे . धर्मलाघवकृन्मूढो, निक्षयोदरपूरणम् ॥ करोति दैन्यात्पीनांगः, पौरुषं नंति केवलम् ॥५॥ अर्थ-धर्मनी लघुता करनार मूढ ( यति) दीनताथी निदाए करीने उदरपूरणा करे , अने तेथी केवल ते पोताना पुरुषातनने हणे . टीकानो नावार्थ-श्रुत, तथा चारित्ररूप धर्मनी लघुता करवानो ने स्वन्नाव जेनो एवो मूढ यति, उपर कहेला वृक्षादिक माटेना जे अटनविशेषणो, तेउने, (पोते ) कुशास्त्रनी श्रधाथी वासित भएको होवाथी आश्रय करतो नथी; एवो ते यति निक्षाएं करीने दीन वृत्तिश्री उदरपूरणा करे जे; (जो के तवो यति मनथी नखत ने, तो पण अनुचित निदाथी परमार्थथी तो ते दीनज ; केम के, ते विधानोने अप्रशंसनीक के.) वली ते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री हरिप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । यति केवो तो के, "पीनांगः " केतां रोग आदिकनी पीडा नहीं होवाथी पुष्ट शरीरवालो; ( श्रथी करीने एम कह्युं बे के, रोग श्रादिकथी पीडित बे शरीर जेनुं, एवो कोइ यति ( तेवी रीतनी ) निक्षाथी शरीरनुं पोषण करतो थको पण पौरुषनो नाश करतो नथी; केम के, तेनुं पौरुष तो रोगादिकथीज हणालं हतुं . ) एवो ते यति तेम करवाथी केवल पोताना पुरुषार्थनो नाश करे बे, पण तेथी पोताना कई पण पुरुषार्थने पुष्ट करतो नथी; केम के, ते सदारंजी होवाथी तेने धर्मपुरुषार्थ; के मोहपुरुषार्थ होता नथी; तेम ते (तेवी रीतनो) निदानोजी होवाथी, तेने अर्थपुरुषार्थ, के कामपुरुषार्थ पण होता नथी; ( कारण के, निक्षुक (कदाच अर्थ काम मले, तो पण ते उत्तम माणसोने प्रशंसवा लायक नथी.) माटे एवी रीतनी निक्षाश्री जे मुनि पोताना पुरुषार्थनी नाश करे बे, तेनी निक्षा "पौरुषघ्नी " कहेवाय बे. हवे त्रीजी निक्षानुं स्वरूप कहे बे. निःखांधपंगवो ये तु न शक्ता वै क्रियांतरे ॥ निक्षामटं तिवृत्त्यर्थं वृत्तिनियमुच्यते ॥ ६ ॥ अर्थ-निर्धन, आंधला, तथा पांगला, के जेउं बीजी क्रिया करवाने समर्थ बे, ते आजीविकामाटे, जिक्षा सारं जे जमे बे, तेनी ते जिक्षा " वृत्तिनिदा " कहेवाय बे. " " टीकानो नावार्थ - निर्धन, अांधला, तथा चालवानी शक्तिविनाना एवा पांगला माणसो, के जेठ निक्षाशिवाय, खेती वेपार किन क्रिया करवाने असमर्थ बे, ते जे जी कामाटे जमे बे, तेनी ते निक्षाने "वृत्तिनिदा" कहेली बे. (ने जे बीजी क्रिया करवाने समर्थ बे. तेर्जनी तो " पौरुषघ्नी ” नामनी जिदा बे.) हवे ते तेवी निक्षामाटे शामाटे जमे बे ? ते कहे बे. ते पोतानी जीविकामाटे जमे बे; अने तेवी जिदा " वृत्तिनिक्षा' कवाय बे. ."" 96 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमाष्टक. हवे तेवी निक्षा उचित बे के, अनुचित बे ? तेवी आशंका माटे कहे बे. नाति दुष्टापि चामीषा, मेषा स्यान्न ह्यमी तथा ॥ अनुकंपा निमित्तत्वाद्, धर्मलाघवकारिणः ॥ ७ ॥ << - तेवी रीतनी वृत्तिनिक्षा, तेवा निर्धनादिकोने माटे कुष्ट पण नथी; केम के, तेमां अनुकंपानुं निमित होवाथी, तेज पौरुषघ्नी निक्षावालानी ” पेठे धर्मनी लघुता करनारा नथी. टी कानोजावार्थ- जिक्षा, तेवा भिक्षुको माटे “पौरुषघ्नीनी” पेठे अत्यंत दोषवाली नथी; तेम " सर्वसंपत्करीनी " पेठे अति प्रशंसवालायक पण नथी; अने तेवी निक्षा निर्धन, श्रांधला आदिकोने होय; " पौरुषघ्नी " जिक्षा करनारा धर्मनी लघुता करनारा बे, तेम ते निर्धनादिको धर्मनी लघुता करनारा नथी. तेशी रीते? ते कडे बे के, ते पोतामाटे लोकोनी करुणाना कारणरूप थर पडे बे; अने तेथी धर्मनी लघुताना हेतुरूप तेd थइ पडता नथी; माटे धर्मनी लघुता करनारा साधुर्जनी जिकामां जेवो दोष बे, तेवो तेर्जनी निकामां दोष नथी; वली वी रीतना हेतुदृष्टांतथी ते निर्धनादिकोने “ सर्वसंपत्करी " जिक्षा प्राप्त थाय बे, एम पण नहीं कहेवुं; केम के, ते जिक्षा तो शुद्ध यतिनेज प्राप्त थाय बे. श्रीं निक्षुकोनी निक्षानुं फल यथार्थ एवा तेउनां नामोए करीने क; हवे ते निक्षा देनारना फलना निरूपणमाटे कहे बे. दातृणामपि चैतान्यः फलं क्षेत्रानुसारतः ॥ विज्ञेयमाशयाद्वापि स विशुद्धः फलप्रदः ॥ ८ ॥ अर्थ-उपर कहेली निहाउंथी; तेना देनारोने पण पात्र छापानी अपेक्षाथी, श्रथवा श्रशयनी अपेक्षाथी फल जाए; केम के शुद्ध आशय ( स्वर्गादिक) फलने देनारो बे. टीकानो जावार्थ - केवल जिक्षा लेनारनेज सर्वसंपत्करणादिक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ श्रीहरितप्रसूरिकृतान्यष्टकानि। फल मले, तेम नहीं, पण ते लिदा देनारने पण शुभकर्मबंधादिक फल श्राय . ते फल केवी रीते थाय ? ते कहे . धान्यादिकथी ववाएली नूमीनी पेठे तेनुं फल आय जे; अर्थात् पात्रापात्रनी अपेक्षाए फल थाय . कडं ने के, "गुणवते पात्राय दीयमानं महाफलं ” केतां गुणवान पात्रप्रते देवाती वस्तु महाफलरूप आय . क्ली कडं ने के, । (गौतमस्वामीए नगवानने पूज्यु के, हे जगवन्! जे साधुए पापकर्मोनो नाश कर्यो , अथवा तेनां पच्चखाण कर्या ने तेवा साधुने प्रासुक अने एषणीय आहार आप्याथी शुं फल थाय ! त्यारे लगवाने कडं के, हे गौतम! तेश्री एकांत निर्जरा थाय; श्रने तेश्री अटप पण कर्मबंध पडे नहीं.) तथा अल्पगुणवालाने देवाथी मातुं फल पाय . कर्वा ने के, गौतमस्वामीए जगवानने पुग्घु के हे जगवन्!जे साधुए पापकोने तज्यां नथी, अथवा पचख्यां नथी, तेवा साधुने प्रासुक अने एषणीय आहार आपवाथी शुं फल प्राय ? त्यारे लगवाने कर्वा के, हे गौतम! तेथी एकांते पापकर्म बांधे,अल्प पण निर्जराथाय नहीं.) अने अंध श्रादिकने जे दान शापवं, ते तो अनुकंपारूप उत्तम लावपूर्वक होवाथी, ( तेर्ड जोके निर्गुणी बे, तो पण) तेथी किंचित् शुल फल मले , एम आगममां कहेलुं . अथवा देत्रानुसारथी दानफलनी व्यवस्था व्यवहार नयनी अपेक्षाए कहेली ने हवे निश्चय नयनी अपेदाथी कहे , श्राशयथी एटले अध्यवसायथी ते शुन विगेरे फलवाली में केमके, अध्यवसाय में ते, शुनाशुन फलोर्नु मुख्य कारण ने. कर्दा ने के,एकज प्राणीनी हिंसाना फलमां अध्यवसायना क्शथी मोटुं अंतर कहेलुं ने अने तेवीज रीते अध्यक्सायना वशथी निर्जरानुं फल पाण घणा प्रकारचें कहेढुंचे. एची रीते गर्व, मत्सर श्रादिकना परिणामश्री, गुणवान पात्रने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमाष्टक. १ श्रापे, तोपण तेने तेथी शुन फल मलतुं नथी; अने दया, तथा शासननी निंदाना रक्षण आदिक परिणामथी कदाच अवगुणीने दान आप्युं होय, तो पण ते शुन फलने देनारंबे. एवी रीतनो शुन्न आशय, अर्थात् नियाणा आदिक सघला कलंके करीने रहित एवो आशय स्वर्गादिक फलने साधनारो थाय ने केमके ते स्वर्गादिक साधवामां "अंतरंगपरिणाम" कारण रूप बे. अही वादी शंका करे के, आगममां, दीदाने तजेला सिद्धपुत्रसरखा लक्षणवाला निकु संजताय जे; अने ते वात व्यवहारचूर्णिमां कहेली बे. माटे तेवा निलुजने का निदा कहेवी ? के मके, तेउँने अयतिपणुं होवाथी “ सर्वसंपत्करी" निदा तो घटी शके नहीं; वली तेठए दीक्षा तजेली होवाथी तेने प्रव्रज्याश्री विरुद्ध वर्तवापणानो अनाव होवाथी, " पौरुषनी" निक्षा पण घटी शके नहीं; तेम तेढ़ बीजी क्रिया करवाने समर्थ होवाथी तेउने “ वृत्तिनिक्षा" पण घटे नहीं; अने ते त्रण शिवाय बीजी निदा तो कहेली नथी. हवे तेने माटे ते वादीने कहे जे के, तेजने “वृत्तिनिक्षा" घटी शके, एवं अमो धारीये गये; केमके, तेढ निर्धन होय , तथा क्रियांतर करवाने पण असमर्थ होय बे; केमके, जेणे दीदा लेख्ने तजी दीधी बे, ते बीजी क्रिया करवाने असमर्थ जे. अथवा तेउने “ पौरुषघ्नी” निक्षा पण घटी शके; केमके ते निदा प्रव्रज्यावालानेज होय, तेम नथी; पण बीजी क्रिया करवाने समर्थ एवा असदारंनिने पण ते घटी शके जे; केमके तेउनी किया पुरुषातनने हणवाना लक्षणवाली बे, अथवा अत्यंत पापथी बीता, अने संवेगनांअतिशयवाला, तथा फरीने दीदाप्रते लागेलु ने मन जेउनु; एवा तेउने “सर्वसंपत्करी” निदाना बीजसरखी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहरिलजसूरिकृतान्यष्टकानि । नीहा पण घटी शके, एवं लागे जे पनी तेमां खरेखलं शुंने ? ते तो केवली महाराज जाणे. एवी रीते पांचमा अष्टकनुं विवरण संपूर्ण श्रयुं. षष्टाष्टकं प्रारज्यते एवी रीते उपर, अधिकारीनी अपेक्षाए निदाउनुं निरूपण कर्युः हवे तेउँमा “सर्वसंपत्करी" लिदा श्रेष्ट बे, माटे हवे तेनुं स्वरूप कहे . अकृतोऽकारितश्चान्य, रसंकल्पित एव च ॥ यतेःपिंडःसमाख्यातो, विशुझः शुद्धिकारकः॥१॥ अर्थ-नहीं करेलो, बीजापासे नहीं करावेलो, तथा संकटपविनानोज, शुद्ध पिंड मुनिने शुद्धि करनारो कह्यो बे. टीकानो नावार्थ-"अकृत" एटले पोते नहीं खरीदेलो, नहीं हणेलो, तथा नहीं पकावेलो, तथा तेवीज रीते पोते नहींकरावेलो; तथा वेचाथी लेवा आदिकें करीने चाकर आदिकोथी "हुँ आ साधुप्रते देश" एवी रीते नहीं संकटपाएलो, एवोज आहार साधुने कटपे. कडं ने के, पिंडं असोहयंतो, अचरित्तीएत्थ संसउ नत्थी॥ चरितंमि असंते, सव्वा दिख्खानिरत्थिया ॥१॥ अर्थ-पिंडशुधि नहीं करतो एवो यति, अचारित्रीज ने ते वातमा संशय नथी; अने एवी रीते ज्यारे चारित्र गयु, त्यारे सघली दीक्षा निरर्थकज . ___“अकृतादि" पदोयें करीने करवू, कराव, अने कर्ताप्रते अनुमोदq, ते; तथा हणवं, हणाव, अने हणताप्रते अनुमोदq ते; तथा पकाववू, पकावावq अने पकावताप्रते अनुमोदना करवी; एवी रीतनी नवकोटीयें करीने पिंडनी शुद्धता कही. एवी रीतनो नात आदिकनो पिंक (अने उपलदणथी श Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टाष्टक. ३ य्या अने बीजां उपकरणो) गएला एवा जे रागादिक दोषो, तेथी उत्पन्न भएला, सघली वस्तुऊना समूहने प्रकाश करनारा ज्ञाने करीने, तीर्थकरोए, मोदनगरप्रते जवाने अति उत्तम मार्गरूप चरण-करणनी शुधिना हेतुपणायें करीने, पृथ्वीकायादिकनी रक्षामां तत्पर एवा मुनि माटे ठीक कहेलो के तेमां तेने अंतराय दोष नथी. हवे ते पिंड केवो? ते कहे जे के, “ विशुधः” केतां सघला दोषोयें करीने रहित; तथा तेथी करीने ते पिंड “विशुधिकारक" केतां कर्मरूपी मेलना कलंकने दूर करनारो बे. अथवा ते " अकृतादिक” दोष विनानो पिंड साधुने शामाटे कह्यो ? ते कहे बे के, “विशुद्ध, केतां “कृतादि" दोषविनानोज जे पिंड , तेज शुद्धि करनारो ने, बीजो पिंड तेम नथी. पिंडने माटे " असंकल्पित” एवं जे विशेषण कह्यु, तेनो परमतें करीने असंजव देखाडता थका हवे कहे जे. (अहींथी सघलुं वादीनुं कहेवू . ) यो न संकल्पितः पूर्व, देयबुद्ध्या कथं नुतम् ॥ ददाति कश्चिदेवं च, स विशुको वृथोदितम् ॥२॥ अर्थ-जे पिंड पेहेलेथीज “मारे आ मुनिप्रते देवो " एवी बुद्धिथी संकल्पित भएलो नश्री; तेवा पिंडने कोइ पण दातार शी रीते आपी शके? (अर्थात् आपी शके नहीं.) माटे तेवा "असंकल्पित" पिंडने जे शुद्ध कह्यो, ते वृथा कहेलुं बे." टीकानो भावार्थ-जे पिंड, दानना वखत पेहेला “ मारे आ निकुकप्रते आपवो " एवी बुद्धिथी संकटपाएलो नथी; तेवी जातना पिंडने शुं कोइ पण दातार दश् शके ? अर्थात् दश् शकतो नथी; केमके दानने माटे नहीं संकटिपत करेलो पिंड देवामां अशक्यपणुं अने एवी रीते असंकल्पित पिंड देवानोज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहरिलजसूरिकृतान्यष्टकानि । ज्यारे असंलव अयो, त्यारे ते असंकल्पित पिंड शुधने, एम जे पेहेलां कडं ते व्यर्थ बे; वली तेवा असंकल्पित पिंड माटे बीजु दूषण कहे जे. न चैवं सजवस्थानां, जिदा ग्राह्या गृहेषु यत् ॥ खपरार्थं तु ते यत्नं, कुर्वते नान्यथा क्वचित् ॥३॥ अर्थ- वली एवीज रीते सद्गृहस्थोने (पैसादारोने) घेरथी ( मुनिए ) निदा ग्रहण करवी नहीं; केमके, ते पोताने माटे तथा परने माटे (निलुकादिकोने माटे ) पण यत्न करे बे, बीजी कोइ रीते, कोइ पण वखते (यत्न) करता नथी. ___टीकानो लावार्थ- केवल " असंकहिपत" पिंडना असंजवश्रीज तेनो अंगीकार नहीं करवो तेटलुंज नहीं; पण पैसादारोने घेरेथी ( मुनिए ) निदा पण लेवी घटे नहीं; एवो वाक्यार्थ जे; केमके, तेवा पैसादार गृहस्थो पोताने अने परने माटे पण रसोई निपजावे के केमके ते जोफक्त पोताने माटे लोजन तैयार करावे, तो पोताना गृहस्थपणाने लांउन लागे. कडं ने के, देव, पितृ, अतिथि, तथा चाकर आदिकनु पोषण कर्याबाद जोजन करवू एवो गृहस्थनो धर्म ने. अने मुनि पण अतिथिमा आवी जाय डे केमके, ते जोजन वखते निदा माटे आवे बे. हजु पण वादीज आचार्यना मतमा शंका करतो थको कहे . संकल्पनं विशेषेण, यत्रासौ पुष्ट इत्यपि ॥ परिहारो न सम्यक् स्या, द्यावदर्थिकवादिनः॥४॥ अर्थ-जेमां विशेषे करीने संकल्प होय, ते इष्ट पिंड कहेवाय, अने तेश्री “ यावदर्थिक पिंडना" वादिनो परिहार सारी रीते अश् शकतो नश्री. टीकानो लावार्थ-" मारे आ अमुक साधु प्रते देवू " एवी रीतनो विशेषे करीने असाधारण प्रकारनो जेमां संकटप होय, ते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठाष्टक. पिंड दूषणवालो कहेवाय, पण बीजो दूषणवालो कहेवाय नहीं. वली आ जपर कहेलो पण केवल असंकल्पित पिंडनो अन्युपगम उत्तम नथी; एवो “ अपि" शब्दनो अर्थ बे. वली तेथी " यावदर्थिक" पिंडना परिहारना वादी एवा जे तमो, तेनो तमोए (पोतेज ) कहेला दूषणनो परिहार ( त्याग) सारी रीते थश् शकतो नथी. ( यावदर्थिक पिंड एटले, अमुक परिमाणवाला जे निकुर्ड, ते जे प्रयोजनरूप जे पिंड बनाववामां, तेवा पिंडने “ यावदर्थिक पिंड” कहीए.) कां ने के, “अशन, पान, खादिम, अने स्वादिम, ए चार प्रकारमांनुं जे कंई दानने अर्थे निपजावेलुं ने, एवं जो कई जाणवामां के, सांजलवामां आवे, तेवा जातपाणी आदिक संयमधारीने कटपे नहीं; अने कदाच लेवार जाय, तो पण "आ मने कटपे नहीं;" एम जाणीने परग्वी देवां.” हजु पण पूर्वपदनो वादीज कहे जे. विषयो वास्य वक्तव्यः, पुण्यार्थप्रकृतस्य च ॥ असंजवानिधानात्स्या, दाप्तस्यानाप्ततान्यथा॥५॥ अर्थ-(वादी कहे के, ) यावदर्थिक पिंडनो, तथा पुण्यमाटे करेला पिंडनो विषय कहेवो पडशे, अने जो एम नहीं कहो तो असंलवित वात कहेवाथी आप्तने अनाप्तता प्राप्त थशे. टीकानो लावार्थ-यावदर्थिक पिंडना परिहारने कहेवावाला, एवा तमोए, आगल कहेला पिंडना परिहारनुं खोटापणुं अंगीकार करवु पडशे; अने जो एम अंगीकार नहीं करो तो “ याववदर्थिक पिंडनो” विषय कहवो पडशे. कोइ अमुक निकुकने आश्रिने आ बनावेलो , माटे ते परिहरवालायक , एवी रीतना विषयांतरनी कट्पनाश्रीज ते परिहरवाने शक्य , पण बीजी रीते नथी; एवो लावार्थ बे. वली केवल यावदर्थिकपिंडनो विषय कहवो पडशे, एटटुंज नहीं, पण पुण्य अर्थे बनावेला पिंडनो पण विषय कहवो पडशे; केम के पुण्यने माटे तै Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । यार करेला एवा ते पिंडनो त्याग तमोए मानेलो के केम के, कडं ने के, “अशन, पान, खादिम, अने स्वादिम, पुण्यने अर्थे जो बनाव्या होय, अने तेवू जो जाणवामां, के सांजलवामां आवे, तो ते त्याग करवा" ___ माटे एवी रीतनो परिहार पण असंलवित ने, माटे तेनो पण विषय कहेवो पडशे; एवो नावार्थ ने. विषयांतर कहेवानी शी जरूर ? एवी रीतना आचार्यना मतने आशंकीने कहे बे. जो एम नहीं तो, यावदर्थिकपिंड, अने पुण्यने माटे करेला पिंडनो विषयविशेष नहीं ग्रहण करवामां, दीण थएला एवा राग, द्वेष, अने मोहनां दूषणपणांथी अप्रतिहत वचनपणाएं करीने एकांत हितकारी तेवा शास्त्र बनावनारने अनाप्तपणुं श्रशे, तथा अदीण दोषपणाएं करीने अहितपणुं पण अशे; तेम शा माटे ? ते कहे जे के, असंजवित एवा यावदर्थिकपिंडना कहेवाथी; अने ते असंजव " स्वपरार्थ तु ये यत्नं, कुर्वते नान्यथा क्वचित्," एवी रीतना आगल कहेलां वाक्यथी देखांडेलोज . एवी रीते वादीनो पूर्वपद कह्यो. हवे तेनो उत्तरपद कहे जे. विजिन्नं देयमाश्रित्य, स्वजोग्याद्यत्र वस्तुनि ॥ संकल्पनं क्रियाकाले, तदुष्टं विषयोऽनयोः ॥६॥ अर्थ-पोताना उपलोग शिवाय, जुदा जात आदिकने आश्रीने, जे वस्तुमां रसोइ वखते संकटप कराय, ते दूषणवालु बे, अने तेवी रीतनो संकल्प, यावदर्थिक पिंड, अने पुण्यार्थे बनावेला पिंडनो विषय बे. टीकानो लावार्थ-पोताने माटे बनाववाना लात आदिकथी रसोइ वखते जुहूं जे बनावाय, एटले “आटटुं तो कुटुंबने माटे अने आटलुं निहुकने माटे, तथा पुण्यने माटे,” एवी रीतनो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टाष्टक. संकल्प जे वस्तुमां कराय, ते पिंडने (दोषवालो) अशुद्ध पिंड जाणवो; अने एवी रीतनो जे संकल्प, ते यावदर्थिक पिंडनो अने पुण्यने माटे बनावेला पिंडनो विषयरूप . उपरना संकल्प शिवाय बीजा प्रकारनो संकटप दोषवालो नथी, तेने माटे हवे कहे . खोचिते तु यदारंने, तथा संकल्पनं कचित् ॥ न पुष्टं शुजनावत्त्वात्, तबुधापरयोगवत् ॥७॥ अर्थ-पोताने उचित एवा आरंजमां तेवा प्रकारनो कदाच संकटप कराय, तो पण ते शुद्ध एवी बीजी क्रियानी पेठे शुलजावपणुं होवाथी पुष्ट नथी. टीकानो लावार्थ-पोताना शरीर तथा कुटुंबादिकने योग्य एवी रसोश्मां, पोताने योग्यथी जुदा प्रकारना पाकनी शून्यताये करीने जे संकटप करवो, ते मुष्ट नश्री; अर्थात् “मुनिप्रते उचित दानें करीने हुं मारा आत्माने पापरहित करीश,” एवी रीतनो कोइक आरंजमां जे विचार, ते मुष्ट नथी; (पण साधुने अनुचित एवी रसोश्मां तेवो विचार नहीं करवो.) हवे एवी रीतनो संकल्प शामाटे उष्ट नथी? ते कहे जे के, तेमां मननी शुद्धिमात्रपणुं होवाथी; केमके, तेवी रीतनो संकल्प साधुश्रादिक माटेज पृथ्वीकायादिक जीवनी हिंसाना निमित्तरूप नथी; पण तेमां तो देनारनो फक्त शुननावज जणाय जे. कोनी पेठे ते कहे जे के; शृक्ष एवा संकल्प शिवायना मुनिवंदनादिकनी पेठे. कडुं ने के, जेम मुनिप्रते नमन स्तवन आदिक क्रिया निर्दोष बे, तेम एवी रीतना संकल्पवालो पिंड पण दूषण- कारण नथी. __ हवे वादीए असंजवित एवा संकल्पितना कहेवाथी आप्तनी जे अनाप्तता कहेली , तेनुं खंडन करता थका कहे जे. दृष्टोऽसंकल्पितस्यापि, लाल एवमसंभवः नोक्त इत्याप्ततासिकि, यतिधर्मोऽतिपुष्करः॥॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । अर्थ-असंकल्पित पिंडनी प्राप्ति पण देखाएली बे, तेथी, (श्राप्ते) तेनो असंभव कहेलो नथी; माटे आप्तने आप्तपणानी सिद्धि थाय ; वली यतिधर्म अत्यंत पुष्कर . टीकानो नावार्थ-केवल संकल्पितज आहार मले के एम नहीं, पण यतिआदिकने माटे असंकल्पित आहार पण मले के एवो “अपि" शब्दनो अर्थ ; केमके, गृहस्थो कोश्ने देवानी श्या विना पण सूतकमां तथा वनादिकमां, तथा जिकुठनो अनाव होते ते पण, तेम निदाना अनवसरे एटले रात्रिश्रादिकमां पण रसोइ करे बे; अने एवी रीते कथंचित् दीए पण ने; अने तेवी रीतनुं लखाण शास्त्रमा देखाय जे; अने एवी रीते “योन संकल्पितःपूर्व" तथा "नचैवं सनस्थानां" इत्यादिक शंकानुं निराकरण थयु. कह्यु बे के, "धर्मशास्त्रमा कुशल बुद्धिवालो एवो कोइ पण श्रावक संकल्पित आदिक आहारथी साधुने विटंबना करे नहीं.” हवे एवी रीते " असंकल्पित” पिंडनी ज्यारे प्राप्ति सिद्ध थइ, त्यारे तेथी ? ते कहे जे के, तेथी एम सिद्ध थयु के, आप्ते असंकल्पित पिंडनो असंजव कहेलो नथी; अने तेथी ते श्राप्तने आप्तपणानी सिद्धि थश्. अहीं वादी शंका करे के, असंकल्पित पिंडनो जे संभव कह्यो, ते ठीक ने, पण तेवी रीतनी वृत्ति उष्कर होवाथी तेना उपदेशकने तो अनाप्तपणुंज बे. तेने माटे हवे तेने कहे डे के, मूलगुण तथा उत्तरगुणना समुदायरूप “ यतिधर्म" अति पुष्कर जे; अने ते वात प्रसिछजजे अने तेथी आप्तने अनाप्तपणुं आवी शकतुं नथी; केम के, मोदनो ते शिवाय बीजो कोई उपाय नथी; शास्त्रमा पण तेमज कर्वा . माटे हे कुतीथि ! जो तमो पोताना यतिपणाए करीने “स Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमाष्टक. र्वसंपत्करी " जिक्षाने मानता हो, तो " अकृतादिक" गुणोवाला पिंडने ग्रहण करो ? एवी रीतनो या प्रकरणनो नावार्थ बे. एव ते अष्टक विवरण संपूर्ण अयुं. सप्तमाष्टकं प्रारभ्यते कृतादिक गुणनी संपदावालो पिंड, शुद्ध, अने शुद्धि करनारोबे, एम क; हवे ते पिंड प्रन्न जोजन करवाथी शुद्धि कर - नारो बे, माटे यतिए प्रतुन्न रीते जोजन करवुं; एवो उपदेश देता थका कहे बे. G‍ सर्वारंज निवृत्तस्य, मुमुक्षोर्जावितात्मनः ॥ पुण्यादिपरिहाराय मतं प्रछन्नजोजनम् ॥ १ ॥ अर्थ- सघला रंथी निवृत्त थएला, तथा ( स्वपरोपकार - श्री ) वासित बे, आत्मा जेनो, एवा मुमुलु साधुने, पुण्यादिकना परिहारमाटे ( त्याग माटे ) गुप्त जोजन मानेतुं बे. टी कानो जावार्थ- मोहनी वा राखनार साधुए गुप्त जोजन कर हवे ते साधु केवो ? ते कहे बे. मन, वचन, काने कायाथी करवा, कराववा, छाने अनुमोदवारूप जे रंजो, अर्थात् पृथ्वीकायादिक जीवोनी जे हिंसा, ते थकी निवृत्त थलो एवो यति जो प्रगट रीतें जोजन करे, तो याचक आदिक तेनी पासे जोजन मागे, अने तेने श्रपवाथी तेनुं पोषण श्राय; अने तेथी ते यतिने रंजमां प्रवृत्ति थवाथी, तेनी “ सर्वारंज निवृत्तिनो "" नाश थायः माटे तेणे गुप्त रीतेज जोजन करवुः खने एवो उपदेश देवा माटे " सर्वारंज निवृत्तस्य " एवं पद कयुं. आथी करीने, सर्वारंजथी निवृत्त नहीं थएला यतिने जुदो पाड्यो; अने तेवो यति प्रगट जोजन करे, तो पण तेनी सर्वारंजनी निवृत्तिनो नाश थतो नथी; केमके, ते सर्वारंज निवृत्तिज तेने नथी. हवे एवो यति ते कोण ? ते कहे वे के, कर्मरूपी बंधनश्री जे १२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । पोताना आत्माने मुकाववानी श्चा करे , एवो दीक्षित यति; आधी करीने मोदनी श्या नहीं राखनार एवा यतिने जुदोपाड्यो; केम के, तेवा अमुमुकु यतिने पुण्यबंधन थाय जे. वली ते केवो? तोके, “जावितात्मा" केतां पोताना अने परना उपकारने करनारी एवी धर्मनावनायें करीने, अथवा जिननी आज्ञायें करीने वासित करेलुंजे, अंतःकरण जेणे एवो. आथी करीने साधुनी सामाचारीमा रही प्रगट नोजन करवाथी यता शासनना उपघातने, त्यागवो, एम कडं, केमके, शासननो ते उपघात, पोताना अने परना अनर्थना कारणरूप, शांतताने नहीं धारण करनारो, तथा जिनाज्ञाना लंगरूप . कडं के, "कायजीवनी दया पालनारो साधु जो आहार, निहारादिक प्रगटपणे करे, तो ते पुर्खनबोधी थाय बे." ___ हवे तेवो यति शामाटे प्रगट जोजन न करे? ते कहे ने के, पुण्यादिकना परिहार माटे; अहीं " आदि" शब्दथी याचकनी अप्रीति आदिकना दोषरूपी पाप, तथा असंयतिना पोषणथी श्रतुं आरंजनुं प्रवर्तन, अने शासननो उपघात; एटलाने त्याग करवा माटे ते प्रगट रीते जोजन करे नहीं. अने एवी रीतनुं गुप्त जोजन ( साधुउने माटे) विधानोए मानेढुंचे. हवे ते प्रगट जोजन करवामां शी रीते पुण्यबंधन थाय ने ? ते कहे . नुंजानं वीदय दीनादि, र्याचते कुत्पपीडितः॥ तस्यानकंपया दाने, पुण्यबंधः प्रकीर्तितः॥२॥ अर्थ- ( साधुने) प्रगट जोजनकरतो जोस्ने, दुधाश्री पीडित श्रएल दीनादिक (लोजनमाटे) याचना करे जे; अने (ते वखते ) दयाथी तेने देवाथी ते साधुने पुण्यबंध कहेलो ने. ___टीकानो लावार्थ-- ( प्रगट रीते लोजन करता) एवा मुमुकुने जोइने, गरीब, अनाथ, मागण विगेरे याचना करे जे ते दीना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमाष्टक. दिक केवो? तोके, दुधाथी पीडित भएलो; (केमके, दुधाथी नहीं पीडाएलाने देवा माटे तेवी रीतनी दया थती नथी.) एवा दीनादिकने करुणाथी जोजन आपवामांते मुमुकुने पुण्यनो बंध आगममां कहेलो बे. कां ने के, जीवदयाथी, क्षमाथी, दानश्री, तथा गुरुनक्तिथी (प्राणी) सातावेदनीय कर्म बांधे बे,अने तेथी विपरीतपणे वर्तवाथी असातावेदनीय बांधे . माटे मुमुकु शामाटे प्रगट रीते लोजन करे ? । त्यारे अहीं वादी शंका करे के, लले पुण्यबंध थाय? तेम हानि शुं वे? तेनेमाटे हवे तेने कहे . नवहेतुत्वतश्चायं, नेष्यते मुक्तिवादिनाम् ॥ पुण्यापुण्यदयान्मुक्ति, रिति शास्त्रव्यवस्थितेः ३ अर्थ-ते पुण्यबंध लवनो हेतु होवाथी, मोदवादीने ते आश्रयरूप करवो कहेलो नथी. केमके पुण्यना अने पापना (बन्नेना) क्यथी मोद थाय ने, एवी शास्त्रनी स्थिति बे. टीकानो नावार्थ- उपर कहेलो पुण्यनो बंध, संसारनुं कारण होवाथी, सिद्धांतोना प्ररूपनाराजेए (मोदना अर्थिने) - श्रय करवारूप कहेलो नथी. हवे ते वात शी रीते जाणी? तो के, “शुनाशुल कर्मना आत्यंतिक यथी मोक्ष केतां जीवनुं स्वानाविकरूप प्रगट श्राय ," एवी रीतनी आप्ते बनानेला शास्त्रनी स्थिति के अने ते स्थितिथी, पुण्यनो बंध नवना हेतु रूप , एम प्रगट रीते जणाय . याचना करता एवा दीनादिकने पण जो न आपे, तो पुण्यनो बंध शानो श्राय ? एवी आशंका करीने हवे कहे . प्रायो नचानुकंपावां, स्तस्यादत्वा कदाचन ॥ तथा विधस्वजावत्वा, बक्नोति सुखमासितुम्॥४॥ अर्थ-प्रायें करीने अनुकंपावालो माणस, ते दीनादिकने दान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए२ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । दीधा विना कोइ पण वखते, सुखेथी बेसवाने शक्तिवान श्रतो नथी, कारण के, तेनो तेवो स्वजाव बे. टीकानो लावार्थ-जो (दीनादिकने) न आपे, तो तो पुण्यबंध नथी अतो, पण करुणायुक्त अंतःकरणवालो माणस प्रायें करीने, दीनादिकने दान दीधा विना सुखें रही शकतो नथी. शामाटे ते तेम रही शकतो नथी? ते कहे ने के, याचना करता एवा दीनादिकने दान देवामां कारणजूत एवो तेनो स्वलाव बे, तेथी. वली जे वस्तुनो जे कार्य करवानो स्वजाव , ते कर्याविना ते रही शकती नथी. जेम मद्यपान नाचवा आदिक विकारने उत्पन्न करे , तेम दयालु माणस (दीनादिकने ) दान दीधा विना रही शकतो नथी. ___ हवे पुण्यना बंधनी बीकथी दृढ चित्त राखीने, जो न आपे, तो तेने शी रीते पुण्यबंध थाय? एवी आशंका करीने कहे ; वली “पुण्यादिपरिहारार्थ" एमां जे आदि शब्दथी धारण करेला याचकनी अप्रीति आदिक दोषना प्रतिपादन माटे पण कहे . _ अदानेऽपि च दीनादे, रप्रीतिर्जायते ध्रुवम् ॥ ततोऽपि शासनद्वेष, स्ततः कुगतिसंततिः॥५॥ अर्थ-दीनादिकने जो (नोजनादिक )न दीए, तो खरेखर तेनी अप्रीति थाय; अने तेथी पण तेने शासनपर शेष थाय; अने तेथी माठी गतिनी परंपरा बंधाय. ___टीकानो नावार्थ-लात आदिकनुं दान देवाश्री पुण्यबंध थाय के अने ते न देवाथी ते दीनादिकने अप्रीति केतां उधेग थाय बे; अने ते अप्रीतिथी श्राप्तना वचन प्रते तेने मत्सर आवे जे; अने तेथी ते दीनादिकने नरक, तिर्यंच आदिक कुगतिनी श्रेणि थाय बे. हवे, मिथ्यात्वथी हणाएली बे, बुद्धि जेनी, एवा ते दीनादिकने, तेना पोताना दोषथी (कदाच ) अप्रीति आदिक थाय, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमाष्टक. ३ तो पण तेमां क्लेश रहित मनवाला एवा आपणने शुं ? एवी - शंका करी ने कहे ; अथवा "पुण्यादिपरिहारार्थ" एमां रहेला यदि शब्दथी धारण करेला पापबंधने देखाडता थका कहे बे. निमित्त जावतस्तस्य, सत्युपाये प्रमादतः ॥ शास्त्रार्थबाधनेनेह, पापबंध उदाहृतः ॥ ६ ॥ - तेना निमित्तावथी, बते उपाये पण प्रमादथी, अने शास्त्राना ने बाधा करवाथी यहीं पापबंध कहेलो बे. कानो नावार्थ - शास्त्रमा अर्थ बाधा श्रववाथी ते यतिने पापनो बंध कहेलो बे. हवे ते शास्त्रार्थनो बाधज शी रीते ? ते ae ah, निमित्तावथी केतां दीनादिकनी श्री तिथी तेने थता शासनना घेषथी ने कुगतिनी परंपराना कारापणाथी; शास्त्रार्थने बाधा वे बे. (अन्नी प्रीति आदिकनो जे त्याग, नो अर्थ ; ) वादी शंका करे के, एम कहेवाथी तो महामुनिर्जने पण पापना बंधनो प्रसंग श्रवशे, केम के, ते पण महा मिथ्यात्वी - नी प्रीतिना कारणरूप श्राय बे, तेने माटे कहे बे के, दीनादिकने थती प्रीतिनी उत्पत्तिने दूर करवामां गुप्त जोजनरूप उपाय विद्यमान बे, अने महा मुनिर्जने, जो के, ( कदाच ) मिथ्यात्वने ती प्रीति दूर करवाना उपायनो अभाव बे, तोपण तेने दूर करवाने ते प्रयत्नवाला बे; अने एवी रीते ते ना परिणामनी शुद्धि होवाथी, तेजने पापबंधनो नाव बे. वहीं वादी शंका करे के, जोजन करता एवा साधुने हथी जोवाथी दीनादिकने उपर कहेला प्रीति आदिक दोनो प्रसंगवशे तेने माटे हवे कड़े बे के, “प्रमादतः " केतां श्रलसपणाथी ते दोषनो प्रसंग यावे; पण अप्रमादी एवा यतिने तदिको (कदाच ) हेतु आवे, तो पण ( प्रमादरहित) हिंसक नहीं थता पाप बंधनी पेठे, तेनाथी शास्त्रार्थने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । बाधा न आवे. शास्त्रा ने एटले ते बनावेला आगमना ने बाधा करवाये करीने, पापबंध थाय बे, केम के, शास्त्रना अर्थने जे बाधा पहोंचाडवी, ते महा अनर्थनुं कारण बे. कयुं बे के, यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य, वर्तते कामचारतः ॥ न स सिद्धिमवाप्नोति, न सुखं न परां गतिम् ॥ १ ॥ अर्थ - जे माणस शास्त्रनी विधिने तजीने, पोतानी वा प्रमाणे वर्ते, ते मास मोद, सुख के उत्कृष्टी गति पामतो नथी. वली शास्त्र तो परनी प्रीतिना नाशनो प्रयत्न अंगीकार करवामांज तत्पर रहेलुं वे. माटे एवा हेतुश्री मुमुने प्रगट जोजन करवामां तत्वना जानाराए पापबंध केतां अशुभ कर्मनी उत्पत्ति कहेली बे. वादक के, जले शास्त्रार्थने बाधा थाय; तो तेने कहे बेके, तेम नहीं; तेने माटे हवे हे बे. शास्त्रार्थश्च प्रयत्नेन, यथाशक्ति मुमुगुणा ॥ अन्यव्यापारशून्येन, कर्तव्यः सर्वदैव हि ॥ ७ ॥ अर्थ - अन्य व्यापारने नहीं करता एवा मुमुकुए, पोतानी शक्तिमुजब प्रयले करी हमेशां शास्त्रार्थ करवो. टीकानो जावार्थ-दृष्ट अने इष्टथी आगमना अर्थनुं जे कदेवं, तेने “आगमार्थ" कहीयें; एवो आगमार्थज करवो; ते केवी रीते करवो ? तो के, प्रयत्नथी कहेतां आदरश्री करवो; केम अनादर करवाथी खेकुतोने जेम तेम विवक्षित फलनी सिविथती नथी. वादी शंका करे के, संघयण आदिकथी हीन एवा मुमुने समग्र शास्त्रार्थ करवो मुइकेल बे; माटे आ उपदेश तो न बनी शके, एवी क्रियावालो बे. तेने माटे तेने कहे बे के, "यथाशक्ति " केतां पोताना शरीरनी शक्तिप्रमाणे शास्त्रार्थ करवो. hi बेके, “वीर्यने नहीं गोपवतो थको चारित्रने विराधतो नथी; Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमाष्टक. ए माटे तप, संयम आदिकमां वीर्यने गोपवq नहीं, तेम उलंघ, पण नहीं." हवे ते शास्त्रार्थ कोणे करवो ? ते कहे जे के, मोदने श्वता एवा माणसे करवो. हवे ते माणस केवो? तोके “अन्यव्यापारशून्य" केतां शास्त्रार्थना करवा शिवायना लोकयात्रादिक कार्यथी रहीत एवो; केमके तेवा बीजा व्यापार करवाथी शास्त्रार्थने बाधा आवे ने वली ते शास्त्रार्थ कई अमुक वखतेज करवो, एम नहीं, पण हमेशां करवो, अने जेथी ते शास्त्रार्थ करवानो , तेश्रीज गुप्त जोजन पण तेणे करवू; एवो संबंध जाणी लेवो. ___ हवे या प्रकरणने उपसंहरता थका कहे बे. एवं युजयथाप्येत, दुष्टं प्रकटनोजनम् ॥ यस्मानिदर्शितं शास्त्रे, ततस्त्यागोऽस्य युक्तिमान् न अर्थ- एवी रीते बन्ने प्रकारथी प्रगट नोजन करवं, ते (मुनिने माटे) शास्त्रमा उष्ट कहेलुं ; माटे तेवा जोजननो (मुनिए ) त्याग करवो, तेज युक्तिमान बे. टीकानो लावार्थ-एवी रीते उपर कहेला प्रकारथी, अर्थात् दीनादिकने दान देवाथी अने न देवाश्री पण (साधुने माटे) प्रगट नोजन उष्ट अने वली तेवी रीतना प्रगट नोजनने आगममा निषेध्यु , माटे (साधुरीए) तेनो त्याग करवो ते युक्तज जे. माटे हे कुतीर्थिड, ज्यारे तमो मोदनी श्वा राखो बगे, त्यारे तमारे पण गुप्तनी जोजन करवू युक्त ने एवो जावार्थ ने. एवी रीते सातमा अष्टकनुं विवरण संपूर्ण थयु. अष्टमाष्टकं प्रारज्यते. दाणवार पण व्रतविना रहे, नहीं; तेथी नोजननुं वर्णन कबाद हवे पच्चखाण- निरूपण करता थका कहे . अव्यतो जावतश्चैव, प्रत्याख्यानं द्विधा मतम् ॥ अपेक्षादिकृतं ह्याद्य, मतोऽन्यच्चरमं मतम् ॥ १॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए६ श्रीहरिजजसूरिकृतान्यष्टकानि । अर्थ-एक व्यथी, अने बीजुं नावथी, एम बे प्रकारचं पच्चखाणा मानेगुं बे; अपेक्षादिकथी करेलु, ते पेहेलुं अने तेथी उलटा प्रकारनुं ते बीजुं प्रत्याख्यान जाणq. ____टीकानो नावार्थ-जो के, “अव्य" शब्द प्रत्याख्यान करवा लायक एवा सचित्त नोजन आदिकमां, अथवा प्रत्याख्यानना सूत्रना उच्चारना हेतुरूप एवा तालु, उष्ठ आदिकमां पण वपराय , तो पण अहीं ते "व्य" शब्दने “अप्रधान" अर्थवालो जाणवो; केमके, ते शब्दनो तेज अर्थमां शास्त्रोने विषे घणो प्रयोग आवे . माटे एवी रीते अप्रधानजावने आश्रीने जे पच्चखाण कराय; ते “व्यपच्चखाण” कहेवाय. (ते अव्यपच्चखाण, विवदित पच्चखाणना फलने साधनारुं नहीं होवाथी, तेने अप्रधानपणुं कडं.) तेथी व्यथी एटले जावप्रत्याख्याननी योग्यताने आश्रीने, अथवा व्यथी एटले विवक्षित उपयोगनी शून्यताने आश्रीने, अथवा व्यथी एटले आहार अने वस्त्रादिक व्यने आश्रीने जे पच्चखाण करवू, ते “व्य पच्चखाण" कहेवाय. वली " नाव" शब्द जोके प्रत्याख्यान करवा लायक एवा क्रोधादिक नावोमां पण अहीं जोडाइ शके तेम चे, तो पण उपयोगना अर्थवालो जाणवो; केमके, आगममां तेमज कहेलु जे अने तेथी " नावथी” एटले विवक्षित एवा उपयोगने आश्रीने, अथवा लावथी एटले परमार्थथी अर्थात विवक्षित फलना साधननूत एवा लावधी,जे पञ्चखाण करवं,ते "नावपच्चखाण" कहेवाय. एवी रीते बेप्रकारचं पच्चखाण जाणवू; अने प्रकारांतरथी तो, नाम, स्थानपा, आदिकथी प्रकारनुं . प्रवृत्तिना प्रतिकुलपणायें करीने मर्यादावडे जे कथन करवू,तेने "प्रत्याख्यान" कहीयें; एवी रीते व्यथी, तथा नावथी, अथवा विधि तथा प्रतिषेधथी, एम बे प्रकार- प्रत्याख्यान तेना जाणनाराये मानेलुं . हवे ते बन्ने प्रत्याख्यानोनुं स्वरूप कहे जे के,अपेक्षादिक अविद्याथीजे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमाष्टक. प्रत्याख्यान कराएलु होय तेने पेहेलुं एटले "भव्यपच्चखाण" जाणp; अने ते अपेक्षादिक विना जे पच्चखाण करेलुं होय, तेने बीजें एटले “नावपञ्चखाण" जाणवू. हवे ते बन्नेमांधी पहेला पच्चखाणनुं स्वरूप कहे जे. अपेक्षा या विधिश्चैवा, परिणामस्तथैव च ॥ प्रत्याख्यानस्य विनास्तु, वीर्यानावस्तथापरः॥२॥ अर्थ- अपेक्षा, अविधि, तथा अपरिणाम, अने वली वीर्यनो अनाव, ए चारे (नाव) प्रत्याख्यानना विघ्नरूपज बे. टीकानो जावार्थ- "अपेक्षा" एटले आ लोक अने परलोकसंबंधी अर्थनी श्या, अने " अविधि” एटले विधिथी उलटी रीते करवं ते; ("विधि" एटले पोते जाणनार थयो बतो पण गीतार्थ पासेथी उचित काले वखतो वखत विनयपूर्वक, समतासहित ग्रहण करवा लायक वस्तुने ग्रहण करे ते. ) तथा तेवीज रीते " अपरिणाम" एटले प्रत्याख्याननी प्रतिपत्तिमां पोतानी श्रझारूप परिणामनो अनाव; ते अव्यप्रत्याख्यानना हेतुनूत एवा अपेक्षादिक त्रणे, लावप्रत्याख्यानना विनरूपज बे; तथा "वीर्य" एटले वीर्यातरायना क्योपशमादिकथी उत्पन्न भएलो जे जीवनो परिणाम, तेनो अनाव, एटले “ वीर्यानाव" ते पण अपेक्षादिकनी पेठे चोथो लाव प्रत्याख्यानना विघ्नरूप . आ "वीर्यानाव" ने ते, परिणाम उतां पण, प्रत्याख्यानने नहीं पालवानो हेतुरूप होवाथी विघ्ननूत बे. __ अपेक्षाथी करेलुं पञ्चखाण निष्फलपणायें करीने अप्रधान होवाथी, ते “अव्यपच्चखाण" बे; एवी रीतना अर्थने प्रतिपादन करवा माटे अपेदाने निंदता थका हवे कहे जे. लब्ध्याद्यपेक्षयाह्येत, दनव्यानामपि क्वचित् ॥ श्रूयते न च तत्किंचि, दित्यपेदात्र निंदिता॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । अर्थ - ( जोजन आदिकना ) लाजनी अपेक्षाथी ते प्रव्यपञ्चखाण तो कोइ वखते नव्याने पण होय बे, एवं (आगममां ) संजलाय बे; माटे ते पञ्चखाए कई कामनुं नथी; अने तेथ अपेक्षाने हीं निंदेली बे. ए टीकानो जावार्थ - "लब्धि " एटले जोजन, यश, पूजा - दिकना लानी पेक्षाथी ते द्रव्यपञ्चखाए तो सिद्धिमां जवाने अयोग्य, अर्थात् अजव्यने पण होय बे; ( एटले जव्यने तेवुं पचखाण तो एक बाजु रघुं; पण अव्यने पण. ते ऽव्यपच्चखाण तो होय. ) एवं प्रव्यपच्चखाए “ क्वचित् " एटले यथाप्रवृत्तिकरणे करीने, ग्रंथिप्रदेशसुधि आवेला एवा अव्योने होय बे; एम आगममां कहेलुं संजलाय बे गौतमस्वामीए जगवानने पूक्युं के हे जगवन्! असंयत जविक Sव्य देवो जो देवलोकमां जाय, तो कया देवलोकमां जाय? त्यारे जगवाने कह्यं के; हे गौतम! जघन्यथी जुवनपतिमां तथा उत्कृष्टथी परिम ग्रैवेयकमां जाय. ( गाथाना या अर्थमां संयत जविक 5व्य देवो, के जे जव्य थया थका देवपणाथी उत्पन्न थनारा बे, तेनुं वर्णन कर्यु बे.) वली गौतमस्वामिए जगवानने पूब्धुं के, हे जगवन्, एवो एक मनुष्य ग्रैवेयक देवतापणे केटली द्रव्यइं करे ? अर्थात् केटलां शरीर करे ? त्यारे जगवाने कह्युं के हे गौतम! ते नंती द्रव्यें करे ? अर्थात् अनंतीवार त्यांडत्पन्न याय. हवे एवी रीते वि मनुष्य ग्रैवेयकमां साधुना लिंगीज जइ शकेने ते साधुलिंगमां पञ्चखाए तो होय बेज; ( माटे एवी रीते ते व्यपञ्चखाण तो अविने पण होय बे.) हवे तेवी रीतनुं अपेक्षा आदिकथी करेलुं प्रव्यपच्चखाण कं पण हिसाबमां नथी; केमके मुमुक्षुने तेथी मोक्षरूप स्वफल मली शकतुं नथी; कारण के जे वस्तु पोताना फलने साधे बे, तेनेज वस्तुपणुं प्राप्त थाय बे, पण बंध्यापुत्रनी पेठे जे वस्तु पोताना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमाष्टक. U फलने साधती नथी, तेने वस्तुपणुं घटी शके नहीं; अर्थात् प्रत्याख्याननुं फल तो मोक्ष बे, अने ते अपेक्षावालुं प्रव्यप्रत्याख्यान तो ते फल प्रापतुं नथी, माटे तेने प्रत्याख्यानपणुं पण घटी शकतुं नथी. छाने एवी रीते अपेक्षाथी करेलुं पञ्चखाए ज्यारे निष्फल बे, तेथी जावपञ्चखाने विघ्न करनारी एवी ते अपेक्षाने जिनशासनने विषे निंदनिक कहेली बे. वे विधिनुं जावप्रत्याख्यानप्रते विघ्नपणुं कहे बे. यथैवाविधिना लोके, न विद्याग्रहणादि यत् ॥ विपर्यय फलत्वेन, तथेदमपि जाव्यताम् ॥ ४ ॥ - विधिएं करीने लोकमां विद्याग्रहणादिक नथी तुं, तेम उलटा फलवडें करीने, अविधिथी करेलुं पञ्चखाण पण जाणवु. टीकानो नावार्थ जेम विधिएं करीने लोकमां विद्या, तथा मंत्र श्रादिकनुं ग्रहण थइ शकतुंज नथी, पण उलटुं तेथी मृत्यु आदिक याय बे, तेम वांबित फलना विपर्यासपणाएं करीने, अर्थात् विधिएं करेलुं एवं प्रत्याख्यान पण प्रत्याख्यानज बे; एम जावं. हवे परिणामरहित प्रत्याख्याननुं प्रव्यप्रत्याख्यानपणुं कहे बे. श्रयोपशमात्त्याग, परिणामे तथा सति ॥ जिनाज्ञानक्तिसंवेग, वैकल्यादेतदप्यसत् ॥५॥ -योपशमविना त्याग परिणाम होते बते, तथा विधिपूर्वक त्यागपरिणाम न होते ते, ने जिनवचननी जक्ति, अने संवेगना जावी, ते परिणामी पञ्चखाण पण अशोजनिक बे. टीकानो जावार्थ - " य " एटले विरतिने रोकनारा उदीर्ण कर्मोनो नाश, अने तेनी साथे जे उपशम, केतां उदीर्ण नहीं एवा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । ते कर्मने विपाकोदयनी अपेक्षाथी, जे अटकावी राखq ते; अने ते बन्ने क्योपशम कहेवाय; तेवा योपशमविना त्याग परिणाम होते ते, एटले देशविरति, सर्वविरति अने नोकारसी श्रादिकनु पच्चखाण होते ते पण ते असत् बे. (आथी करीने देशविरति तथा सर्वविरति पञ्चखाणने, तेना हेतुरूप एवा गृहस्थी अने साधुने, नवकारसी सहितादिक उत्तरगुणप्रत्याख्यान- - व्यपणुं कह्यु.) अथवा विधिपूर्वक दयोपशम होते ते त्यागपरिणाम थाय , पण तेवी रीतनो त्यागपरिणाम न होते ते, (आधी करीने अविरति सम्यग्दृष्टिवाला वासुदेवादिकोना, तथा अनव्या दिकना पच्चखाणने व्यपणुं कह्यु) आ अपरिणामी पच्चखाण पण उत्तम नश्री. __ अहीं वादी शंका करे के, प्रत्याख्यान करवालायक एवी वस्तुमां अजव्यादिकोने थोडो पण त्यागपरिणाम तो होय , तो तेने व्यप्रत्याख्यानपणुं केम कहेवाय ? तेने माटे तेने कहे जे के, तेने जिनाज्ञानी नक्ति, अने मोदना अनिवाषनुं विकलपj होवाथी, अथवा जिनाज्ञानी नक्तिथी श्रता संवेगनुं विकलपणुं ( रहितपणुं) होवाथी, अपरिणामपणाएं करीने तेउंना पच्चखाणने अव्यपणुं . माटे एवी रीतर्नु अपरिणामी पच्चखाण पण अशोजनीक . हवे वीर्यना अन्नावने प्रव्यप्रत्याख्यान- हेतुपणुं कहे जे. उदग्रवीर्य विरहात्, विष्टकर्मोदयेन यत् ॥ बाध्यते तदपिअव्य-प्रत्याख्यानं प्रकीर्तितम्॥६॥ अर्थ-उत्कृष्ट वीर्यना अजावथी, तथा विष्ट कर्मोना उदयश्री जेने बाधा आवे बे, ते प्रत्याख्यानने पण "अव्यप्रत्याख्यान" कहेलुं बे. . टीकानो जावार्थ-उत्कट एq जे “वीर्य" केतां वीर्यातरायना क्षयोपशमथी उत्पन्न थएलो जे आत्मानो परिणाम,तेना विरहथी, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमाष्टक. १०१ अने अत्यंत तीव्र एवा वीर्यातरायादि कर्मना विपाकथी, अंगीकार करेला एवा पण जे प्रत्याख्यानने बाधा आवे , ते प्रत्याख्यानने पण "व्यप्रत्याख्यान" कहेलु .(केम के, वीर्यना जलासथी जीव, विष्ट कर्मोने शमावे ने, अने तेना अनावथी तेने कर्मोनोउदय श्राय .) अथवा क्लिष्टकर्मना उदयश्री श्रतो जे वीर्य नो अनाव, तेथी जीवें करीने जे प्रत्याख्यानने बाधा कराय , तेने “अव्यप्रत्याख्यान” कहेलु ने एवो पण अर्थ थाय. एवीरीतना वीर्यानावना प्रत्याख्यानने पण तत्वना जाणनाराउए “अव्यप्रत्याख्यान" कहेलु . वली केटलाक आचार्योए, कालांतरे “नावप्रत्याख्यान-" ते कारण होवाथी, तेने “ अव्यप्रत्याख्यान " कहेलु ; केमके, एक वखते थएलो लाव, जावांतरने उत्पन्न करे . कडुं ने के, __“ सइ संजाउँ जावो, पायं नावांतरं जन कुण." अर्थ- एकवार उत्पन्न भएलो नाव, प्रायें करीने नावांतरने ( एवीज रीतना बीजा नावने ) उत्पन्न करे जे. अहीं “अव्य" शब्दने योग्यतावाची जाणवो. एवी रीते अव्यपच्चखाणनुं स्वरूप कह्यु, हवे नावपञ्चखाणनु स्वरूप कहे . एतहिपर्ययाद्नाव, प्रत्याख्यानं जिनोदितम् ॥ सम्यक्चारित्ररूपत्वान्, नियमान्मुक्तिसाधनम्॥७॥ अर्थ- ( उपर कहेला अव्यपच्चखाणथी) उलटी रीते जिनेश्वरे "नावपच्चखाण" कहेलुं बे,अने ते सम्यक् चारित्ररूप होवाश्री, निश्चयें करीने मोदने साधनारुं बे. टीकानो नावार्थ-अपेक्षादिकथी करेखा पच्चखाण शिवाय, एटले अनपेक्षादिकथी करेलु जे पच्चखाण ते "नावपच्चखाण" कहेवाय; अने ते “नावपच्चखाण" जिनेश्वर प्रजुए कहेलु के केमके, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । जे जेने विपर्ययनूत बे, तेना जावे ते अवश्य थाय छे, केमके, ज्यारे बायानो अाव होय त्यारे तडको होय; माटे प्रव्यप्रत्याख्यानथी उलडुं, ते " जावप्रत्याख्यान” बे; वली प्रव्यप्रत्याख्यान होते बते, जावप्रत्याख्यान अवश्य थाय बे; हवे ते जावप्रत्याख्याननुं शुं फल मले बे? ते कहे बे के, ते जावप्रत्याख्यान - वश्यें करीने साक्षात अथवा परंपराथी मोने आपनारुं बे. शामाटे ? ते कहे वे के, ध्यानादिकनी पेठे ते जावपच्चखाणनो शोजनचरणस्वाव होवाथी, ते मोने आपनारुं बे. कहीं वादी शंका करे के, त्यारे प्रव्यपच्चखाए तो शुंनकज बे ? तो तेने कहे बे के, एम नहीं. तेने माटे हवे कहे . जिनोक्त मितिसङ्गक्त्या, ग्रहणे द्रव्यतोऽप्यदः ॥ बाध्यमानं जवेनाव, प्रत्याख्यानस्य कारणम् ॥८॥ अर्थ- जिनेश्वरे कहेलुं बे, माटे, ते " द्रव्यपच्चखाण" पण उत्तम तिथी ग्रहण करवाथी, बाध्यमान एवं पण ते जावपच्चखानुं कारण बे. टीकानो जावार्थ - अपेक्षादिकना योगथी ग्रहण करेलुं एवं sव्यपचखाण पण जावपच्चखाएनुं कारण बे; हवे ते प्रव्यपचखा के बे? ते कहे बे, " जिनोक्तं " केतां आते कहेतुं बे, माटे एवी जे उत्तम नक्ति, तेणे करीने ते ग्रहण करवु; वली जो के ते ऽव्यपच्चखाण बाध्यमान बे, तोपण ते जावपच्चखानुं कारण बे; सनक्ति प्रव्यपच्चखाणना हेतुभूत एवा अपेक्षादिकोनी विरुद्ध बे, माटे ते अपेक्षादिक दूर थवाथी जावपञ्चखाणवालो थाय बे. एवीतेवमाष्टकनुं विवरण समाप्त ययुं. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमाष्टक. नवमाष्टकं प्रारज्यते हवे ते नावपच्चखाण ज्ञानविशेष होते ते थाय , माटे हवे ते ज्ञानविशेषने देखाडता श्रका कहे . विषयप्रतिनासं चा, त्मपरिणतिमत्तथा ॥ तत्वसंवेदनं चैव, ज्ञानमाहुमहर्षयः ॥१॥ अर्थ- महान इपिए, विषयप्रतिनास, आत्मपरिणतिमत् तथा तत्वसंवेदन, एवी रीते त्रण प्रकारना शानो कहेलां बे. .. टीकानो नावार्थ-विषय सटले कर्ण आदिक इंजिना ज्ञानने गोचर एवा शब्दादिक; तेने जणावनाएं जे ज्ञान, तेने " विषयप्रतिनास" नामनुं ज्ञान जाणवू. (पण तेनी प्रवृत्तिमा तेथी उत्पन्न श्रतो जे श्रात्मानो अर्थ अनर्थनो सन्नाव, तेने जणावनारूं नहीं) अर्थात् आलोकसंबंधी अने परलोकसंबंधी उन्नस्थ ज्ञानना विषयरूप एवा अर्थोमां, प्रवृत्तिने विषे, आत्माना तात्विक अर्थ अने अनर्थना प्रतिनासनथी जे शून्य, तेने “ विषयप्रतिनास" ज्ञान जाणवू; अने ते ज्ञान मिथ्यादृष्टिने होय . तथा आत्मानो क्रियाविशेषथी थइ शके, एवो जे परिणाम, ते जेमां जणाय ने, तेने "आत्मपरिणतिमत्" ज्ञान कहीयें; (पण तेने अनुरूप एवी प्रवृत्ति निवृत्ति तेमां न होय.) अने ते ज्ञान अविरति एवा सम्यग् दृष्टिने होय . तथा जेथी परमार्थ जणाय, अर्थात् हेय अने उपादेय पदार्थोथी निवृत्ति अने प्रवृत्ति संपादन करनारु, तेने “तत्त्वसंवेदन" ज्ञान कहीये. अने ते ज्ञान शुद्ध चारित्रिने होय; एवी रीतना त्रणे शानो महामुनिए कहेलां है; अने ते त्रणे मत्यादिविशेषज बे. हवे पेहेला ज्ञान- स्वरूप कहे . विषकंटकरत्नादौ, बालादिप्रतिनासवत् ॥ विषयप्रतिजासं स्यात्, त यत्वाद्यवेदकम् ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ श्रीहरिलप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । अर्थ-फेर, कांटा, अने रत्नादिकोने विषे बालकादिकनां जाएपणानी पेठे, हेयत्व आदिकने निश्चय नहीं करावनालं “विषयप्रतिनास" ज्ञान होय. टीकानो नावार्थ-"विष" एटले वजनाग आदिक, तथा "कटक" एटले बावल आदिकना अवयवो, ( कांटा) तथा "रन" एटले मरकत मणि आदिक, बीजी वस्तु तेने विषे बाल तथा अतिमुग्धोनुं जे ज्ञान, तेना सरखं " विषयप्रतिनास " ज्ञान होय; हवे ते “विषयप्रतिजास" ज्ञान, बाल आदिकना ज्ञान सर केम ? ते कहे जे के, ते ज्ञान, ज्ञेय विषयोनुं तजवापणुं, ग्रहण करवापणुं, तथा उपेक्षवापणुं, जणावी शकतुं नथी अर्थात् बाल आदिकनुं ज्ञान, जेम विष आदिक विषयना रूपादिकनेज जाणे , पण तेना हेयत्व आदिक धर्मने जाणतुं नथी, तेम जे ज्ञान, ग्रंथीलेद जेडने नथी थएलो, एवा बहुश्रुतोने पण, ( तेना) मोहथी मलीन श्रएला मनपणायें करीने, अतत्वोनी हेयतानो, तथा तत्वोनी उपादेयतानो विचार कराववामां असमर्थ होय, आर्थात् तत्व अने अतत्वने तुल्य जणावनालं, अथवा उलटी रीते जणावनालं ते "विषयप्रतिनास” ज्ञान कहेवाय. कह्यु के, विसयपडिभासमित्तं, बालस्सेवखुरयणविसथमि ॥ वयणाइएसु नाणं, सव्वथाणाणमोणेयं ॥१॥ हवे तेज ज्ञानने तेना चिन्ह आदिकथी देखाडता थका कहे . निरपेक्षप्रवृत्त्यादि, लिंगमेतउदाहृतम् ॥ अज्ञानावरणापायं,महापायनिबंधनम् ॥३॥ अर्थ-(पाप संबंधी) शंकाविनानी प्रवृत्ति आदिक , चिन्ह जेनु, तथा अज्ञानना आवरणने नाश करनालं, अने महाअपायना कारणरूप, ते “विषयप्रतिलास" ज्ञान कहेलुं ने. टीकानो जावार्थ-आ लोक अने परलोकसंबंधी अपायोनी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमाष्टक. १०५ (उष्ट कार्योनी ) जे शंका, ते जेमांथी गएली ने, ए, जे प्रवर्तनादिक, ते जे चिन्ह जेनु, तेने आप्तोए “विषयप्रतिनास" ज्ञान कहेलुं . ते ज्ञान के ? तो के, “अज्ञान" केतां मिथ्यात्वना उदयथी दूषित एवांजे मति, श्रुत अने अवधि ज्ञान (विप्नंगान) तेना आवरणनो ने, क्योपशम जेमां एवं बे; (मिथ्यादृष्टिउनुं जे मति, श्रुत,अने अवधिज्ञान (विनंगझान) ते अज्ञानज.)कर्वा के, अविसेसियामइच्चिय, समदिहिस्ससामइनाणं ॥ महअन्नाणं मित्था, दिठिस्स सुयंपिएएव. ॥१॥ अर्थ-सूत्रमा पण एमज कह्यु के, सम्यग् दृष्टिउनी जे बुद्धि, ते “ मतिज्ञान"; अने मिथ्यादृष्टिनी जे बुद्धि, ते “मतिश्रज्ञान" . पण, मतिमां कंई फेरफार नथी. ___ हवे ते “विषयप्रतिजास" ज्ञान शं फल आपे बे? ते कहे ले के, ते पोताने अने परने आ लोक अने परलोकसंबंधी महाअपायो- केतां महा कष्टोनुं कारणरूप थाय ने केम के, तत्वश्री ते अज्ञानज जे अने अज्ञान ने ते, महाअपायर्नु कारण बे. कह्यु बे के, अज्ञानं खलु कष्टं, क्रोधादिभ्योऽपि सर्वापायेभ्यः॥ अर्थहितमहितंवा, नवेत्तियेनावृतो लोकः ॥१॥ अर्थ-अज्ञान ने ते, खरेखर क्रोधादिक सर्व अपायोथी पण कष्टकारी केम के, ते अज्ञानश्री विटाएलो माणस हित अअवा अहित कार्यने जाणी शकतो नथी. हवे बीजा " आत्मपरिणतिमत् ” ज्ञाननुं स्वरूप देखाडवा माटे कहे . पातादिपरतंत्रस्य, तदोषादावसंशयम् ॥ अनर्थाद्याप्तियुक्तं चा, त्मपरिणतिमन्मतम् ॥४॥ अर्थ-पतन आदिकश्री परतंत्र गएला प्राणीने, तेना दोषा १४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माटे, पते कषायादी)ोजे, कम गुणनी श्रीहरिलप्रसूरिकृतान्यष्टकानि। दिकने विषे संशय विनानु, तथा अनर्थ आदिकनी प्राप्तिवालु, " आत्मपरिणतिमत् " ज्ञान मानेलुं . टीकानो नावार्थ-“पातादिपरतंत्रस्य" केतां नीची अने उंची गति माटे, परतंत्र थएला एटले विषय, अने कषायादिके वश करेला प्राणीने, ते कषाय आदिकधी थता कर्मबंध अने मुर्गति श्रादिक दोषमां, अने (आदिशब्दथी) अभ्युदय आदिक गुणमां, जे संशयरहितपणानुं ज्ञान थाय ने, तथा जे, कर्मबंधन अने मुर्गतिगमन रूपी अनर्थ, अने परंपराथी मलता मोक्षरूपी गुणनी प्राप्तिवालुबे, तेने तत्वना जाणनाराए "आत्मपरिणतिमत्" ज्ञान मानेलुं . अहीं दृष्टांत नीचेप्रमाणे जाणवू. अवली चालना घोडापर बेसवाथी परतंत्र श्रएला स्वारने, अंगलंग, तथा मरणादिक दोषमां, तथा रुना समूहना कोमल स्पर्शादिक गुणमां संशयरहितपणुं श्राय तथा ते अंगनंगादिक अनर्थ, अने सुखस्पर्शादिक गुणनी प्राप्तिवालुं बे; एम ते माने. ___ हवे तेज आत्मपरिणतिमत् ज्ञान, लिंगादिकथी निरूपण करता थका कहे . तथाविधप्रवृत्त्यादि, व्यंग्यं सदनुबंधि च॥ झानावरण हासोत्थं, प्रायो वैराग्यकारणम् ॥५॥ अर्थ- तेवा प्रकारनी प्रवृत्ति आदिकथी प्रगट श्रनालं, तथा शुल अनुबंधवालुं, तथा ज्ञानावरणादिकना नाशथी उत्पन्न थएलु, अने प्रायें करीने वैराग्यना कारण रूप, ते "आत्मपरिणतिमत्” ज्ञान जाणवू. टीकानो नावार्थ- तेवा प्रकारनी अहिंसादिकने विषे जे प्रवृत्ति आदिक, ते अकी प्रगट अवारूप , चिन्ह जेनु, तथा परंपराथी मोक्षफलने देवारूप ने सदनुबंध जेनो, एवं ते आत्मपरिणतिमत् ज्ञान बे; हवे ते ज्ञान शुं हेतुवालु चे? ते कहे जे के, मति आदिक शाननुं जे आवरण, तेना दयोपशमथी उत्पन्न थ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमाष्टक. १०७ एलुं ते ज्ञान ; वली ते ज्ञान सदनुबंधी शी रीते ? ते कहे जे के, ते ज्ञान प्रायें करीने वैराग्य केतां उत्तम नावनानुं निमित्त ने. कडं वे के, बालधूलिगृहक्रीडा, तुल्यास्यांभाति धीमताम् ॥ तमोग्रंथिविभेदेन, भवचेष्टाखिलैव हि ॥१॥ अर्थ- अज्ञानरूपी ग्रंथीना नेदथी बुद्धिमानोने आ जवनी सघली चेष्टा, वैराग्य नावना होते बते, बालके करेला धूलीना घरनी रमत सरखी ( विनश्वर) लागे बे. __ अहीं प्रायें करीने वैराग्यनुं जे कारण का, तेनी मतलब ए के, राज्यादिक मेलववामां तत्पर श्रएला एवा जरतादिकनी पेठे, कषायनो उदय विशेष होते बते ते ज्ञान वैराग्यनुं कारण न पण थाय, ते जणाववा माटे कडं. हवे त्रीजु जे “तत्वसंवेदन" ज्ञान तेना प्रतिपादन माटे कहे . स्वस्थवृत्तेःप्रशांतस्य, तक्षेयत्वादिनिश्चयम् ॥ तत्वसंवेदनं सम्यक्, यथाशक्तिफलप्रदम् ॥६॥ अर्थ- स्वस्थ वृत्तिवाला, तथा शांत एवा पुरुषने, वस्तुना हेयपणा आदिकमां निश्चयवालुं “ तत्वसंवेदन" ज्ञान थाय बे. अने ते सारी रीते यथाशक्ति फलने देनारंबे. टीकानो जावार्थ- आकुलता रहित बे, वचन अने, कायाना व्यापारनुं वर्तवापणुं जेनु, तथा रागष आदिना उपशमवाला, एवा माणसने “ तत्वसंवेदन" ज्ञान थाय ने. हवे ते ज्ञान के? तो के, ज्ञेय वस्तुतत्वना हेयपणा, उपादेयपणा, अने उपेक्षणीयपणानो ने निश्चय जेमां एवं ते के एवं ते “ तत्वसंवेदन" ज्ञान सम्यक् प्रकारे, पुरुषने, संघयण आदिकना सामर्थ्यने अनुसारे, विरतिरूपी अनंतरफल, तथा परंपरायें मोक्फलने देना बे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ श्रीहरिलजसूरिकृतान्यष्टकानि । हवे ते ज्ञानना लिंगादिकने प्रतिपादन करता थका कहे जे. न्याय्यादौ शुभवृत्त्यादि, गम्यमेतत्प्रकीर्तितम् ॥ सद्ज्ञानावरणापायं, महोदयनिबंधनम् ॥ ७॥ अर्थ-मोक्षमार्ग आदिकने विषे शुद्ध प्रवृत्तिआदिश्री जे अनुमान करायचे, तेने तत्वसंवेदन ज्ञान कहेलुं , तथा ते उत्तम ज्ञाननाथावरणनोदयोपशम करनारं, अने मोदना कारणरूप जे. टीकानो नावार्थ- नीतिसहित एवो सम्यग् ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूप जे मोदमार्गादिक तेने विषे अतिचाररहित प्रवृत्ति आदिकें करीने, जे ज्ञान अनुमित श्राय , तेने ज्ञान- स्वरूप जाणनाराउंए “तत्वसंवेदन" ज्ञान कहेलु के हवे ते ज्ञान केवा हेतुवालुं ? ते कहे जे के, उत्तम एवं जे आनिनिबोधादिक ज्ञान, तेना आवरणने श्योपशम करनारं, अने निर्वाणना कारणरूप फलने देनारं. हवे आ अष्टकने संपूर्ण करता थका उपदेश कहे . एतस्मिन् सततं यत्नः, कुग्रहत्यागतो भृशम् ॥ मार्गश्रकादिनावेन, कार्य आगमतत्परैः॥७॥ अर्थ-श्रागमना (वचनोमां ) तत्पर एवा माणसोए कदाग्रह तजीने, उपर कहेला तत्वसंवेदन ज्ञानमां, मोदमार्गमां श्रमादिक जावें करीने हमेशां खूब यत्न करवो. टीकानो जावार्थ-उपर कहेला तत्व संवेदन ज्ञानमां हमेशा आदर करवो; ते केवी रीते करवो? ते कहे जे के, जेथी शास्त्रने बाधायावे, एवा कदाग्रहने तजीने यत्न करवो शानेथी करवो? ते कहे जे के, मोदमार्गमां श्रघा, तेनुं ज्ञान, अने तेनी सेवनाथी यत्न करवो. हवे ते कोणे करवो? ते कहे के, आप्तनां वचनमां तत्पर थएला एवा माणसोए करवो. एवी रीते नवमा अष्टकनुं विवरण समाप्त थयु. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०ए दशमाष्टक. दशमाष्टकं प्रारज्यते. सम्यग् ज्ञानश्री वैराग्य थाय , माटे ते वैराग्यनुं निरूपण करता थका हवे कहे . आर्तध्यानाख्यमेकंस्या, न्मोहगर्ज तथापरम् ॥ सदज्ञानसंगतं चेति, वैराग्यं त्रिविधं स्मृतम् ॥१॥ अर्थ- एक "आर्तध्यान" नामनो, बीजो "मोहगर्जित," तथा त्रीजो "सद्ानसंगत" एवी रीते त्रण प्रकारनो वैराग्य कहेलो बे. ____टीकानो लावार्थ-"त" कहेतां जे मुःख, तेमां उत्पन्न थएलु, अर्थात् इष्ट अने अनिष्ट वस्तुना वियोग अने संयोगना निमित्तवालुं जे व्याकुल चित्त, तेने पेहेलु “थार्तध्यान” नामर्नु वैराग्य जाणवू तथा “ मोह" केता जे मिथ्यात्व अने अज्ञान, तेथी नरेलुं ते “मोहगर्जित" वैराग्य जाणवू, तथा सम्यग् ज्ञानें करीने जे युक्त होय, तेने “ सद्ज्ञानसंगत” वैराग्य जाणवू. राग रहितपणानो जे नाव ते “वैराग्य" कहेवाय. एवी रीते त्रण प्रकारनुं वैराग्य आप्तोए कहेलुं बे. हवे पेहेला आर्तध्यान नामना वैराग्यनुं स्वरूप कहे बे. श्ष्टेतरवियोगादि, निमित्तं प्रायशो हि यत् ॥ यथाशक्त्यपि हेयादा, वप्रवृत्त्या दिवर्जितम् ॥२॥ उठेगकृहिषादाढ्य, मात्मघातादिकारणम् ॥ थार्तध्यानं ह्यदो मुख्यं, वैराग्यं लोकतो मतम्॥३॥ अर्थ-प्रायें करीने प्रिय अने अप्रिय वस्तुनो अनुक्रमे जे वियोग, अने संयोग, तेना निमित्तरूप, तथा यथाशक्तियें करीने हेय आदिक वस्तुमा अप्रवृत्त्यादिकें करीने वर्जित, तथा उधेग करनारो, दीनतावालो, वली शरीरना ताडन आदिकना कारणरूप एवो ते आर्तध्यानरूप वैराग्य लौकिकथी मानेलो . टीकानो नावार्थ-प्रायें करीने प्रिय अने अप्रिय वस्तुनो अनु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । में, जे वियोग, संयोग, ते बे कारण जेनुं, तेम पोतानो विकल्प पण बे कारण जेनुं, एवं ते आर्तध्यान वैराग्य बे; हवे ते वैराग्य ध्यानरूप शामाटे बे ? ते कहे बे के, श्रद्धाना - तिशयथी शक्तिने उलंघीने तो एक बाजु रघुं, पण, यथाशक्तियें करीने हेय ने उपादेय वस्तुना विषयमा अनुक्रमे जे निवर्तन ने प्रवर्तन, तेथी ते रहित बे, माटे ते श्रार्तध्यानवालुं वैराग्य बे. केमके, जे शुभ वैराग्य बे, ते तो तजवा लायक एवा इंडियार्थोमां, अने ग्रहण करवालायक एवा तपाने ध्यानादिकमां यथाशक्तियें करी ने निवृत्ति प्रवृत्तिश्री युक्त बे; कारण के, तेनुं तेवुंज स्वरूप बे; अनेा वैराग्य तो तेथी रहित बे, माटे तेने श्रर्तध्यानरूप वैराग्य कह्यो. वली ते वैराग्य उद्वेग करनारो, तथा दीनतायें करी ने सहित बे; ( थी करीने तेनुं मनना दुःखनं हेतुपणं कयुं ) हवे तेनुं शरीरना दुःखनं हेतुपणुं कहे वे के, ते वैराग्य आत्मा केतां ( अहीं ) पोतानुं शरीर, तेने ताडन श्रादिकना कारणरूप बे; एवं ध्यानरूप वैराग्य मुख्य कहेलुं बे; वादी शंका करे के, या तो आर्तध्यानरूप बे, तो तेने वैराग्यपणाथी के कां? तेने माटे तेने कहे बे के, ते तो पृथक् जश्रीने कलंबे, पण तेने पंडितोए तत्वथी वैराग्य मानेतुं नथी. हवे मोहगर्जित वैराग्यनुं स्वरूप देखाडवा माटे कहे बे. एको नित्यस्तथाबद्धः, दय्यसत्त्वेह सर्वथा ॥ आत्मेति निश्चयाद्भूयो, जवनैर्गुण्यदर्शनात् ॥४॥ तत्त्यागोपशांतस्य, सद्वृत्तस्यापि जावतः ॥ वैराग्यं ततं यत्तन्, मोह गर्नमुदाहृतम् ॥ ५ ॥ अर्थ - आत्मा सर्वथा प्रकारे एक नित्य, सर्वथा प्रकारे अब तां कोइनी साधे पण नहीं जोडाएलो, सर्वथा प्रकारे दयी, केतां क्षणिक, तथा सर्वथा प्रकारे सत् तां अबतो बे, एवी रीतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमाष्टक. निश्चयथी फरीने संसारनी असारता जोवाथी, ते संसारना त्याग माटे शांत थएला, तथा उत्तम क्रियावालाने नावथी जे वैराग्य थाय , ते वैराग्यने “ मोहगर्जित" वैराग्य कहेलुं . टीकानो नावार्थ- केटलाको कहे ने के, आ आत्मा लोकमां व्यापी रहेलो एकज चे, तेउँ कहे के, सघला प्राणीउमां एकज आत्मा रहेलो बे, अने ते जलमां प्रतिबिंबित थएला चंजनी पेठे एक प्रकारनो अथवा बहु प्रकारनो देखाय के तथा कपिल दर्शनवाला अत्माने नित्य माने जे; वली केटलाको आत्माने " अबछ” माने , केमके तेठे प्रकृतिनेज बंध मोद माने जे; तथा केटलाको आत्माने दणिक माने , तथा केटलाको आत्माने अबतो माने ( पण ते सघलुं असंजवित बे;) माटे एवी रीतना असंजवित एवा आत्माना स्वरूपना निश्चयश्री फरीने, संसारमा (आववामां) असारता जोश्ने, ते संसारना त्यागमाटे कषाय अने इंजिना निग्रहवाला, तथा पोताना सिद्धांतने आधारे शुल क्रियावाला, एवा माणसने उत्तम नावें करीने जे वैराग्य थाय , ते वैराग्यने वैराग्यनुं स्वरूप जाणनाराउंए “मोहगर्जित" वैराग्य कहेलो के केमके, तेणे आत्मानुं स्वरूप यथार्थ जाण्युं नथी; तेथी तेनो ते वैराग्य अत्यंत सन्निपातवाला माणसने आपेला सदौषधनी पेठे परमार्थने साधनारो नथी. हवे ते आत्मानुं एकत्व आदिक माननाराऊनुं खंडन नीचेप्रमाणे जाणवू. - आत्मानुं सामान्यरूपनी अपेक्षाए एकपणुं ने, अने विशेषरूपनी अपेदाए अनेकपणुंज के केम के, समता प्रत्ययना निबंधनपणाने प्राप्त थएला ते सामान्य कहेवाय बे; अने विषमता प्रत्ययना निबंधनपणाने प्राप्त भएला ते विशेष कहेवाय . वली आत्माने नित्यपणुं व्यानी अपेक्षाए घटी शके चे, पण सर्वथा प्रकारे नित्यपणुं घटी शकतुं नथी; केम के, पर्यायानी अ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । पेक्षाए तेने अनित्यपणुं प्राप्त थाय . वली आत्माने सर्वथा प्रकारे बंधनो जो अनाव मानीयें, अने प्रकृतिनेज जो बंध मानीयें; तो आत्माने मोद घटी शकतो नथी; केम के लोकमां पण एमज मनाय ने के, जेने बंध होय, तेनोज मोद केतां बंधनरहितपणुं श्राय; पण अबधनो मोद कहेवातो नथी; तेम जो प्रकृतिने बंध मानी, तो पुरुषने मोद श्रतो नथी. तेम आत्माने सर्वथा क्षणिकपणुं पण घटी शकतुं नथी, केम के ते पण कथंचित ; माटे तेनुं क्षणिकपणुं तथा अदणिकपणुं नित्यानित्यनी पेठेज जाणवू; तथा आत्माने सर्वथा प्रकारे असतापणुं पण घटी शकतुं नथी; पण कथंचित् घटी शके के केम के, पररूपे करीने तेनुं असतापणुंचे, पण सर्वथा प्रकारे नथी; कारण के, जो सर्वथा प्रकारे तेनुं असतापणुं मानीयें, तो परलोक सिछ तो नश्री. माटे आत्मा एक अने अनेक, नित्य अने अनित्य, अबच्च अने बच्छ, यी अने अक्षयी, असत् अनेसत्, एमस्याघादमय जे. हवे ज्ञानसंगतवैराग्यना प्रतिपादनमाटे कहे . नूयांसो नामिनो बझा,बाह्येनेबादिनामी ॥ आत्मानस्तम्शात्कष्टं, नवे तिष्ठति दारुणे ॥६॥ एवं विज्ञाय तत्त्याग, विधिस्त्यागश्च सर्वथा ॥ वेराग्यमाहुः सद्ज्ञान, संगतं तत्वदर्शिनः ॥७॥ अर्थ-घणां, परिणामी, बाह्य एवी स्वादिकथी बंधनयुक्त, एवा आ आत्मा (जीवो) ते श्वादिकना वशथी दुःखी श्रया थका जयंकर एवा संसारमा रहे , एम जाणीने, तेना (संसारना) त्यागनी जे क्रिया, अने सर्वथा प्रकारे तनो जे त्याग करवो, तेने तत्वना जाणनारार्ड सद्ज्ञानसंगत नामनो वैराग्य कहे. टीकानो लावार्थ-" नूयांसः” एटले घणा, "नामिनः" के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमाष्टक. ११३ << ब तां परिणामी एटले परापरपर्याय प्रते गमन करनारा, तथा या " केतां " बाह्य ” एटले आत्माथी जुदा एवा इवा, मूर्ग, दिके करीने बंधाएला, एवा लोकव्यवहारने गोचर जीवो, safari aत्पन्न यएला बंधना सामर्थ्यश्री दुःखसहित एवा या जयंकर संसारमां रहे बे, एम जाणीने तेने त्याग करवानो जे विधि, तथा सर्वथा प्रकारे जे त्याग करवो, तेने “ सद्ज्ञानसंगत ” नामनो वैराग्य कहे वे; अर्थात् श्राप्तना उपदेशथी संसारमां जमता जीवोने, जोइने, जवना कारणरूप एवी ते वादिकने तवामां जे उद्यम करवो, अर्थात् सर्व सावद्यथी विरक्त थवाने यत्न करवो, तथा सर्वथा प्रकारे ते वादिकने जे तजवी, तेने वैराग्यना परमार्थने जाणनारा " सद्ज्ञानसंगत” वेराग्य कहे बे; केम के तेथी यथास्थित वस्तुनो बोध थाय बे. हवे ते “ सद्ज्ञानसंगत” वैराग्यज सिद्धिना (मोना) साधनरूप बे, एवं प्रतिपादन करता था कहे बे. एतत्तत्वपरिज्ञाना, नियमेनोपजायते ॥ यतोऽतःसाधनं सिद्धे, रेतदेवोदितं जिनैः ॥ ८ ॥ - तत्वना जाणपणाथी या वैराग्य जेथी निश्चयें करी ने थाय बे, ते हेतुथी जिनेश्वर प्रभुए मोना साधनरूप तेनेज को बे. टीकानो जावार्थ उपर कहेलो सद्ज्ञानसंगत वैराग्य, ( पेहेला बे वैराग्य नहीं ) आत्मादिक वस्तुना परिणामी पणाच्या दिक स्वरूपना जाणपणाथी निश्वयें करीने याय ; काने तेथी करीने ते वैराग्यने, रागादिकने जितनारा एवा जिनेश्वरोए मोदना साधनरूप कहेलो . एव ते दशमा अष्टकनुं विवरण समाप्त थयुं. १५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । एकादशमाष्टकं प्रारज्यते. वैराग्यवाला माणसे तप करवो जोश्ये, तेथी हवे वैराग्याष्टक पी तप कष्टकनो प्रारंन करे ने अने तेमां पण परमतनी आशंका करता थका कहे जे. (अर्थात् वादीनुं कहेवू डे.) कुःखात्मकं तपःकेचिन्, मन्यते तन्न युक्तिमत्॥ कर्मोदयखरूपत्वादू, बलीबर्दादिःखवत् ॥१॥ अर्थ-केटलाको तपने तो, तेमां कर्मोदयनुं स्वरूपपणुं होवाथी बलद आदिकना मुःखनी पेठे, मुःखात्मक मानीने, तेने युक्तियुक्त मानता नथी. टीकानो नावार्थ- केटलाको के, जेए जिनेश्वर प्रनुना श्रागमना नावार्थने जाण्यो नथी, ते अनशनादिक तपने मुःखरूप मानीने, तेने मोदना अंगरूप मानता नथी. हवे ते तप सुखरूप बे, पण ते मोदनुं अंग केम नथी ? तेने माटे कहे जे के, तेमां असाता वेदनीय आदिक कर्मोनुं विपाकपणुं , माटे, ते मोदन अंगरूप नश्री; केमके, कडं ने के, अनशनादिक तपमां दुधा, तृषा आदिक परिसहो सहन करवा पडे बे, अने ते वेदनीय कमैना उदयथी उत्पन्न थाय ने, एम आगममां कडं माटे ते तप मोदन अंग नथी. हवे ते कोनी पेठे? ते कहे जे के, बखद श्रादिकना पुःखनी पेठे. हजुपण ते वादीनुंज कहे, जे. सर्व एव च पुःख्येवं, तपस्वी संप्रसज्यते ॥ विशिष्टस्त हिशेषेण, सुधनेन धनी यथा ॥२॥ अर्थ- ( सामान्य रीते) सघला पाणी सुखी ने; अने एवी रीते दुःखरूप तपने मानवाथी तो सघला प्राणी, धनवडे करीने धनवाननी पेठे उत्कृष्ट तपस्वी थाय. टीकानो जावार्थ-जो मुःखरूप तपने मानी तो सघला प्रा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशमाष्टक. ११५ णी मुःखी होवाथी, ते सघला उत्तम तपस्वी कहेवाय; केमके, अनशनादिक तपर्नु, अने व्याधि आदिकनुं सुःखपणुं तो सरझुंज जे; कोनी पेठे के, जेम घणा धनें करीने माणस धनवान कहेवाय तेम. हजु पण आचार्य महाराजनेज ते वादी कहे जे के, एवी रीते सघला फुःखीउँने तपस्वी कहेवामां शुं दोष आवे ? महातपखिनश्चैवं, त्वन्नीत्या नारकादयः॥ शमसौख्यप्रधानत्वा, योगिनस्त्वतपस्विनः॥३॥ अर्थ-एवी रीतनी तमारी नीतिथी तो नारकी आदिकना जीवो (मुःखी होवाथी) महातपस्वी कहेवाय; अने योगी तो समतारूप उत्तम सुखवाला होवाश्री तपविनाना कहेवाय !!! टीकानो नावार्थ-“जेटला मुःखी तेटला तपस्वी,” एवी रीतनी तमारी नीतिथी तो महा मुःखवाला एवा नारकीना अने तिर्यचना जीवो पण मोटा तपस्वी कहवाय !!! अने समता रूप ने उत्तम सुख जेउने, एवा समाधिवाला योगी तो अतपस्वी कहेवाय !!! हजु पण वादीज पोतानो पद कहें तो श्रको कहे बे. युक्त्यागमबहिर्जूत, मतस्त्याज्यमिदं बुधैः ॥ श्रशस्तध्यानजननात्,प्राय श्रात्मापकारकम्॥४॥ अर्थ-ते तप युक्ति अने आगमने बाधा करनारो ने, माटे ते पंडितोए तजवो; केम के, ते उानने उत्पन्न करनार होवाथी, प्रायें करीने आत्माने अहित करनारो . टीकानो नावार्थ-युक्ति अने आगमने बाधा करनारो एवो ते तप, पंडितोए तजवो; केम के, तेमां पोताना शरीरने पीडा थाय ने; माटे युक्ति अने आगमना हृदयने जाणनाराए लोकरूढीथी प्रवर्तवू जोश्य नहीं; केम के, तेम करवाथी तेना पंडितपणाने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ श्री हरिमसूरिकृतान्यष्टकानि । बाधा पहोंचे बे. वली ते तप पोताना आत्माने अनर्थना कारणरूप बे. ते शामाटे ? के, ते प्रायें करीने खराब ध्यानने उत्पन्न करनारो बे; केम के, जोजन यादिना श्राव हुन 'उत्पन थाय छे; कां वे के, आहारवर्जिते देहे, धातुक्षोभः प्रजायते ॥ तत्र चाधिकसत्वोऽपि, चित्तभ्रंशं समश्नुते ॥ १ ॥ हाररहित शरीरमां धातुनो कोन थाय बे, छाने वाधिक बलवाननं चित्त पण डामाडोल थाय बे. अहीं " प्रायें करीने " कहेवाथी महावीर प्रभु आदिकना तप वास्तेनुं दूषण दूर कर्यु. माटे ते तप पंडितोए तजवो, एम वादीनुं कहेवुं श्रयुं. हवे तेने माटे आचार्य उत्तर आपे बे. मनइंडिययोगाना, महानिवोदिता जिनैः ॥ यतोऽत्र तत्कथं त्वस्य, युक्ता स्याद्दुःखरूपता ॥ ५ ॥ - तपने विषे जिनेश्वर प्रभुर्जए मन, इंडियाने योगनी हानि कहेली बैं; अने तेथी ते तपने दुःखरूपपणुं शी ते घटी शके ? टीकानो नावार्थ - वादीए जे कह्युं के, कर्मोदयना स्वरूपपणाश्री दुःखरूप एवो तप युक्तियुक्त नथी, पण ते तपने " दुःखात्मक " एवं विशेषणज सिद्ध थइ शकतुं नथी; ते हवे देखाडे बे. मन, इंद्रिय, ने संयमना व्यापाररूप जे योगो, तेनी या तपमां हानि जिनेश्वर प्रभुए कहेली बे; कह्युं बे के, सोहु तवो कायव्वा, जेण मणो मंगुलं न चिंते ॥ जेण न इंदियहाणी, जेणय जोगा न हायंति ॥ १ ॥ अर्थ- जेथी मन दुर्ध्यान न चिंतवे, छाने जेथी इंद्रियोनी हानि wwww Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशमाष्टक. ११७ न याय, तथा जेथी योगोने पण हानि न पहोंचे एवो ते तप करवो. तेथी कोइ पण रीते तपने दुःखरूपपणुं घटी शकतुंज नथी; अने तेथे तेने युक्तिपतुं पण घटी शकतुं नथी. वादी शंका करे के, देहने पीडा करवायें करीने न शनादिक तपनुं दुःखरूपपणुं तो साक्षात अनुभवाय बे, बता तेने दुःखरूपपणुं न घटी शके, एम केम कहेवाय ? तेने माटे हवे ते कहे . या पिचानशनादिभ्यः, कापीडामनाक्क्कचित् ॥ व्याधिक्रियासमासापि, नेष्टसिद्ध्यात्र बाधनी ॥६॥ अर्थ - अनशन यदि तपथी जे कोइ वखते जरा शरीरने पीडा थाय बे, ते पण रोगना उपाय सरखी बे ने वांबित अर्थ साधवाथ ते बाधा करनारी नथी. टीकानो जावार्थ-उपर कहेला न्यायथी तो अनशन आदिक तपथी देहने पीडा श्रतीज नथी; पण वली कदाच अनशन, उपवास, उनोदरी श्रादिक तपथी, कोइकज देश कालने विषे जे स्वरूप देहपीडा थाय बे, ( मननी पीडा नहीं.) पण ते म नने दुःख पनारी नथी. शामाटे के, ते वांबित अर्थ साधवावाली बे; वली तेवी कायपीडाने सिद्धांतमां रोगना उपाय सरखी कहेली, अर्थात् जेम रोगना उपायमां थोडी देहने पीडा थाय छे, तो पण तेथी जेम आरोग्यता प्राप्त थाय बे, तेम तपथी पण जरा देहपीडा कदाच थाय, तो पण ते जावथी बाधा करनारी नथी. वन सिद्धिमां शरीरपीडानां पण अपणाने दृष्टांती देखाडता थका कहे बे. दृष्टा चेष्टार्थसंसिद्ध, कायपीडा ह्यडुःखदा ॥ रत्नादिवणिगादीनां तद्वदत्रापि जाव्यताम् ॥ ७ ॥ Jain Educationa International " For Personal and Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । . अर्थ-रत्नादिकनो व्यापार करवावाला वणिक् आदिकोने, वांजित अर्थनी सिधिमां (थती) शरीरनी पीडा, मुःखने देनारी जोएली नथी; अने तेनी पेठे श्रा तपने विषे पण जाणी लेवु. टीकानो नावार्थ-“इष्ट अर्थनी प्राप्तिमां थती देहपीडा दुःख करनारी नथी,” एम केवल अमोज कहीयें जीयें, एम नहीं, लोकमां पण ते वात प्रसिधज जे हवे ते कोने ? ते कहे , के, रत्न, वस्त्र, सुवर्ण आदिकनो व्यापर करनाराउने तथा खेमु आदिकोने अती देहपीडा जेम तेउने मुःखदाइ यती नथी, तेम आ अनशनादिक तपने विषे पण निपुण बुद्धिथी विचारी ले. अर्थात् जेम रत्न, सोनुं अने वस्त्रादिकनो व्यापार करता एवा वेपारी, तथा खेती करता एवा खेमु आदिक, के जेए वांछित अर्थनी सिधिमांज एक निश्चय बांधेलो ने, एवा, अने वली अपार समुअमां, तथा वनोमां लटकवावाला, तथा खेती आदिक अनेक व्यापारमा तत्पर, एवा तेउने नूख, तृषा, तथा धाक श्रादिकथी उत्पन्न भएली शरीरनी पीडा मनने पुःख आपनारी थती नथी, तेम आ अपार संसारसमुपथी तरवानी श्वा राखनारा साधुउने अनशन अने उनोदरी आदिक तपस्याथी थती देहनी पीडा मनने खेद करनारी थती नथी. ___ अहीं केटलाक आचार्यो वली नीचे प्रमाणे पण कहे बे. कोश्क दरिज व्यापारीए दूर देशांतरमा जइ, घणीक मेहेनते केटलांक रत्नो मेलव्यां; त्यारे विचारवा लाग्यो के, आ महामूट्यवालां, तथा सर्व आशाने उत्पन्न करनारां रत्नोने ले, चोरोथी नरेलां था वनने उलंधी, घेर जइ, तेनो उपलोग शीरीते लेश ? पछी तेणे बुद्धीवडे करीने ते रत्नो एक जगोए राख्यां; तथा काच आदिकना कटका एक पोटलीमां बांधीने, ते पोटली लाकडीने खेडे लटकावी; पनी "अरे आ रत्ननो वेपारी चोरनी पसीमांथी जाय जे;" एम पोकार करतो को वनमाथी जवा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशमाष्टक. ११ए लाग्यो. पी ते मार्गमां चोरनी पहली मां रहेनारा चोराए संभ्रमसहित तेनी तपास करी; तो तेनी पासे काचना कटकार्ड जोया; त्यारे ते विचार्य के, तो कोइ गांडो माणस बे, एम विचारि ते तेनो तिरस्कार कर्या. पाछो फरीने पण ते तेवीज ते पालो वयो ने त्यारे पण पेहेलां जेटए तेने नहीं जोयो हतो, तेर्जए पण तेनी तपास करी, तेने कहाडी मेट्यो; वली पण पाटो ते तवीज रीते वनमां गयो, एवी; रीते त्रीजी वखते पण चोरो, तेनो परिचय होवाथी तेने जवा दीधो. पनी तेणे विचार्य के, हवे मने खरेखर श्र वनमां को अटकावशे नहीं; एम विचारी, रत्नोने लेश, तेना उपयोग माटे, वांबित नगरप्रते जवाने माटे उत्सुकपणाथी, जलदी जलदी मोटी मोटी मजलो करीने पण, तथा नूख, तृषा ने थाकादिकने पण न गणतो थको जवा लाग्यो. घणो मार्ग उलंघवा बाद तृषा लगवाथी विचारा लाग्यो के, अरे ! आजे तो हुं पाणी विना मरी ज डं, ने वली ढुंआ रत्नोनो उपभोग पण मेलवी शकीश नहीं; एवी रीते मृत्युनी बीकवाला, तथा रलोना उपभोगनी इवावाला ते वेपारीए एक कादवयुक्त पाणीवालुं तलाव जोयुं. ते तलावना कादवमां खुंची गयेला एवा हरिण दिकनां कलेवरमां उत्पन्न थएला कीडाथी दुर्गंधयुक्त थपलुं, तथा रसविनानुं, तुम्छ जल जोड़ने, तेनी दुर्गंधने नहीं सुंघतो थको, तथा तेना रसनो स्वाद पण न लेतो को, खी विंचीने ते खोबेथी पाणी पीवा लाग्यो; अने तेथी शांत थयो; अने ते पाणीनां आधारथी तृषानुं दुःख मटाडीने, तुरत पोताने नगर जड़, ते रत्नोनुं सुख जोगववा लाग्यो. नो उपनय तो प्रथमज कहेलो बे. एव ते तपना दुःखात्मकपणानुं खंडन करीने, तेना कर्मोदयना स्वरूपपणानुं हवे खंडन करता थंका कहे बे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । विशिष्टज्ञानसंवेग, शमसारमतस्तपः दायोपशमिकं शेय, मव्याबाधसुखात्मकम् ॥ ७॥ अर्थ- उत्तम ज्ञान, संवेग, अने समता , सार जेनो, एवो तप ने, माटे तेने दायोपशमिक,अने अव्याबाधसुखरूप जाणवो. टीकानो लावार्थ-उत्तम एवा झान, संवेग केतां संसारनी असारतानो नाव,अथवा मुक्तिमार्गनो अभिलाष, तथा शम एटले कषाय अने इंजियनो निरोध, ते , सार जेनो एवो तप जाणवो; माटे ते दुःखरूप नथी. अने तेथी ते तपने दायोपशमिक जाणवो; अर्थात् चारित्रमोहनीय कर्मना बेदनी साथे थएलो जे उपशम, केतां विपाकमां उदय आवता चारित्रमोहनीय कर्मनो अटकाव, ते मय के; पण तेमां कर्मोदयनुं स्वरूप नथी; वली ते तप अविरतिथी उत्पन्न भएल, आंतरारहित, अथवा परंपरावाली,एवी श्रा लोकसंबंधी,तथा परलोकसंबंधीजे बाधा, ते जेमां नथी, एवो मे; अर्थात् अव्याबाध सुखवालो, एटले सिधना सुखनुं अनुकरण करनारो जे; एवी रीते आ श्लोके करीने, तपy . अकर्मोदयस्वरूपपणुं, तथा अनुःखस्वरूपपणुं जणाव्यु. एवी रीते अगीयारमा अष्टकनुं विवरण समाप्त श्रयुं. हादशमाष्टकं प्रारज्यते. एवी रीते नाना प्रकारना अर्थाने विषे विवाद करता मिथ्यात्विउने शिखामण देश्ने, ते शिखामणनी विधिरूप जे वाद, तेनुं स्वरूप देखाडता थका हवे कहे . शुष्कवादो विवादश्च, धर्मवादस्तथापरः ॥ इत्येष त्रिविधो वादः, कीर्तितः परमर्षिनिः॥१॥ अर्थ- शुष्कवाद, विवाद, अने धर्मवाद, एवी रीते त्रण प्रकारना वादो, महान शषिए कहेला बे. टीकानो लावार्थ- “ शुष्क" एटले रसविनानो, अर्थात् गर्बु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घादशमाष्टक. अने तालवाना शोषमात्र फलवालो, एटले कोइ वादीनी साथे उलटाज विषयने आश्रीने बोलq ते, “शुष्कवाद" कहेवाय; तथा “विवाद" एटले जयनी प्राप्ति थाय, तो पण परलोकादिकने जे बाधा पहोंचाडे, ते “विवाद" कहेवाय; तथा धर्मवडे करीने प्रधान एवोजेवाद,ते “धर्मवाद" कहेवाय; अर्थात् मध्यस्थपणाथी धर्मरूपी सुवर्णनी कष आदिक परीक्षाना लक्षणवालो ते “धर्मवाद" कहेवाय; एवी रीतनात्रण प्रकारना वादो उत्तम मुनिए कहेला ने. हवे तेउमाथी पेहेला वादनुं स्वरूप कहे . अत्यंतमानिना साधं, क्रूरचित्तेन च दृढम् ॥ धर्महिष्टेन मूढेन, शुष्कवादस्तपस्विनः ॥२॥ अर्थ- अत्यंत गर्विष्ठ, क्रूर चित्तवालो, तथा धर्मनो अत्यंत वेष करनारो, अने मूर्ख, एटलानी साथे जे साधुनो वाद, ते "शुष्कवाद" कहेवाय. टीकानो लावार्थ- अत्यंत जेने गर्व होय, ते अत्यंत मानी कहेवाय; ( तेवो माणस पराजय पामे, तो पण सामानो गुण मानतो नथी.) तथा क्रूर अध्यवसायवालो; (तेवो माणस पराजय पाम्याथी वैरी थांय ) तथा उर्गतिमां पडता प्राणिनो उद्धार करनार, एवो जिनेश्वर प्रनुए कहेलो जे श्रुतचारित्ररूप धर्म, तेनो अत्यंत क्षेष करनार; ( तेवो माणस पराजय पामे तो पण ते शुद्ध धर्मने अंगीकार करतो नथी, माटे तेनी साथे वाद करवो, ते व्यर्थ प्रयास .) तथा “ मूढ" केतां युक्त अयुक्तना तफावतने नहीं जाणनारो; (तेवो माणस तो वादनो अधिकारीज नथी.) एटला माणसोनी साथे जे तपस्वीए कहेतांसाधुए विवाद करवो, ते "शुष्कवाद" केतां निरर्थक वाद कहेवाय.(अहीं “तपस्वी” शब्दनुं ग्रहण एटला माटे कर्यु ले के, तेवोज माणस हमेशां पोताना उचित प्रवर्तनपणायें करीने, योग्यताथी शास्त्रोने विषे अधिकारी बे; एवं देखाडवा माटे; अने तेथी बीजा अनुचित प्रवृत्तिवाला १६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । तेनेमाटे अधिकारी नथी;एवं पण देखडवा माटे “तपस्वी" शब्द मुकेलो बे.) अथवा हे “तपस्वी!" एवो अर्थ पण करी लेवो. हवे तेवा वादने शुष्कवादपणुं शामाटे ? तो के, तेमां अनर्थनी वृधिपणुं ,माटे; एम अमो कहीयें जीये. तेज बाबत हवे कहे जे. विजयेऽस्यातिपातादि, लाघवं तत्पराजयात् ॥ धर्मस्येति विधाप्येष, तत्वतोऽनर्थवर्धनः॥३॥ अर्थ-जो ते अनिमानी वादीने तपस्वी जीते, तो तेनुं (अनिमानीन) मृत्यु आदिक श्राय; अने तेमां जो ते तपस्वीनो पराजय श्राय, तो तेथी धर्मने लघुता पहोंचे; माटे एवी रीतनो “शुष्कवाद" बन्ने प्रकारे तत्वथी अनर्थने वृद्धि करनारो के. टीकानो नावार्थ- तपस्वी साधु ज्यारे ते अलिमानी वादीनो पराजय करे , त्यारे ते अनिमानथी मृत्यु पामे , तथा अशुन कर्मना बंधथी संसारमा परिन्रमण आदिकने पामे . अथवा साधुनी साथे वैर थवाथी, पोतानो लाग आवे, ते वखते ते शासनने हानी पहोंचामे. तथा ते साधुनो कदाच तेवा वादीथी पराजय थाय, तो शासनना महिमानी हानि थाय; अर्थात् एवो अवर्णवाद थाय के, वादमां जैन तो हारी गयो, माटे जैनशासपन तो असार . माटे एवी रीते "शुष्कवाद” तो बन्ने प्रकारथी रमार्थे करीने संसारनुं कारण होवाथी अनर्थनी वृद्धि करनारो बे. हवे बीजा वादनुं स्वरूप कहे जे. लब्धिरव्यात्यर्थिनातुस्या, हुस्थितेनामहात्मना ॥ बलजातिप्रधानो यः, स विवाद इति स्मृतः॥४॥ अर्थ- सुवर्ण आदिकनी प्राप्तिनो, अने कीर्तिनो अर्थी, तथा दरीजी, अने कुछ चित्तवालो, एवा वादीनीसाथे, बल अने जातिवडे करीने प्रधान एवो जे वाद करवो, तेने, “विवाद” नामे बीजो वाद जाणेलो . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ हादशमाष्टक. टीकानो नावार्थ- "लब्धि" एटले सुवर्ण आदिकनी प्राप्ति, अने “ ख्याति" एटले कीर्ति, ते बन्नेनुं वे प्रयोजन जेने, एवा, तथा "मुःस्थित" एटले दरिजी अथवा जेनुं मन सुनाएलुं ने एवा, अने “ अमहात्मा" केतां उदारतारहित चित्तवाला, एवा वादीनी साथे, जे वाद करवो, ते "विवाद" कहेवाय; केमके, एवा माणसनो जो वादमा पराजय ( हार ) थाय, तो तेने विषाद एटले खेद थाय, अने तेनी आजीविकानो पण नंग थाय; अने तेथी जीतनार एवा साधुने पोताना परलोकने बाधा पहोंचे, अने तेथी करीने तेवो वाद विशेषे करीने विरुधबे. हवे ते वाद केवो? तो के बलवालो, एटले “नवकंबलो देवदत्तः ( नवाकंबलावालो देवदत्त, अथवा नवनी संख्यावाला ने कंबलो जेनी पासे एवो देवदत्त, एम बे अर्थों थाय.) तेने लवाद जाणवो. तथा " जाति" एटले दूषणानासवालो वाद; जेमके, “अनित्यः शब्दः कृतकृत्त्वात् घटवत्” (शब्द कृत्रिम होवाथी घटनी पेठे अनित्य बे.) आमां हेतु दूषणयुक्त जे; केमके, घटमां जे कृत्रिमपणानो हेतु , ते शब्दें करीने असिजे; माटे ते हेतुप्रसिद्ध के; वली जो ते कृत्रिमपणाने शब्दगत मानीयें, तो ते अनित्यपणायें करीने व्याप्त सिद्ध भई शकतुं नथी; माटे ते असाधारण अनेकांतिक हेतु बे. एवी रीतनो जे वाद करवो, तेने “विवाद" कहेलो . हवे आवा वादने शामाटे " विवाद” कहेलो बे? ते कहे जे. विजयो यत्र सन्नीत्या, पुर्खनस्तत्ववादिनः॥ तदनावेऽप्यंतराया दि, दोषोऽदृष्टविघातकृत् ॥ अर्थ- एवी रीतना उसादिकथी करेला विवादमा तत्ववादीने उत्तम नीतिश्री विजय मलवो उर्खन के अने कदाच विजय श्राय, तो पण तेमां ( ते वादीने थता) अंतराय आदिक दोष आवे, अने ते दोष परलोकनो विघात करनारो जे. टीकानो नावार्थ- ग्लादिकवाला विवादमां वस्तुना तत्वोने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ श्रीहरिलप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । जाणनार एवा साधुने, उत्तम न्यायपूर्वक विजय मलवो उर्लन बे; अने कदाच प्रमादना रहीतपणाथी, बलादिकने नाश करीने ते साधु विजय मेलवे, तोपण तेमांदोष आवे बे; ते कहे जे. एवी रीते वादीने हराव्याथी, ते वादीने सुवर्णादिकनो श्रतो लाल, तथा कीर्ति मली शकतां नथी; पण उलटो तेने तेथी शोक अने ष उपजे जे केमके तेवो वादी वादमां जो हारी जाय, तो तेने राजादिकपासेथी कंई मली शकतुं नथी अने मट्युं होय, ते पण राजाआदिक पाई ले ले माटे एवी रीते तेमां अंतरायादिक दोष बे; ते दोष केवो के ? तो के, परलोकने घात करनारो ने. हवे धर्मवादनुं स्वरूप निरूपण करवा माटे कहे जे. परलोकप्रधानेन, मध्यस्थेन तु धीमता ॥ स्वशास्त्रज्ञाततत्वेन, धर्मवाद उदाहृतः॥६॥ अर्थ- परलोक ने प्रधान जेने, तथा मध्यस्थ, बुद्धिवान, अने पोताना शास्त्रोनुं जाणेलुं , तत्व जेणे, एवा माणसनी साथे जे वाद करवो, तेने “धर्मवाद" कहेलो . टीकानो नावार्थ- परलोक चे प्रधान जेने, एवा माणसनी साथे जे वाद करवो,ते "धर्मवाद" कहेवाय; केमके, तेवो माणस परलोकना जयथी असमंजसनो बोलनार के करनार थतो नथी, वली "मध्यस्थ" कहेतांजेने पोताना धर्मनो अत्यंत राग नश्री,तम परधर्मपर पेष नथी, तेवानी साथे करेलो वाद धर्मवाद कहेवाय; केमके, तेवा माणसोने सुखेथी समजावी शकाय के कारण के, ते गुणदोषने जाणनारो होय जे. वली जेणे पोताना धर्मशास्त्रोनुं तत्व जाणेलु , एवा माणसनी साथे करलो वाद "धर्मवाद" कहेवाय; केम के, तेवो माणस पोताना दूषित अथवा अदूषित धर्मने जाणी शके बे. माटे एवी रीतना प्रतिवादी साथे जे वाद करवो, तेने " धर्मवाद" कह्यो . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशमाष्टक. १२५ एवीरीतना वादथी उत्तम फल मले बे, माटे ते "धर्मवाद" कहेवाय बे, ते फलने माटे हवे कड़े बे. विजयेऽस्य फलं धर्म, प्रतिपत्त्याद्यनिंदितम् ॥ श्रात्मनो मोहनाशश्च नियमात्तत्पराजयात् ॥ ॥ अर्थ वा धर्मवाद करनारने जितवाथी तेने ( प्रतिवादीने ) धर्मनी प्राप्ति आदिक उत्तम फल मले बे; अनेकदाच तेमां साधुनो पराजय थाय, तो निश्रयें करी ने तेना ( साधुना ) - त्मानी मूढतानो नाश थाय. टीकानो जावार्थ- परलोक बे प्रधान जेने, इत्यादि विशेषणवाला वादीनी, साधु साथेना विवादमां जो हार थाय, तो तेने ( ते वादीने ) जिनेश्वरे कहेला श्रुतचारित्ररूप धर्मनी प्राप्तिरूप उत्तम फल प्राप्त थाय. छाने कदाच तेवा वादीथी जो साधुनो पोतानो पराजय थाय, तो तेना ( साधुना ) तत्वादिकोने विषे तत्वादिकना अध्यवसायरूप अज्ञाननी निश्चयें करीने हानि थाय. त्यारे हवे शुं धर्मवादज करवो ? ने बीजा बन्ने वादो न करवा ? एवी आशंकामां जे करवानुं बे, तेनो उपदेश देता थ काकडे वे. देशाद्यपेक्षया चेह, विज्ञाय गुरुलाघवम् ॥ तीर्थकृद्ातमालोच्य वादः कार्यो विपश्चिता छ अर्थ- देशादिकनी अपेक्षायें करीने, गुरुता तथा लघुताने जाणीने, श्री वीरप्रनुना दृष्टांतने विचारिने यहीं पंडित माणसे वाद करवो. टीकानो जावार्थ- देश, एटले गाम, नगर, जनपदादिक, तथा आदि शब्दथी काल, राजा, सभासद, तथा प्रतिवादी दिकन पेक्षा वाद करवो; अर्थात् देश एटले ज्यां कुती - - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ श्री हरिमसूरिकृतान्यष्टकानि । र्थिनो घणो प्रचार न होय, तेवो देश जोवो; " काल " एटले 5काल श्रादिक ज्यां काल न होय, ते; तेम राजा आदिको पण ज्यां मध्यस्थ तथा डाह्या होय, तथा प्रतिवादी पण ज्यां वादने योग्य होय, तथा पोते पण वाद करवाने समर्थ ने के, नहीं ? इत्यादिकनी अपेक्षायें करीने वाद करवो. कां ने के, कः कालः कानि मित्राणि, को देशः कौव्ययागमौ ॥ काहं काच मे शक्ति, रिति चिंत्यं मुहुर्मुहुः ॥ १ ॥ अर्थ-कयो काल बे ? कोण मित्रो बे ? कयो देश बे ? शं आवक जावक बे ? हुं कोण बुं ? तथा मारी शक्ति केटली बे ? एवी रीते वारंवार चिंतववुं. वीएवी रीतना अमुक देशादिकने विषे वाद करवायी मारी तथा शासननी गौरवता थशे, तथा अमुक देशादिकोने विषे वाद करवाथी लघुता थशे; एवी रीतनो विचार करीनेज जेथी गौरवता वधे, तेवी रीतनो वाद करवो. वली ते वाद शुं विचारिने करवो? तो के, जेम जगवान श्री वीरप्रजुए प्रथम समवसरणमां मलेली व्योनी पर्षदाने तजीने, बीजी जगोए उत्तम देशना आपी, तेम, विधान माणसे पण अनुचित एवा देशादिकने, तथा पोताना छाने परना उपकारना जावने वर्जि ने, बीजी जगोए उपर कहेलो णे प्रकारनो वाद करवो. एव ते बारमा अष्टकनुं विवरण समाप्त ययुं. त्रयोदशमाष्टकं प्रारज्यते. एवी रीते उपर वादोनुं स्वरूप कंधु, हवे ते मांहेलो धर्मघादज मुख्य वृत्तिश्री करवो; एवा हेतुथी ते विषयने देखाडता का कहे बे. विषयो धर्मवादस्य, तत्तत्तंत्रव्यपेक्षया ॥ प्रस्तुतार्थोपयोग्येव, धर्मसाधनलक्षणः ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशमाष्टक. १२७ अर्थ-ते ते दर्शननी अपेक्षायें करीने, प्रस्तुत अर्थमां उपयोगी, तथा धर्मना साधनना लक्षणवालो एवो धर्मवादनो विषय बे. टीकांनो जावार्थ- जेजे दर्शननो प्रतिवादीए आश्रय करेलो होय, ते ते दर्शननी अपेक्षाएं, धर्मवादनो विषय होय बे; हवे ते धर्मवादनो विषय केवो ? तो के, मुमुदुर्जनो जे मोक्षार्थ, तेमां जे उपयोग एटले प्रयोजननो जाव, ते बे जेमां, एवो धर्मवादनो विषय जाणवो; वली ते, कर्मोपादाननी जे निर्जरा ते बे लद जेनुं, एवो जे धर्म, तेना हिंसादिक जे साधनो, ते बे स्वनाव जेनो एवो ते धर्मवादनो विषय बे. हवे ते धर्मना साधनोनुं वर्णन करे बे. पंचैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्मचारिणाम् ॥ श्रहिंसा सत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुनवर्जनम् ॥ ३ ॥ अर्थ- सघला धर्मचारितनां, पवित्र एवां, हिंसा, सत्य, स्तेय ( चोरी नहीं करवी ते ) त्याग, अने मैथुननुं वर्जन, ए पांच ( साधनो ) बे. टी कानोजावार्थ - हिंसा एटले प्राणीनी हिंसाथी निवृत्त थवुं ते, तथा सत्य, चोरी नहीं करवी ते, सर्व संगनो त्याग, तथा मैथुननो त्याग, एवी रीतना पांच पवित्र व्रतो, जैन, सांख्य, बौद्ध तथा वैशेषिक विगेरे सर्वने माननीक बे; अने ते व्रतोने जैनो म तो कहे ; व्यासने अनुसरनारा सांख्य लोको तेजने यमो कहे बे; केमके, ते अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, तथा अव्यवहार, तेज॑ने यमो कहे बे ने क्रोध ( क्रोध नहीं कखोते ) गुरुनी सेवा, पवित्रता, श्रप जोजन, ने अप्रमाद तेउने नियमो कहे बे. वली पाशुपत मतवाला ते दशेने धर्म कही ने माने बे; वली जागवत मतने माननाराजे ते दशेने पांच व्रतो, तथा पांच उपव्रतो कहीने माने बे ने बौको तेने कुशलधर्मो कही ने माने बे ने वैदिको तेने ब्रह्म शब्दें करीने माने बे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । वे ज्यारे ते व्रतो पवित्र बे, त्यारे ते कया दर्शनमां केवी रीते जोडी शकाय बे ? ते कहे बे. क्व खल्वेतानि युज्यंते, मुख्यवृत्त्या के वा नहि ॥ तंत्रे तत्तंत्रनीत्यैव, विचार्यं तत्वतो ह्यदः ॥ ३ ॥ धर्मार्थः प्रमाणादे, लक्षणं नतु युक्तिमत् ॥ प्रयोजनाद्यजावेन, तथा चाह महामतिः ॥ ४ ॥ अर्थ-या तंत्रन अंदर ते व्रतो, तेज तंत्रनी नीतियें करी ने मुख्यवृत्तिथी घटी शके बे ? ने कया तंत्रमां घटी शकतां नथी ? एव ते धर्मनाथं माणसोए तत्वश्री विचारखुं; अने प्रमाणादिकनुं लक्षण, प्रयोजन आदिका श्रावथी युक्तियुक्त नथी; नेतेने माटे महाज्ञानी एवा सिद्धसेन महाराज पण तेमज कहे बे. टीकानो जावार्थ-उपर कहेलां हिंसादिक पांचे व्रतो, कया तंत्रनी अंदर मुख्य वृत्तिथी योग्य रीते बे, अनेकया तंत्रमां नथी? तेने माटे विचार करवो; यने ते विचार पण तेनाज शास्त्रोथी करखो; पण बीजाना शास्त्रथी करवो नहीं; केमके, बीजाना शास्त्रना न्यायथी विचारतां तो तेनुं अघटितपणुं प्रगटज जाय; माटे एवी रीतनो तत्वथी विचार करवो; पण बीजी उलटी रीते विचार नहीं, केमके, तेम कर्याथी तो धर्मवादना श्रावनो प्रसंग श्रावे. दवे एवी रीतनो विचार कोणे करवो? तो के, धर्मना अर्थी करवो. माटे "स्वपरावजा सिज्ञानं प्रमाणं" एवी रीते प्रमापादिकनुं लक्षण विचारखुं ते युक्तिवालुं नथी; केमके, तेम करवामां कई पण प्रयोजन नथी; माटे जे जे प्रयोजन आदिकथी रहित बे, ते ते युक्तिवालुं नथी; जेम कांटावाली वृक्षनी डालीनुं मर्द्दन करते. अने तेवीज रीते महाबुद्धिवान एवा सिद्धसेन आचार्य कहे . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशमाष्टक. १२ए तेज हवे कहे जे. प्रसिझानि प्रमाणानि, व्यवहारश्च तत्कृतः ॥ प्रमाणलक्षणस्योक्ती, ज्ञायते न प्रयोजनम् ॥५॥ अर्थ-प्रत्यद आदिक प्रमाणो प्रसिद्ध , अने ते प्रमाणोथी करेलो व्यवहार पण प्रसिधज के माटे प्रमाणनुं लदाण कहेवामां कई प्रयोजन जणातुं नथी. टीकानो जावार्थ- प्रसिद्ध एवां जे प्रत्यद आदिक प्रमाणो,ते लोकोमा पोतानी मेलेज प्रसिद्ध के; पण कई प्रमाणना लक्षण बांधनाराऊनांज करेलां नथी. तथा ते प्रमाणथी करेलो एवो जे स्नानपानादिक व्यवहार, ते पण गोवाल, बाल, स्त्री आदिकोमां प्रसिधज जे. माटे " अविसंवादिज्ञानं प्रमाणं" इत्यादि, प्रमाणनुं लक्षण बांधq युक्त नथी; केमके, तेम करवानुं कंपण प्रयोजन जणातुं नथी. __ एवी रीते प्रमाणनु लदाण शोधवामां प्रयोजननो अनाव कह्यो. हवे तेज प्रमाणमां उपायनो अनाव देखाडवा माटे कहे जे. प्रमाणेन विनिश्चित्य, तमुच्येत न वा ननु ॥ अलदितात्कथं युक्ता,न्यायतोऽस्यविनिश्चितिः अर्थ- ( वादीने कहे जे के,) ते, तुं प्रमाणे करीने निश्चय करीने कहे ? के नहीं ? वली लदयमां नहीं आववाथी न्यायें करीने तेनो निश्चय शीरीते युक्त कहेवाशे? टीकानो जावार्थ- अहीं वादीने कहे जे के, ते प्रमाणनु लक्षण, तुं प्रमाणलदणना बनावनारना प्रत्यद आदिक प्रमाणथी निश्चय करीने कहे ने के, ते विना कहे जे? तेमांथी जो तुं पेहेलो पक्ष अंगीकार करीश, तो ते प्रमाणना लक्षणने निश्चय करनारं प्रमाण, तेना लक्षाणथी निश्चित श्रएटुं ? के, अनिश्चित भएलुं बे? अने कदाच निश्चित भएलुंजे,तो तेज अंगीकार करेला प्रमा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० श्रीदरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । थी के, कोइ बीजा प्रमाणथी निश्चित थएलुं बे ? त्यारे जो तुं कहीश के, तेज प्रमाणश्री निश्चित करेलुं बे, तो तेथी " अन्योन्याश्रय ” नामनो दोष आवशे. एवी रीते प्रमाणना लक्षणनो निश्चय, प्रमाथी थाय बे, अने ते लक्षणनो ज्यारे निश्चय थाय बे, त्यारे ते प्रमाण कहेवाय बे ने ज्यांसुधी तेनुं लक्षण निश्चित नथी थयुं, त्यांसुधी ते प्रमाणने प्रमाणपणुं घटी शके नहीं; ज्यांसुधी प्रमाणने प्रमाणपणुं घटी शकतुं नथी, त्यांसुधी लक्ष्एनो निश्चय श्रइ शकतो नथी; तेम अनवस्थादोषना प्रसंगथी बीजा प्रमाणथी पण तेना लक्षणनो निश्चय थइ शकतो नथी. केमके, जे बीजुं प्रमाण बे, ते निश्चित लक्ष्णवालुं बे, के, तेथी उलटी तनुं बे ? जो उलटी रीतनुं कहेशो, तो वक्ष्यमाण दोषनी प्राप्ति थशे. तेम निश्चित लक्ष्णवालुं पण तरी शकतुं नथी; केमके, तेना लक्षणनो निश्चय शुं तेथीज बे ? के, बीजाथी बे ? जो " तेथीज" एम कहेशो तो आगलनी पेठेज अन्योन्याश्रयदोष श्रवशे; वली जो प्रमाणांतरथी कहेशो तो तेने विषे पण निश्चित छाने निश्चित पदो घटी शकशे नहीं. कांबे के, अनिश्चित लक्षवाला, प्रमाणलक्षणना निश्चय करवावाला प्रमाणथी, ते प्रमा लक्षणनो निश्चय कोइ पण प्रकारे न्यायवालो कहेवाय नहीं; न जावार्थ एके, निश्चित लक्ष्णवाला प्रमाणवडे करीने निश्चय करीने, प्रमाणनुं जे लक्षण कहेनुं, ते न्याय्य बे, पण इच्छित प्रमाणना लक्षणने उत्पन्न करनार शास्त्रविना, प्रमाणना लक्षणने निश्चय करनार, एवा प्रमाणना लक्षणनो निश्चय करवो, ते व्याजबी नहीं; तेथी ते प्रमाणनुं प्रमाण अनिश्चित लक्षणवालुं यु, ने एवी रीते ज्यारे प्रमाणनुं लक्षण नथी मलतुं, त्यारे तेना लक्षणनो निश्चय करवो, ते वात युक्त नथी. हवे निश्चित लक्ष्णवाला प्रमाणथी पण प्रमाणना लक्ष्णनो निश्चय थशे, एवी जो वादी शंका करे, तो तेने माटे दवे कहे बे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशमाष्टक. १३१ सत्यां चास्यां तयुक्त्या किं, तद्वद्विषय निश्चितेः ॥ ततएवाविनिश्चित्य, तस्यो तिर्थ्यांध्यमेव हि ॥ ॥ अर्थ एवी रीते प्रमाणना लक्षणनो निश्चय सिद्ध होते ते तेनी पेठेज विषयना निश्चयथी ते कहेवाथी शुं ? अने तेथीज निश्चय कर्याविना जे तेनुं कहेवुं, ते बुद्धिनुं अंधपणुंज बे. टीकानो जावार्थ उपर कह्या प्रमाणे प्रमाणना लक्ष्णनो - निश्चय सिद्ध होते बते, ते प्रमाणने अंगीकार करवानुं शुं प्रयोजन बे ? अर्थात् कं प्रयोजन नथी. शामाटे ? के, प्रमाणना लदानी पेठेज तेथी तो प्रमेयना लक्षणनो पण निश्चय श्रशे; - र्थात् जेम निर्णित नहीं करेला लक्ष्णवाला प्रमाणें करीने प्रमाणनुं लक्षण जो निश्चय करी शकाय, तो प्रमेयने पण तत्वथी - निश्चितपणानो प्रसंग वशे. एवी रीते वादीना प्रथम पढ्नुं खंडन श्रयुं. हवे “अनिश्चित्य” एवा वादीना पहना दूषण माटे कहे बे. जेथी प्रमाणें करीने निश्चय करीने प्रमाणना लक्षणनुं प्रतिपादन उपर कहेली युक्तिथी मोहरूप बे, तेथीज प्रमाणें करीने निश्चय कर्याविना, प्रमाणना लक्षणनुं जे कहेनुं, ते बुद्धिनुं अंधपणुंज बतावे ; अर्थात् प्रमाणना लक्षणने प्रतिपादन करनारनी ते केवल मूर्खताज बे; कारण के, ते फोकट प्रयास बे. एवी रीते प्रमाणना लक्षणना विचारनुं, निष्प्रयोजनपणुं, तथा अनुपायपणुं देखाडीने, उपसंहरता थका प्रकृत धर्मवादनुंज विधेयप देखाडता थका हवे कहे बे. तस्माद्यथोदितं वस्तु, विचार्य रागवार्जितैः ॥ धर्मार्थः प्रयत्नेन, तत ईष्टार्थसिद्धितः ॥ ८ ॥ अर्थ- माटे राग रहित एवा धर्मनार्थी माणसोए यथास्थितवस्तुने प्रयत्नें करीने विचारवी; केमके, तेथी ईष्ट अर्थनी सिवि थाय बे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ श्रीहरिप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । टीकानो लावार्थ- जेश्री प्रमाण आदिकना लक्षणनो विचार प्रयोजन आदिकथी रहित , तेथी धर्मसाधनना स्वरूपवाली यथोक्त वस्तुनुं विवेचन करवू; कोणे ते विवेचन करवू ? तो के, स्वदर्शनना पक्षपातविनाना, अने उपलदाणथी परदर्शनपर घेषविनाना एवा धर्मना अर्थि माणसोए आदरपूर्वक विवेचन करवं. विनाना एवा धमना आमा केमके, धर्मार्थना साधनजूत एवा विषयना विचारथी वांछित अर्थनी प्राप्ति थाय . एवी रीते तेरमा अष्टकनुं विवरण संपूर्ण श्रयु. चतुर्दशमाष्टकं प्रारभ्यते. नपरना अष्टकमां कया दर्शनमां तेनाज शास्त्रनी नीतियें करीने, अहिंसादिक जोडी शकाय ? अने कया दर्शनमा नथी जोडी शकातां? एवो विचार करवानुं तो कयु. हवे तेज तेवीज रीते विचारता थका कहे . तत्रात्मा नित्य एवेति, येषामेकांतदर्शनम् ॥ हिंसादयः कथं तेषां, युज्यंते मुख्यवृत्तितः ॥१॥ अर्थ-त्यां आत्मा नित्यज बे, एवी रीते जेठनो एकांत मत , तेजने मुख्यवृत्तिथी हिंसादिक शीरीते घटी शके ? टीकानो नावार्थ-जे हमेशां अपर अपर पर्यायप्रते गमन करे, ते "आत्मा” कहेवाय; एवोजे आत्मा,तेधर्मसाधनरूप एवा विषयना विचारमा " नित्यज" बे, अर्थात् अस्खलित, उत्पन्न न थप शके एवो, तथा स्थिररूपवालो जे; अने कोइ पण रीते अनित्य नथी; एवो जे नैयायिक, वैशेषिक, तथा सांख्य आदिकनो अनेकांत वस्तुमां पण एकांत मत , तेने हिंसा, असत्य, अहिंसा, कापणुं, जोगववापणुं, तथा जन्मादिक पण शी रीते घटी शके? अर्थात् कोइ पण रीते घटी शके नहीं. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशमाष्टक. १३३ हिंवादी शंका करे के, नित्य आत्मामां पण ते हिंसादिक घटी के बे, केमके, अमारां शास्त्रमां कह्युं वे के, ज्ञानयत्नादिसंबंधः, कर्तृत्त्वं तस्य वर्ण्यते ॥ सुखदुःखादिसंवित्ति समवायस्तु भोक्तृता ॥ १ ॥ अर्थ - ज्ञान यत्नादिकनो संबंध, कर्तापणुं, सुख-दुःखादिकना ज्ञाननो समवाय; तथा जोक्तापणुं श्रात्माने कहेतुं वे. निकायेन विशिष्टाभि रपूर्वाभिश्च संगतिः ॥ वुद्धिभिर्वेदनाभिस्तु, तस्य जन्माभिधीयते ॥ २ ॥ अर्थ - उत्तम ने पूर्व एवी बुद्धिथी आत्मानुं शरीर साथे जोडा था, ने वेदनायें करी ने तेनो जन्म कहेवाय बे. प्रागात्ताभिर्वियोगस्तु, मरणं जीवनं पुनः ॥ 1 सह देहस्य मनोयोगो, धर्माधर्माभिसंस्कृतः ॥ ३ ॥ अर्थ - तेनी साथे जे वियोग, ते मरण कहेवाय, ने धर्म धर्मे करीने संस्कृत थलो जे देहनी साथे मननो योग, ते जीवन कहेवाय. एवं मरणादियोगेन, हिंसा युक्तावसीयते ॥ तत्प्रतिपक्षभूतापि किमहिंसा न युज्यते ॥ ४ ॥ - वीरी मरणादिकना योगें करीने, आत्माने हिंसा घटी के बे, तेथी तेनाथी प्रतिपक्षरूप जे काहींसा ते शामाटे न घटी शके ? सत्यादीन्यपि तेनैव, घटते न्यायसंगतेः ॥ एवं हिंसादयो ज्ञेया, वैशेषिकविकल्पनाः ॥ ५ ॥ - तेज सत्यादिक पण आत्माने न्याय पूर्वक घटी शके बे, एवी रीते हिंसादिकनी वैशेषिक कल्पनार्ज पए जाएं। लेवी. वली सांख्यो विशेष माने बे, के, प्रतिबिंबोदयन्याया, देव तस्योपभोक्तृता ॥ न जहाति स्वरूपं तु, पुरुषोऽयं कदाचन ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ श्रीहरिलजसूरिकृतान्यष्टकानि । अर्थ-प्रतिबिंबना उदयना न्यायथीज श्रात्माने नोक्तापर्यु घटी शके जे, पण ते पोतानुं स्वरूप कोइ पण वखते तजतो नथी. ___एवी रीते सघलुं वादीनुं कहे, अयुं; हवे तेने आचार्य महाराज कहे ने के, आत्माने ते हिंसा आदिक मुख्यवृत्तिथी घटी शकतां नथी, पण उपचारथी घटी शके . माटे एवी रीते एकांत नित्य आत्माने बुद्धि, वेदना, वियोग आदिक घटी शकतां नथी; अने तेथी आत्मानुं एकांत नित्यपणुं घटी शकतुं नथी; केम के, नित्यने तो एकस्वरूपपणुं होय . __ हवे ते एकांत नित्य आत्माने ते हिंसादिक मुख्यवृत्तिथी केम घटतां नथी ? तेने माटे कहे . निष्क्रियोऽसौ ततो हंति हन्यते वा न जातुचित् ॥ किंचित्केनचिदित्येवं, न हिंसास्योपपद्यते ॥२॥ अर्थ-आ (एकांतनित्य ) आत्मा क्रियारहित बे, तेश्री कोइ पण वखते कई पण ते हणतो नथी, अने कोनाथी पण ते हणातो नथी; अने तेथी तेने हिंसा लागती नथी. टीकानो जावार्थ-क्रियाथीजे रहित होय, ते "निष्क्रिय" कहेवाय; एवो आ आत्मा एकांत नित्य बे. हवे ते वादीने कहे ले के, ते नित्य आत्मा अनुक्रमे कार्य करे ? के, एकी वखते कार्य करे ? क्रमवडे करीने तो ते कार्य करी शकतो नथी; त्यारे ते एक कार्य करती वेलाए बीजुं कार्य करवाने समर्थ डे, के, अ समर्थ के ? असमर्थ तो घटशे नहीं; केम के, नित्यने एकरूपपणुं होवाथी हमेशां तेने असमर्थपणानो प्रसंग आवशे; तेम समर्थ पण घटशे नहीं; केम के, तेथी तो कालांतरमा करवाना सघलां कार्योने करवानो प्रसंग आवशे; वली कारण होते बते संपूर्ण सामर्थ्य पण कार्य नथी करतुं, ते कहेवूयुक्त नथी; कारण के, तेथी तो अहीं कहेवाना कार्यने पण नहीं करवानो प्रसंग वशे; त्यारे वादी कहे जे के, आत्मा सहकारी कारणना अ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशमाष्टक. १३५ जावथी बीजुं कार्य करी शकतो नथी; त्यारे वली आचार्य महाराज तेने पूढे ने के, ते सहकारी पणुं उपकारवालुं थाय ? के उपकारविनानुं थाय ? जो उपकारविनानुं कहेशो, तो वंध्यापुत्रादिकना पण सहकारी पणानो प्रसंग वशे अने कदाच उपकारी कहेशो, तो तेनाथी जिन्न उपकार करे बे के जिन्न उपकार करे बे ? तेमां जो निन्न मानशो तो, ते हमेशां उपकाररहित बे ने जो अभिन्न उपकार कहेशो, तो तो तेनो तेज कर्यो कवाशे अने एवी रीते श्रात्माना नित्यपणानो नाश श्रशे; एवी रीते नित्य आत्माने क्रमवडे करीने कार्य करवानुं घटी शकतुं नथी. तेम एकी वखते पण ते कार्य करी शकतो नथी; केम के, वर्तमान समयमांज, तेनाथी जन्य एवां सघलां कालनां कार्यो करवानो तेने प्रसंग वशे अने तेवी रीते तो बनी शकतुं नथी; माटे जे नित्य ते अक्रिय होय बे; श्रथवा केटलाक नित्यात्मवादी पण आत्मानुं कर्तापणुं माने बे, एवी रीते आत्मा ज्यारे क्रिया विनानो थयो, त्यारे तेनाथी कई पण सूबादरादिक जीवनी हिंसा थइ शकशे नहीं; तेम वली ते - त्मा को दहाड़ो को घातकी पुरुषथी दंडादिक वडे हातो पण नथी; माटे एवी रीते एकांत नित्य आत्माने हिंसा घटी शकती नथी. हवे ते हिंसा नहीं घटी शकवाथी शुं थाय ? ते कहे बे. जावे सर्वथैतस्या; अहिंसापि न तत्वतः ॥ सत्यादिन्यपि सर्वाणि नाहिंसासाधनत्वतः ॥३॥ अर्थ- सर्वथा हिंसानो आत्माने नाव होते ते तत्वथी तेने हिंसा पण घटी शके नहीं; अने तेवीज रीते हिंसाना साधनाश्री सत्य आदिक सर्व पण तेने घटी शके नहीं. टीकानो जावार्थ-ते हिंसानुं आत्माने सर्वथा विद्यमानपणुं होते बते, परमार्थथी तेने हिंसा पण घटी शके नहीं. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । ही वादी शंका करे के; ते आत्माने जले अहिंसा न घटे, पण सत्यादिक धर्मनां साधनो तो तेने घटी शके. तेने माटे नेक बेके, ते सत्य श्रादिक सघलां धर्मनां साधनो पण तेने घटी शके नहीं; केम के, ते सत्यादिक हिंसाथीज साधी शकाय बे. माटे साध्यनो नाव होते ते साधननी क्रिया निरर्थकज बे, केम के आकाशना पुष्पना रक्षण माटे कील्ला - दिक बांधवानो यत्न करवो, ते लायक कहेवाय नहीं. छाने ते सत्यादिको हंसाना साधनरूप वे, एम सघला आस्तिकोनो मत बे; अने तेमां पण जैनोनो तो ते मुख्य मत छे. कह्युं वे के, एकचियइत्थवयं, निदिहं जिणवरेहिं सव्वेहिं ॥ पाणाइवायविरमण, मवसेसा तस्स रकट्ठन्ति ॥ १ ॥ अर्थ- सघला जिनेश्वरोए प्राणातिपात विरमण नामनुं मुख्य व्रत कलंबे, ने बाकीना बीजां व्रतो तो तेना रक्षण माटे बे. हवे ज्यारे हिंसाना अनावश्री आत्माने सत्यादिक पण नथी घटी शकतां, त्यारे शुं थाय ? तेने माटे कहे बे. ततः सन्नी तितो जावा, दमीषामसदेव हि ॥ सर्वं यस्मादनुष्ठानं, मोहसंगतमेव च ॥ ४ ॥ अर्थ - उत्तम नीति पूर्वक ते हिंसादिकना श्रावश्री यमनियमादिक सघली क्रिया पण असत् वरे, अने ते तो सघलुं मूढता नरेलुंज कहेवाय. टीकानो जावार्थ - तेथी तो उत्तम न्यायथी, ते हिंसादिकना जावथी, ते यमनियमादिकनी क्रिया पण विद्यमा नपणानेज प्राप्त थाय. ( यम एटले अहिंसादिकथी निवृत्ति, अने नियम एटले शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, तथा ईश्वरनुं ध्यान ) हवे कदाच ते हिंसादिक आत्माने उपचारथी कोइ माने, तो ते पण अज्ञानयुक्त बे; केमके, एक स्वभाववाला आत्माने मुक्तिनो असंभव होवाथी, तेनेमाटे जे क्रिया करवी, ते अज्ञानयुक्तज बे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशमाष्टक. १३७ वली आत्मानुं नित्यपणुं अंगीकार करवामां बीजुं दूषण हकहे . शरीरेणापि संबंधो, नात एवास्य संगतः ॥ तथा सर्वगतत्वाच्च, संसारश्चाप्यकल्पितः ॥ ५ ॥ अर्थाने तेथी करीने आत्माने शरीरनी साथे पण संबंध घटी शकतो नथी; तथा तेने सर्वव्यापकपणुं होवाथी तात्विक संसार पण घटी शकतो नथी. टीकानो जावार्थ - अनित्य एवा आत्मामां केवल अहिंसादिकोज नथी घटी शकतां तेम नहीं, पण ते निष्क्रिय होवाथी, तेने शरीर साधे पण संबंध घटी शकतो नथी. केम के, क्रियारहित संबंध क्रिया होती नथी. हवे अहीं श्राचार्य महाराज वादी कहे, नित्य एवा आत्माने शरीरनो संबंध, पूर्वरूपना त्यागथी थाय छे ? के त्यागथी थाय बे ? जो अत्यागथी कहेशो, तो ते आत्मा शरीरसाथे संबंधवि नानो थशे; केम के, शरीरना संबंधपणारूप वे लक्षण जेनुं, एवा पूर्वरूपने ते अवस्थापणुं बे. जो त्यागथी कहेशो तो, श्रामाने नित्य श्रवशे, केम के, स्वभावना त्यागने अनित्यनुं लक्ष्पएं बे. माटे एवा नित्य आत्माने शरीरनी साधे संबंध थइ शकतो नथी. बली केटलाको ते श्रात्माने सर्व भुवनमां व्यापक माने वे, तेथी, तथा निष्क्रिय अथवा नित्य होवाथी, तेने तिर्यच, नर, नारक, तथा देवपणांरूप संसार पण घटी शकतो नथी; केम के, संसार तो तात्विक रीते सर्वव्यापकनेज तथा सक्रिय कथंचित अनित्यनेज घटी शके े अने कहिपत रीते तो संसार घटावीयें, तो पण ते प्रकाशना पुष्पनी पेठे हयोपादेय कोटीने प्राप्त थतो तथी. एव ते आत्माने सर्वव्यापकपणाथी संसारनो श्राव होते बते, जे प्राप्त श्रयुं ते हवे कड़े बे. १८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ श्रीहरिलप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । ततश्चोर्ध्वगतिधर्मा, दधोगतिरधर्मतः॥ झानान्मोक्षश्च वचनं, सर्वमेवौपचारिकम् ॥ ६॥ अर्थ-अने तेथीतो,"धर्मथी आत्माने उर्ध्वगति" अधर्मथी अधोगति, तथा ज्ञानथी मोक्ष थाय ने, एवी रीतनुं (शास्त्रनुं) सर्व वचन औपचारिक गणाय. ___टीकानो नावार्थ- एवी रीते श्रात्माने संसारनो अलाव होते बते, “अहिंसादिक धर्मथी श्रात्माने स्वर्गादिक ऊर्ध्वगतिमले ने; तथा हिंसादिक अधर्मथी आत्माने नरक आदिक अधोगति मले , तथा पचीश तत्वना ज्ञानश्री आत्माने सकल कर्मोथी मुक्त श्रवारूप मोद मले ," एवी रीतनुं ( शास्त्रनुं ) वचन, ते सघलुं निरर्थकपणाने प्राप्त थाय. सांख्योए धर्मथी आत्माने ऊर्ध्वगति नीचे प्रमाणे मानेती जे. कृष्ण ईश्वर कहे ने के, धर्मेण गमनमूर्व, गमनमधस्ताद् भवत्यधर्मेण ॥ ज्ञानेन चापवर्गो, विपर्ययादिष्यते बंधः॥१॥ अर्थ- धर्मथी आत्मानुं ऊर्ध्वगमन थाय, तथा अधर्मश्री श्रात्मानुं अधोगमन थाय , अने झानश्री तेने मोक्ष मले में, अने तेथी उलटी रीते श्रात्माने बंध पडे . पंचविंशतितत्वज्ञो, यत्र तत्राश्रमे रतः ॥ जटी मुंडी शिखी चापि, मुच्यते नात्रसंशयः॥२॥ अर्थ- पचीश तत्वोने जाणनार एवो जटाधारी, मुंडित, अने चोटलीवालो, गमे ते श्राश्रममां रक्त थयो श्रको पण मोद पामे बे, तेमां कं; पण संशय नथी. __अहीं वादी शंका करे के, आत्माने सर्वव्यापकपणायें करीने संसारनो अनाव होते ते पण, ज्यारे ऊर्ध्वलोकमां पोताना हेतुथीज तेने जोगायतन थाय , त्यारे ऊर्ध्वगति देखाय ने अने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशमाष्टक. १३ए अधोगतिथी अधोगति देखाय बे, एवी रीते नोगायतनना घारें करीने श्रात्माने ऊर्ध्वगत्यादिक थशे. तेने माटे हवे ते वादीने कहे बे. जोगाधिष्ठान विषये, ऽप्यस्मिन् दोषोऽयमेव तु ॥ तन्नेदादेव लोगोऽपि,निःक्रियस्य कुतो नवेत्॥७॥ अर्थ- नोगना स्थानकरूप एवा शरीरना विषयवाला आ संसारमां पण तेज दोष आवे बे; अने लोग पण क्रियानो नेद हो- , वाधी, निष्क्रिय एवा आत्माने ते शी रीते घटी शके ? ____टीकानो नावार्थ- “लोग" एटले विषयने जणावनार एवा मननु आत्माने विषे स्फटिकोपाधिना न्यायथी जे प्रतिबिंब पडे ते; कोई विंध्यवासी कहे जे के, पुरुषोऽविकृतात्मैव, खनिर्भासमचेतनम् ॥ मनः करोति सांनिध्या, दुपाधिः स्फटिकं यथा ॥१॥ अर्थ- पुरुष विकाररहित आत्मावालो जे; पण तेने अचेतन एवं जे मन, ते उपाधि जेम स्फटिकने, तेम पोताना सरखो करी दे . ततश्चेकपरिणती, बुद्धौ भोगोऽस्य कथ्यते ॥ प्रतिबिंबोदयः स्वच्छ, यथा चंद्रमसोऽभसि ॥२॥ अर्थ- जेम स्वच्छ पाणीमां चंजना प्रतिबिंबनो उदय थाय ने, तेम एवी रीतनी परिणतिवाली बुद्धिमां तेनो लोग कहेवाय ने. ते लोगनुं जे स्थानक, ते " नोगाधिष्ठान" कहेवाय; अर्थात् बुद्धि, अहंकार, तथा इंजियादिकरूप प्रकृतिनो विकार होते बते, आत्मानो जेमां लोग थाय चे, ते शरीर; अने ते चे विषय ज्यां एवा पण श्रा संसारमा उपर कहेलोज ऊर्ध्वगत्यादिक संसारना अपारपणाने जणाववावालोज दोष आवे के केमके लोगोनुं स्थानक शरीरज , अने तेनी साथे आत्माना निष्क्रियपणाथी तेनो संबंध थवो युक्त नथी; अने ते संबंधना अनावधी तेने धारण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० श्रीहरिलजसूरिकृतान्यष्टकानि । करनार जे संसार, ते औपचारिकज जे. माटे एवी रीते लोगाधिष्ठानरूप शरीरनी कल्पना करवी, ते अयुक्त ने, केमके, लोगनुंज श्रात्माने जोडावापणुंचे. अने तेथी सघली क्रियाउँथी रहित एवा आत्माने, नोगाधिष्ठानना विषयरूप एवो संसारज घटतो नथी, एटटुंज नहीं, पण क्रियाना नेदरूप होवाथी लोग पण तेने क्याथी घटी शके ? अर्थात् नज घटी शके. ___एवी रीते श्रात्माने निष्क्रयज मानवाथी तेने अहिंसा, शरीरनो संबंध, तथा जोगना अनावरूप दोष आवे बे, तेथी श्रात्माने कर्तापणुं मानवं योग्य जे; तेने माटे हवे कहे . इष्यते चेक्रिया प्यस्य, सर्वमेवोपपद्यते ॥ मुख्यवृत्त्यानघंकिंतु, परसिकांतसंश्रयः॥ ७ ॥ अर्थ-- जो ते अनित्य आत्माने कंपण क्रिया घटे, तो ते निर्दोष एवं अहिंसादिक सर्व तेने घटी शके; पण तेमां जैनोए मानेला परिणामवादनो आश्रय लेवो पडे बे. टीकानो लावार्थ- जो अनित्य श्रात्माने शरीरसंबंध आदिक कंई पण क्रिया मानीयें, तो तेने निर्दोष एवं अहिंसादिक सर्व घटी शके जे; ते पण केवी रीते घटी शके ? तो के मुख्यवृत्तिथी केतां परमार्थपणाथी घटी शके. पण तेमां जैनोए मानेला परिणामवादनो श्राश्रय लेवो पडे बे; पण कदाग्रहविनाना मोदनी श्वगवाला माणसने ते कबुल करवं अति पुष्कर नथी. माटे एवी रीते एकांत नित्य आत्माने मानवावालाना मतमां अहिंसादिक घटी शकतां नथी; एम नक्की श्रयुं. एवी रीते चौदमा अष्टकनुं विवरण संपूर्ण आयुं. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशमाष्टक. १४१ पंचदशमाष्टकं प्रारच्यते. एवी रीते व्यास्तिक मतमा जे धर्मवादना विषयनूत एवा अहिंसादिक धर्मनां साधनो नथी घटतां, ते उपर कडं; हवे पर्यायास्तिक मतमां जेम ते नथी घटी शकता, तेम कहे जे. क्षणिकज्ञानसंतान, रूपेऽप्यात्मन्यसंशयम् ॥ हिंसादयो न तत्वेन, खसिद्धांतविरोधतः॥१॥ अर्थ- क्षणिक ज्ञानना संतानरूप एवा आत्मामां संशयरहितपणे, पोतानाज सिघांतना विरोधथी, तत्वें करीने हिंसादिको घटी शकतां नथी. टीकानो नावार्थ- केवल नित्यरूपमां नहीं, पण क्षणिक झाननो जे प्रवाह, ते रूप एवा आत्मामां पण, संदेह रीते जेम थाय तेम, हिंसादिको निरुपचार वृत्तिथी घटी शकतां नथी; वली ते केवल वचनमात्रथीज नथी घटतां तेम नथी, पण तेनां पोतानांज शास्त्रना विरोधथी ते घटतां नथी. हवे तेना पोतानांज सिद्धांतनो ते विरोध देखाडता थका कहे जे. नाशहेतोरयोगेन, क्षणिकत्वस्य संस्थितिः॥ नाशस्य चान्यतोऽनावे, नवेकिंसाप्यहेतुका ॥२॥ अर्थ- नाशना हेतुना अयोगथी क्षणिकपणानी स्थिति बे, अने नाशनो बीजी रीते अनाव होते बते, हिंसा पण हेतुविनानी थाय. ___टीकानो लावार्थ- नाशना कारणना अयोगथी (बौधोनी) क्षणक्षयीपणानी व्यवस्था जे; ते नीचेप्रमाणे ते क्षणवादी कहे ने के, मुजरादिक नाना प्रकारना हेतुथी घटादिकनो नाश थाय ; त्यारे तेने आचार्य महाराज पूजे जे के, ते नाश ते घटथी निन्न कराय ? के अनिन्न कराय ? जो जिन्न कहेशो, तो ते घडो तेवोने तेवोज रहेवो जोइए; अने अनिन्न कहे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । 3 शो, तो घडो पोतेज बन्यो, एम थशे अने ते घडो तो, पोतासंबंधी कारणना समूहवडेज कराणो, माटे तेने कई पण करणीय नथी; एवी रीते नाशना हेतुनुं घटमानपणुं नहीं होवाथी, नाश नारा पदार्थो पोतानी मेलेज नाश पामे बे; छाने पोतानी मेले नाश थनारने तो फरी ने उदय थवानी पेहेलांज मोक्ष थवो जोइए. हवे नाशहेतुना जावथी जो क्षणिकपणानी व्यवस्था याय तो तेथी शुं थाय ? ते कहे बे. स्वावी व्यतिरिक्त एवा अनाशना हेतुथी, नाशनो - नाव होते बते, सर्व नाशोने निर्हेतुपणं श्रवशे; अने तेथी केवल घटादिकनो दयज निर्हेतु श्रशे तेम नहीं, पण तेथी तो हिंसा पण हेतु विनानी थशे; हवे ते हिंसाना निर्हेतुपणामां जे दूषण आवे बे, ते कहे बे. ततश्चास्याःसदा सत्ता, कदाचिन्नैव वा जवेत् ॥ कादाचित्कं हि वनं, कारणोप निबंधनम् ॥ ३॥ - तेथी करीने हिंसानुं हमेशां बतापणुं कदाचित् था य, अथवा नज थाय. छाने कदाचित् श्रवापणुं तो कारणना निबंधनरूप वे. टीकानो जावार्थ - ज्यारे या हिंसा हेतुरहित बे, त्यारे तेनुं वखते होय, अथवा नज होय; ते एवी रीते केम ? तो के, कदाचित् पण जे श्रवापणुं बे, ते कारणना निबंधनरूप बे. कांबे के, ताप को नित्यं सत्वमसत्वं वा, हेतोरन्यानपेक्षणात् ॥ अपेक्षातो हि भावानां, कदाचित्कत्वसंभवः ॥ १ ॥ वादी शंका करे के, उत्पादकज हिंसक बे, माटे हिंसाने निर्हेतुप शामाटे कहेवाय ? ने निर्हेतुपणाना श्राश्रयवा - at eat नित्यत्वादिकनो दोष पण ( श्रात्माने ) केम घटे ? तेने माटे वादीने पूबे बे के, ज्यारे उत्पादकनेज हिंसक क Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशमाष्टक. २४३ स्पीयें, त्यारे ते संताननो के क्षणिकनो हिंसक ? ( एवा बे विकटपो थया.) हवे तेमांथी पेहेला विकल्पनो दोष देखाडता थका कहे . नच संताननेदस्य, जनको हिंसको नवेत् ॥ सांवृतत्वान्न जन्यत्वं, यस्मादस्योपपद्यते ॥४॥ अर्थ-संतानन्जेदने उत्पन्न करीनारो हिंसक थई शकतो नश्री, केम के, काल्पनिक होवाश्री संतानजेदने जन्यपणुं घटी शकतुं नथी. टीकानो लावार्थ-"संताननेद" एटले दाणनी जे परंपरा, तेने उत्पन्न करनारो हिंसक ठरी शकतो नश्री; जेम हणाता एवा हरिणनी क्षणपरंपराना बेदे करीने, उत्पन्न अनारी एवी जे मनुष्यादिकना हानी परंपरा, तेने उत्पन्न करनारो जे पाराधि आदिक ते हिंसक थइ शकतो नथी. ते शामाटे ? के, काल्पनिकजावपणाथी संताननेदने जन्यपणुं घटी शकतुज नथी; अर्थात् जे पदार्थ जन्य नथी, तेने आकाशपुष्पनी पेठे उत्पन्न करनारो पण नथी; अने एवी रीते संताननेद अजन्य , माटे तेनो उत्पादक पण कोइ नथी; अने तेना अन्नावथी हिंसकनो पण अनाव जे अने संतानपंरपरा काल्पनिक होवाथी तेने अजन्यपणुं असिद्ध नथी; केम के, जे काल्पनिक , ते श्राकाशकमलनी पेठे अजन्य ; अने काल्पनिक संतानरूप ने, माटे ते श्रजन्य ; केम के, काल्पनिकपणुं, संतानिथी नेदालेदना विकहपधारायें चिंतवन कराता संतानने घटी शकतुं नथी. वहे बीजा विकटपना दूषण माटे कदे . नच दण विशेषस्य, तेनैव व्यभिचारतः॥ तथा च सोऽप्युपादान, नावेन जनको मतः ॥५॥ अर्थ-क्षणविशेषने उत्पन्न करनारो पण, तेनीज (अंत्यक्ष Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । नी) साथे विरोध आववाथी हिंसक वरी शकतो नथी; अने ते त्या पण उपादनजावें करीने उत्पन्न करनारो मानेलो बे. टीकानो जावार्थ-मरता एवा लुंड आदिकना हा पक्षी उत्पन्न नारा मनुष्यादिकना हणनो उत्पादक हिंसक थइ शकतो नथी. शामाटे ? तो के, मरता एवा हरिणादिकना अंत्यक्ष करी ने मां व्यजिचार वे बे. वली पाराधिनो दराज नहीं, पण मरता एवा हरिणादिकनो त्या पण, परिणाम कारणपणायें करीने उत्पादक मानेलो बे; एवी रीते उपादान ने पण हिंसकपणुं प्राप्त थj. वादी शंका करे के, उपादान क्षणने जले हिंसकपणं वे, तेमां श्रमने शुं अडचण बे ? तेने माटे हवे ते वादी ने कहे . तस्यापि हिंसकत्वेन, न कश्चित्स्यादहिंसकः ॥ जनकत्वाविशेषेण, नैवं तद्विरतिः क्वचित् ॥६॥ अर्थ - तेना पण हिंसकपणायें करीने, कोइ पण अहिंसक थ‍ शकतो नथी ने जनकपणाना विशेष करीने तेनी विरति क चित् पण थती नथी. ; टीकानो जावार्थ- पाराधिना अंत्य दणना हिंसकपणायें करी ने तो एक बाजु रघुं, पण मरनार एवा हरिणादिकना अंत्य क्षणना हिंसकपणायें करीने पण, कोइ बोधिसत्वादिक पण, श्राहिंसक न थइ शके. ते शामाटे ? के, बुद्धादिक तथा पाराधिकादिना - नंतर क्षणना उत्पादकपणामां का विशेषपणुं बे, माटे; अने उपादान सहकारी जावें करीने ते मां जो के विशेष मानीयें, तोपण तेमां ज्यारे सहकारीपणाथी हिंसकपणुं वे, तो उपादानजावथी तो ते सुखेथी इ शके . ज्यारे ते बन्नेमां कई जुदापणुं नथी, त्यारे हिंसकपणुं वे, एवी आशंका करीने कहे वे के, एम नहीं; केमके, या जनकहिंसकत्ववाला प्रकारें करीने, हिंसानी निवृत्ति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशमाष्टक. १४५ देशांतरे, कालांतरे, पुरुषांतरे, अवस्थांतरे, अने विषयांतरे पण इ शकती नथी. अहीं वादी शंका करे के, जले अहिंसको न था ? तेमां मोने नुकशानी थती नथी. तेने माटे हवे तेने कहे बे. उपन्यासश्च शास्त्रेऽस्याः, कृतो यत्नेन चिंत्यताम् ॥ विषयोऽस्य यमासाद्य, हंतैष सफलो जवेत् ॥ ७ ॥ अर्थ - ( हे बौद्धो ! ) ते हिंसानो अंगीकार तमाराज शास्त्रमां कर्यो बे, माटे तेनो विषय यत्नपूर्वक चिंतववो; के, जे विषयने पामीने तमारो ते शास्त्रनो उपन्यास सफल थाय. टीकानो जावार्थ - बौद्धो !!! तमारां शास्त्रमां ते हिंसानुं प्रतिपादन करेलुं बे; कां वे के, सर्वे संति दंडिनां सर्वेषां जीवितं प्रियम् ॥ आत्मानमुपमं मत्वा, नैवहिंसे न घातये ॥ १ ॥ अर्थ - ( वुमतनो कोइ साधु कहे बे के ) सघला लोको हश्रीयारवालाथी बीए बे; केम के, सर्वने जीवित प्रिय बे; माटे तेउने मारा आत्मा सरखा मानीने, हुं कोइनी हिंसा के, घात कतो नथी. माटे एवी रीतनो ताराज शास्त्रमां प्रतिपादन करेलो हिंसानो विषय, तारे आदरपूर्वक चिंतववो; ते विषय केवो बे ? तो के जेने मेलव्याथी ते तारा शास्त्रनो उपन्यास सफल थाय. हवे हिंसाना घटमानपणाथी, सत्यादिक जे धर्मसाधनो ते पण नहीं घटी शके, तेने माटे कडे बे. जावेऽस्या न युज्यंते, सत्यादीन्यपि तत्वतः ॥ अस्याः संरक्षणार्थं तु, यदेतानि मुनिर्जगौ ॥ ८ ॥ - हंसानाव होते बते, तत्वथी सत्यादिको प घटी शकतां नथी; केम के, ते हिंसाना रक्षण माटेज जिनेश्वरोए तेमने कहेला बे; ( केम के, सत्यादिक पालवा विनाना १९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ श्रीहरिलप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । आचरणमां विधान प्रयत्न करतो नथी.) (टीकानो नावार्थ - पर प्रमाणेज बे.) एवी रीते पंदरमा अष्टकनुं विवरण संपूर्ण अयुं. षोडशाष्टकं प्रारज्यते. ज्यारे एकांत नित्य अने अनित्य आत्मामां हिंसादिको नथी घटतां, त्यारे क्यां घटे बे ? तेने माटे हवे कहे . नित्यानित्ये तथा देहाद्, जिन्नानिन्ने च तत्वतः ॥ घटते धात्म निन्यायाद्, हिंसादीन्य विरोधतः॥१॥ अर्थ-नित्य अने अनित्य, तथा देहथी जिन्न अने अभिन्न एवा ( स्याघादमय ) आत्मामां तत्वथी अने न्यायथी अविरोधपणे हिंसादिको घटी शके बे. टीकानो लावार्थ-नित्यानित्य आत्ममां हिंसादिको घटी शके बे, पण एकांत नित्यानित्य वस्तु कं; पण कार्य करवाने समर्थ नथी. केम के, रूप बदलाइ जवाथी माटीना पिंडनी पेठे घडो पिंडर्नु कार्य करी शकतो नथी; कारण के, माटीना पिंडपणानो जाव बुटी जवाथी तेने अनित्यपणानी प्राप्ति आवेने अने पटनी पेठे सर्वथा प्रकारे माटीपणानो अनाव मानवाथी, घडो माटीना पिंडनुं कार्य यश् शकतो नथी; अने माटीना पिंडना पर्यायनो नाश थवाथी, तथा तेनी साथे माटीपणुं पण आववाथी वस्तुने नित्यानित्यपणुं घटे बे. कडुं ने के, घटः कार्य पिंडस्य, पिंडभावानतिक्रमात् ॥ पिंडवत्पटवच्चेति, स्यात्क्षयित्वादिन्यथा ॥१॥ नावार्थ-पिंड अने पटनी माफक, पिंडपणाने न उलंगी जवाथीज पिंडनुं कार्य घडो थाय ने अने जो एम नहीं मानीयें, तो घडानी उत्पत्तिज घटशे नहीं. माटे एवी रीते नित्यानित्यज वस्तु कार्य करवाने समर्थ बे; Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोडशाष्टक. १४७ अहीं वादी शंका करे के, नित्य अने अनित्यपणाने तो परस्पर विरोध के, तो ते बन्ने नावोनुं एक वस्तुमां होवापणुं केम घटे ? तेने माटे हवे तेने कहे जे के, जेम परमार्थ अने व्यवहारनी अपेवाश्री ज्ञाननी ब्रांति अने अज्रांति साथेज थाय , तेम - व्यथी नित्यपगुं, अने पर्यायथी अनित्यपणुं विरूध नथी; तेम प्रव्य अने पर्यायमां परस्पर नेद नथी; केम के, वस्तुमां जे रूप मुख्यताथी नथी रां, ते अव्य कहेवाय ने, अने जे मुख्यताथी रघु बे, ते पर्याय कहेवाय जे. (पण बन्ने साये तो रह्यांज बे.) तथा शरीरथी निन्न अने अनिन्न एवा आत्मामां ते हिंसादिको घटी शके के केम के आत्मा शरीरथी जिन्नाभिन्न . कारण के, जीव अरूपी होवाथी, तथा देह रूपी होवाथी, रूपी अने अरूपीपणा तरिके तेमां नेद जे; तथा देहने स्पर्शादिक श्रवाथी, जीवनेज सुखःखनी प्राप्ति श्राय डे, माटे तेमां अनेद पण . अने जो एकांत रीते तेमां नेद मानीए, तो शरीरे करेलां कर्मो जवांतरमा जीवने जोगववां न पड़े, अने जो एकांत अजेदज मानी, तो परलोकनी हानि थाय, केम के, तेथी तो शरीरना नाशथी जीवनो पाण नाश पाय. (माटे एवी रीते आत्माने विषे नित्यानित्यपणुं तथा देहथी जिन्नानिन्नपणुं केवल कटपनाथी नहीं पण, परमार्थथीज घटे ) तेवा स्याघादमय आत्मामां न्यायपूर्वक आश्रव, संवर, बंध, मोह तथा सुख आदिक घटी शके जे; ते पण केवी रीते ? तो के, अविरोधपणाश्री, एटले एकांत पदमां हिंसादिकनी प्राप्तिमा जे दूषणो श्रावतां हतां, तेना परिहारे करीने, अर्थात् निर्दोषपणायें करीने घटी शके जे. हवे अात्माना परिणामीपणामां हिंसानो अविरोध देखाडवा माटे कहे जे. पीडाकर्तत्वयोगेन, देहव्यापत्यपेक्षया ॥ तथा हन्मीति संक्लेशा, हिंसैषा सनिबंधना ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए होवाथी पोलादमा पीडना आ हिंसा नि १४७ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । अर्थ-पीडाना कर्तापणाना योगें करीने, तथा देहना नाशनी अपेक्षायें करीने, तथा हुँ एने मारुं बुं, एवी रीतना त्रण प्रकारना चित्तना क्वेशथी, आ हिंसा निमित्तवाली कहेली बे. ____टीकानो लावार्थ-पीडाना कर्तापणाना योगें करीने, अने देहना नाशनी अपेदाएं करीने, तथा हुं आ प्राणीने मारुं, एवी रीतना चित्तना क्वेशपणाथी, परिणाम वादीए आ हिंसा निमित्तवाली कहेली . परिणामवादमां पीडनारने अने पीडनीयने परिणामपणुं होवाथी पीडा, कर्तापणुं, देहनो नाश, अने संक्वेश आवे जे; अने एकांत वादमां तो पागल कहेला न्यायें करीने, पीडा कर्तृत्वादिक अघटमान होवाथी हिंसा कारण विनानी थाय जे. जेने माटे कहे ने के, नाशना हेतुयें करीने नाश देहथी जिन्न कराय ? के, अजिन्न कराय ? जो जिन्न कहेशो, तो शरीरनी स्थिति तेमनी तेमज रहेवी जोशे; अने अनिन्न कहेशो तो देहज नाश थयो कहेवाशे, अने ते अयुक्त जे. केम के, अभिन्न नाश करवामां तो वस्तुनो नाशज संनवे , पण करेलु संजवतुं नथी; जेम निन्न उत्पन्न करवामां उत्पत्तिज संजवे. - आ श्लोकें करीने हिंसाना त्रण प्रकारो देखाड्या जे. अहीं वादी शंका करे के, अमुक प्राणीथी अमुक प्राणीनुं मरण अवार्नु , एवा पोताना पूर्वे करेलां कर्मथी हिंसा श्राय . ने ? के कोई बीजी रीतथी हिंसा थाय बे ? तेमांथी जो तमो पेहेलो पन मानशो, तो पुरुषांतरे करेली हिंसाने विषे जेम, तेम कर्मना निर्जराना हेतुपणाश्री हिंसकने पण वैयावच करवावालानी माफक कर्मना क्यथी प्राप्त अतो उत्तम गुण थशे. अने जो तेश्री उलटो पद मानशो, तो, निर्विशेषपणाथी सघj हिंसनीय थशे; तेम स्वर्गना सुखादिको पण पोताना कर्मोथी अनुत्पादितज अशे; अने एवी रीते तो कर्मनुं अंगीकारपणुं फोकट थशे; एवी रीते ( तमोने ) जैनीने पण हिंसानो असंनवज थशे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोडशाष्टक. हवे ते वादीने तेने माटे कहे . हिंस्यकर्म विपाकेऽपि, निमित्तत्व नियोगतः ॥ हिंसकस्य नवेदेषा, दुष्टाष्टानुबंधतः ॥ ३ ॥ अर्थ - हिंस्यकर्मना विपाकमां पण, निमित्तपणाना नियोगथी हिंसकने, दुष्टाष्टा अनुबंधथी, ते हिंसा संजवे बे. टी कानोजावार्थ - हिंस्यकर्मना विपाकनी नाव कल्पनामां तो एक बाजु रह्युं, पण हिंस्यकर्मना विपाकरूपमां पण निमित्तपगाना अवश्य जावथी हिंसकने हिंसा लागे बे; जो के, प्रधान हेतुना जावें करीने कर्मना उदयथी मरनारनी हिंसा थाय बे, तो पण तेमां ते हिंसकने निमित्तनावथी जोडावापणुं होवाथी, तेने ते थाय छे, एम कहेवाय बे; पण एम नहीं कहे के, मरनारना कर्म थीज मारनारने हिंसा करवी पडी, माटे तेमां मानारने दोष नथी. केमके, कोइनी प्रेरणाथी हिंसा करवाथी लोकमां पण दोष कहेवाय बे. वहीं वादी शंका करे के, जो निमित्तावथी पण हिंसा मानशो, तो वैद्योने पण तेवी हिंसानो प्रसंग आवशे; तेने माटे नेक बेके, तारुं हेवुं खरं बे, पण ते हिंसा तेजने दोषवाली नथी, केमके, हिंसामां तो दुष्ट आशयपणुं रहेलं बे; माटे कुष्ट आशयपणाथी हिंसा थाय बे, पण शुभ आशयपणाथी हिंसा ती थी; थी करीने तें जे हिंसकने वैयावच करनारनी पेठे, कर्मनी निर्जरा कही हती, ते तारा पनुं खंडन थयुं; केमके, हिंसक वैयाव करनारनी पेठे शुभ आशयवालो नथी. एव ते परिणामी आत्मामां हिंसानो संजव देखाडीने, हवे हिंसान संजय कहे बे. ततः समुपदेशादेः, क्लिष्टकर्म वियोगतः ॥ शुभभावानुबंधेन, हंतास्या विरतिर्भवेत् ॥ ४ ॥ Jain Educationa International १४ए For Personal and Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । अर्थ - तेथी, उत्तम उपदेशश्री, तथा क्लिष्ट कर्मोना नाशथी, शुजावना बंधे करीने, हिंसानी विरति यइ शके बे. टीकानो जावार्थ- परिणामी आत्मामां जेम हिंसा घटे बे, तेम तेमां हिंसा पण घटे बे; केवी रीते ? तो के, जिनादिकना उपदेशादिकथी, अथवा उत्तम जावोना उपदेशादिकथी, (यदि शब्दश्री ज्ञान, श्रद्धा अथवा अभ्युत्थानादिक पण जाणवां) तथा लांबी स्थितिवालां एवां ज्ञानावरणादिक कर्मोना क्षयोपशमश्री, तथा उत्तम अध्यवसायना अनुबंधें करीने, हिंसानी निवृत्ति घटे d; अर्थात् अहिंसा घटे बे. तेथी शुं श्रयुं ? ते हवे कहे बे. हिंसैषा मता मुख्या, स्वर्गमोक्षप्रसाधनी ॥ एतत्संरक्षणार्थं च, न्याय्यं सत्यादिपालनम् ॥५॥ अर्थ- उत्तम एवी जे हिंसा, ते स्वर्ग ने मोहने साधवावाली मानेली बे, अने तेना रक्षण माटे सत्यादिकनुं पण पालवाप कहेतुं बे. टीकानो जावार्थ उपर कहेली अहिंसा उपचाररहित, तथा प्रासंगिक रीते, स्वर्गने तथा अनुक्रमे मुख्य रीते मोहने देवावाली विधानो मानेली बे. वादी शंका करे के, ज्यारे ते हिंसाज स्वर्गादिक - पनारी बे, त्यारे सत्यादिक पालवानी शी जरूर बे ? तेने माटे तेने कहे के अहिंसारूपी धान्यना रक्षण माटे सत्यादिक वाडनी न्यायथी जरूर बे. , हवे उपर कहेला श्रात्माना नित्यानित्यपणाना तथा देहथी भिन्नाभिन्नपणाना साधनने विषे प्रमाण देखाडवा माटे कहे बे. स्मरणप्रत्यनिज्ञान, देहसंस्पर्शवेदनात् ॥ अस्य नित्यादिसिद्धिश्च, तथा लोकप्रसिद्धितः॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोडशाष्टक. १५१ अर्थ- स्मरण, आ ते बे, एवी रीतनुं प्रत्यनिज्ञान, तथा देहना स्पर्शथी तुं ज्ञान, तेउवडे करीने, तथा तेवी रीतनी लोकनी प्रसिधियी, आत्माना नित्यानित्यादिकपणानी सिद्धिथाय बे. टीकानो लावार्थ- पूर्व प्राप्त श्रएला अर्थ- स्मरण, तथा “श्रा ते " एवी रीतर्नु अनिदान, तथा शरीरनी साथे बीजी वस्तुना स्पर्शनुं ज्ञान, तेथी आत्मानी नित्यानित्यनी, तथा देहथी जिन्नान्निन्नपणानी प्रतीति थाय जे; आत्माने नित्यानित्यनुं विशेषण आपवाथी अहिंसा आदिक सिद्ध थाय ; तथा स्मरण आदिकथी नित्यानित्यपणुं सिद्ध श्राय जे; एकांत नित्य आस्मामां स्मरणनो संनव होतो नथी; केमके, अनुलवज स्पष्ट रूपें करीने अनुवर्ते ; नहिंतर नित्यताने हानि आवे. तेम अनित्यपणामां पण स्मरणनो संजव नथी; केमके तेथी तो बोध थवा वखतेज नाश श्राय, माटे तेमां स्मरण कोने थाय? केमके, एके अनुजवेलुं बीजो याद करी शकतो नथी. . __ अहीं वादी शंका करे के, अनुलवक्षणना संस्कारधी, एवी रीतनोज स्मरणनो क्षण उत्पन्न बाय . त्यारे तेने कहे वे के, एम नहीं; केम के, ते गया कालनो लेशमात्र पण वर्तमान कासमां नहीं आववाथी, याद करती घखतना पूर्वकालना अनुजवनो संस्कार कदाच श्रधाथी मानीये तो जले, पण युक्तिवालो मलतो नथी; केम के, प्रथमना अनुलवनो क्षण तो घणा कालनो नाश थएलो होवाथी, ते पळीना क्षणमां तेना संस्कारनो लेशमात्र पण याद श्रावी शकतो नथी; केम के, एकदमज तुरतना दाणथी उलटीज रीतनी स्मरणदणनी उत्पत्तिनी प्राप्ति थाय जे; अने नित्यानित्य पदमां तो अहितना संस्कारनी पेठे, प्रथमना अनुजवदाणवडे करीने, ते क्षणना प्रवाहरूप जुदा जुदा धर्मना स्वनाववाला आत्माना संगथी, स्मरणनो क्य, ने उत्पत्ति युक्तिवाली थाय . वली एम नहीं बोलq के, आवता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । क्षणोमां अनुजवनो संस्कार यतो नथी; ते केम बनी शके ? तो के, स्मरणना निर्बीजपणायें करीने, तेने प्राप्तिनो प्रसंग वशे: तेम नित्यानित्य आत्मा छे, केमके, बीजी रीते प्रत्यभिज्ञाननी उत्पत्ति यती नथी; कारण के, एकांत नित्यप्रणुं मानवाथी, साक्षात अनुजवनी नुवृत्तिबे, पण तेथी प्रत्यभिज्ञाननो संभव नथी; ने > त्यामां तो पूर्वे दीवेली वस्तुनो नारा थवाथी, तथा पूर्वे देखवावालानो पण नाश थवाथी, ने पीना नवीन देखवावालानी तथा नवीन वस्तुनी उत्पत्ति थवाथी प्रत्यभिज्ञाननो संजवज होतो नथी; केमके, नहीं देखनार माणसने नहीं देखाएली वस्तुमां प्रत्यभिज्ञान होतुं नथी; केमके तेवा प्रकारनी खातरी नथी. वादी कहे बेके, जो तुं एम कहीश के कापेला ने फ रीने पाला उगेला केशादिकमां पण प्रत्यनिज्ञान बे ने एवी रीते ग्राह्यते तेना व्यभिचारपणायें करीने, ए प्रमाणताथी सघलामां प्रमाणपणुं वशे. पण एम नहीं; केमके, प्रत्यक्षने पण कोइक जगोए व्यभिचार श्रववाथी सर्वमां अप्रामाण्यनो प्रसंग आवशे. तेम आत्मा देहथकी जिन्नाभिन्न जणाय बे; कारण के, जो एम नहीं मानीयें, तो स्पर्शादिकना ज्ञाननो असंव थशे; केमके जो ते आत्मा देहथी एकांत जिन्न होय, तो देहथी स्पर्श करेली वस्तुनुं तेने ज्ञान न थाय; जेम देवदत्ते स्पर्श करेली वस्तुनुं ज्ञान यज्ञदत्तने यतुं नथी तेम तेम एकांत भिन्न पण नथी; केमके, एकांत अन्न मानवाथी तो देहमानणायें करीने, तेने परलोकना जावनो प्रसंग आवे बे; तेम तेना एक अवयवना नाशथी चैतन्यनी पण हानीनो प्रसंग वे बे; माटे एवी रीते लोक प्रती तिथी पण - आत्मादिक वस्तु नित्यानित्यरूपे बे. श्रात्माना व्यापकपणामां प्रथम दोष कह्यो, हवे तेना अव्यापकपणामां तेनो गुण कहे बे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ सप्तदशमाष्टक. देहमात्रे च सत्यस्मिन्, स्यात्संकोचादिधर्मिणि ॥ धर्मादेवंगत्यादि, यथार्थसर्वमेव तु ॥ ७॥ श्रर्थ-शरीर जेवडो, तथा संकोचादिक स्वजाववालो, एवो श्रा आत्मा होते बते, धर्मादिकथी ऊर्ध्वगति श्रादिक सघलुं यथार्थ थाय . . टीकानो लावार्थ-नित्यानित्यादि स्वजाववाला श्रात्मामां हिंसादिक घटे चे, अने शरीर जेवडा आत्मामां सघ यथार्थ घटे बे. वली ते आत्मा केवो? तो के, संकोच अने विस्तारनो ने स्वलाव जेनो, एवो ते श्रात्मा बे; एवो आ आत्मा होते ते, धर्मथी ऊर्ध्वगति, तथा अधर्मश्री अधोगति इत्यादि सघलु उपचाररहित पाय जे. हवे या अष्टकने संपूर्ण करता थका कहे . विचार्यमेतत् सबुध्या, मध्यस्थेनांतरात्मना ॥ प्रतिपत्तव्यमेवेति, न खड्वन्यः सतां नयः ॥७॥ अर्थ-माटे ते मध्यस्थपणावाला अंतरात्माथी, उत्तम बुद्धिये करीने विचारवं, अने ते अंगीकार करवू; ते शिवाय बीजी जत्तम पुरुषोनी नीति नथी. ___टीकानो नावार्थ-उपर कहेलो अहिंसादिकनो विचार उत्तम बुधिपूर्वक, तथा पक्षपातविनाना अंतरात्माथी अथवा मनथी विचारवो; वली ते केवल विचारवो, एटलुंज नहीं, पण तेने अंगीकार करवो; शा माटे अंगीकार करवो? तो के, उपर कहेला लक्षणश्री उलटो उत्तम पुरुषोनो न्याय होय नहीं. एवी रीते शोलमा अष्टकनुं विवरण संपूर्ण थयुं. सप्तदशमाष्टकं प्रारज्यते. धर्मवादने देखाडता एवा आचार्ये, तेनां तेनां शास्त्रोनी अपेहाथी हिंसा आदिकनी घटना देखाडी; हवे हिंसाथी दूर रहे २० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । ता वा पण कुतीर्थीए जे मांसभक्षण श्रादिक दोषपणे - गीकार करेलुंबे, ते तेनाज शास्त्री अपेक्षाथी, धर्मवाद देखा - डवा माटेज कहे . मां पण हवे प्रथम मांसमक्ष माटे कहे बे. क्षणीयं सता मांस, प्राण्यंगत्वेन हेतुना ॥ उदनादिवदित्येवं कश्चिदादाति तार्किकः ॥ १ ॥ अर्थ- कोक (बौद्ध) तार्किक कहे बे के, प्राणीना चंगपणाना हेतुथी, जात श्रादिकनी पेठे, उत्तम माणसे मांसनक्षण करवुं. कानोजावार्थ - उत्तम माणसे मांसभक्षण करवुं; शामाटे ? के, ते प्राणीनं अंग होवाथी; कोनी पेठे ? तो के, जात श्रादिकनी पेठे; अर्थात् जे जे प्राणीनं अंग होय, ते जात श्रादिकनी पेठे क्षण कर ; दवे मांस बे, ते प्रसिद्ध रीते प्राणीनुं छांग बे, ने चोखा डे, ते पण एकेंद्रिय प्राणी नुं श्रंग बे; एवी रीते मांसनक्षण माटे कोइक महान बुद्धतार्किक कहे बे. हवे तेना पूर्वपना दूषण माटे कहे बे, प्रक्ष्याजक्ष्यव्यवस्थेद, शास्त्रलोक निबंधना ॥ सर्वैव जावतो यस्मात्; तस्मादेतदसांप्रतम् ॥ २॥ अर्थ-हीं जय अक्ष्यनी सघली व्यवस्था, जावथी शाa ने लोकना निबंधनवाली बे, माटे तेम कहेतुं प्रयुक्त बे. टी कानो जावार्थ- हीं आचार्य माहाराज ते बौद्धने पुढे वे के, प्राणीनं अंग होवाथी जे मांस खावानुं कनुं, ते स्वतंत्रसाधनवालुं वे के, प्रसंगसाधनवालुं बे ? जो स्वतंत्र साधनवालुं मानशो, तो, तेमां जे नंदन आदिकनी पेठे, एवं जे दृष्टांत दीधुं बे, ते साधनथी उलटुं बे, केम के, बौद्धो बनस्पति आदिक - केंद्रिय पदार्थने प्राणी तरिके मानता नथी; अने तेथी प्राणीना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशमाष्टक. १५५ अंगतरीके क्षणना साधनमां ते मलतुं श्रवतुं नथी; माटे तें कहेलो हेतु दोषणवालो े. छाने प्रसंगसाधन पक्षमां, जंदज दिक क्षण करवा लायक बे, अने मध, मांस तथा मुंगली यदि बे, एवी रीतनी जे जदयाजक्ष्य तथा पेयापे यनी व्यवस्था, या श्लोकमां श्राप्तना वचन ने लोकव्यवहारना हेतुवाली बे; वली ते व्यवस्था सघली, ने परमार्थथी बे; माटे “उत्तम पुरुषे मांसमक्षण करवुं” एम कहेवुं प्रयुक्त बे. युक्त अनेकांतिक हेतुपणे देखाडता थका कहे बे. तत्र प्राण्यंगमप्येकं, जक्ष्यमन्यत्तु नो तथा ॥ सिद्धं गवादिसत्क्षीर, रुधिरादौ तथेक्षणात् ॥ ३॥ अर्थ - त्यां प्राणीनं एक अंग जदय बे, अने बीजुं तेम नथी; नेते गाय श्रादिकना दूध ने रुधिर दिकमां प्रत्यक्ष रीते जोवाथी सिद्ध थाय बे. वे टीकानो जावार्थ- ते शास्त्र ने लोकमां प्राणीनुं एक अंग जय बे, छाने बीजुं अजय बे, ते वात प्रसिध्वज बे. केवी रीते ते प्रसिद्ध बे? तो के, गाय ने माता श्रादिकनां उत्तम दूध अने सोहीमां तथा मांसादिकमां पण जय जयपणुं प्रसिद्ध देखाय बे; माटे एवी रीते प्राणीनुं एक अंग जक्ष्य बे, छाने बीजुं जदय बे, तेथी हे वादी ! ! तारो हेतु सपक्ष ने विपक्ष बन्नेमां वर्ततो होवाथी, ते कांतिक बे. वली हे वादी !! प्रसंगसाधन तो परना श्रंगी कारने अनुसरीने थाय बे ने अमारो कंई एवो अभिप्राय नथी, के, प्राणी नुं अंग मानीने मांसमक्षण करयुं; पण तेमां उत्पन्न श्रता जीवोनी पेहाथी श्रमो ते खाता नथी; एवं देखाडवामाटे हवे कहे वे. प्राएयंगत्वेन नच नो, जक्षणीयं त्विदं मतम् ॥ किंत्वन्यजीवजावेन, तथा शास्त्रप्रसिद्धितः ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ श्री हरिजसूरिकृतान्यष्टकानि । अर्थ - (मोए) कं प्राणीना अंगपणाथी मांसभक्षण नहीं करवुं, एम मानेतुं नथी, पण तेमां अन्य जीवोनी उत्पत्ति होवाथी मोए मांसमक्षणनो त्याग करेलो बे; अने मांसमां जीवनी उत्पत्ति थवानी वात शास्त्रमा प्रसिद्ध बे; माटे. टीकानो जावार्थ- फक्त प्राणीना अंगमात्रना हेतुथी मोए मांसने अजय मान्युं बे, एम नहीं, पण ते मांसनां प्राणी शिवाय बीजा जीवोनी पण तेमां उत्पत्ति थवाथी मोए तेने - जय मान्युं छे. हवे ते मांसमां छान्य जीवोनी उत्पत्ति केम जपाय ? ते कड़े ने के, एवी रीते श्राप्तना आगमोमां कहेतुं वे. कांबे के, आमासुय पक्कासुय, विपञ्च्चमाणासु मांसपेसिसु ॥ आयंतियमुववाओ, भणिओयनिगोयजीवाणं ॥ १ ॥ - काचा तथा पकावेला, छाने पकावाता एवा मांसमां निगोदी जीवोनी उत्पत्ति कहेली . लोकें करीने, परमते अज्ञानपणाथी छांगीकार करेला प्रमनुं प्रसंगसाधनपणुं दूर कर्यु. हवे ते अंगीकार करेलो हेतु, इष्ट अर्थने साधवावालो मथी, एवं देखाडता थका कहे बे. निकुमांस निषेधोऽपि न चैवं युज्यते क्वचित् ॥ स्वस्थ्याद्यपि च जक्ष्यं स्यात्, प्राएयंगत्वा विशेषतः ५ अर्थ- हे बौद्धवादी !!! एवी रीते तो (तमारा) साधुना मांसनो निषेध पण कोइ वखते थइ शकतो नथी; अने वली तेथी हाडकां यदि पण दय थाय; केमके, ते पण प्राणीना अंगरूप बे. टीकानो नावार्थ- हे बौद्धो !!! तमारा मतवडें करीने, गाड़ श्रादिकना मांसनो निषेध तो एक बाजु रहो; पण अतिपूज्य एवा साधुना मांसनो पण निषेध थइ शकशे नहीं; माटे एवी ते प्राणीना अंगना हेतुश्री, मांसनुं जक्षण कालांतर, देशांतर, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशमाष्टक. १५७ अथवा पुरुषांतरनी अपेक्षाथी घटी शकशे नहीं. वली पण तेज बाबतनुं अयोग्यपणुं कहे बे. वली एम मानवाथी तो केवल साधुनुं मांस खावं, एटलुज नहीं, पण हाडकां, शिंगडां, खरी श्रादिक प्राणीनां अंगो पण खावां जोश्शे; केमके, मांस अने हाडकां आदिकमां प्राणीअंगपणुं तो सरखंज जे; माटे एवी रीते श्रनदयने नदयपणुं कहेवाथी ते हेतु विरुष्तावालो के. वली एमां बीजुं दूषण पण हवे कहे . एतावन्मात्रसाम्येन, प्रवृत्तिर्यदि चेष्यते ॥ जायायां खजनन्यां च,स्त्रीत्वात्तुष्यैव सास्तु ते॥६॥ अर्थ- (हे वादी !!!) वली प्राणीना अंगपणाना सरखापपाथी जो तुं प्रवृत्ति करीश, तो स्त्रीपणाना हेतुथी स्त्री श्रने मातामां पण तारे (नोगविलास अने पूज्यपणानी) सरखी प्रवृत्ति करवी पडशे. टीकानो नावार्थ- (उपरना श्लोकना अर्थने मखतोज ने. हवे प्रकरणना अर्थनो निश्चय करवा माटे कहे . तस्मालास्त्रं च लोकं च, समाश्रित्य वदेद् बुधः ॥ सर्वत्रैवं बुधत्वं स्या, दन्यथोन्मत्ततुल्यता ॥७॥ अर्थ- तेथी शास्त्र अने खोकने आश्रीने पंडित सर्व बाबतमां बोखवू; अने तेथी तेनी पंडिताइ थाय , अने तेथी उलटी रीते बोलवाथी उन्मत्तपणानी तुल्यता थाय . . टीकानो नावार्थ- हे वादी !!! उपर कहेला न्यायथी तारूं कहेलु साधन बहु दोषणवालुं बे, माटे श्राप्तना वचनने, अने उत्तम एवा खोकने आश्रीने पंडिते सर्व विषयोमा बोलवू जोश्ये, अने तेथी पंडिता कहेवाय; अने तेथी उलटी रीते बोलवाथी उन्मत्तपणानी तुट्यता थाय . कडुं ने के, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । सतां पथा प्रवृत्तस्य, तेजोवृडीरवेरिव ॥ यदृच्छयाप्रवृत्तस्य, रूपनाशोस्ति वायुवत् ॥ १ ॥ अर्थ - उत्तम माणसोना मार्गे चालनारनी, सूर्यनी पेठे तेजनी वृद्धि थाय बे, तथा स्वेच्छाचारे वर्तनारना रूपनो नाश वायुनी पेठे थाय बे. मांसमक्षण माटे बौना श्राप्तो पण निषेध कर्यो बे, एवं देखाडता थका हवे उपसंहारमाटे कडे बे. शास्त्रे चाप्तेन वोऽप्येत, निषिद्धं यत्नतो ननु ॥ लंकावतारसूत्रादौ ततोऽनेन न किंचन ॥ ८ ॥ अर्थ- हे बौद्धो ! तमारा श्राप्ते पण लंकावतार सूत्र श्रादिक शास्त्रमां प्रयत्नपूर्वक मांसभक्षण निषेध्युं बे, माटे ते मांसनदकरवानी तमारे पण कंई जरूर नथी. टी कानो जावार्थ- हे बौद्धो !!! मांसमक्षण केवल लोकमां नेमारां शास्त्रमांज निषेध्यं बे, एम नहीं, पण तमारा राग श्रादिकथी रहित एवा बुद्धे तमारां शास्त्रमां पण आदरपूर्वक निपेयुं बे; क्या शास्त्रमां ते निषेध्यं बे ? तो के, जे “लंकावतारसूत्र " ( राक्षसोने शिखामण देवा माटे बुनो अवतार जेमां वर्णव्यो बे; ते शास्त्रमां ) तथा " शीलपटल " श्रादिक शास्त्रमां ते निषेध्युं बे. तेमां कह्युं ने के, “प्राणीनां अंगथी उत्पन्न यएलुं शंखचूर्ण मोथी (अजाणता) पण खावुं नहीं" एवी रीते तमारांज शास्त्रमां ज्यारे निषेध्यं बे, त्यारे तमारे पण मांसजनी कई जरूर नथी. एव ते सतरमा अष्टकनुं विवरण संपूर्ण श्रयुं. 66 अष्टादशमाष्टकं प्रारभ्यते. माटे एवी रीते, लोक छाने शास्त्रमां विरोध श्रावतो होवाथी, मांसमक्षण न करवुं” एवी रीते धर्मवाद निश्चय करते ते, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टदशमाष्टक. १५ए कोइ एम कहे के, मांसलदाणमां कई दोष नथी; एवा तेना मतना विवेचन माटे हवे कहे . अन्योऽविमृश्य शब्दार्थ, न्याय्यंस्वयमुदीरितम् ॥ पूर्वापरविरुद्धार्थ, मेव माहात्र वस्तुनि ॥ १॥ अर्थ- अन्य एटले बौघथी अन्य एवो ब्राह्मण, मांस शब्दे पोते जणावेला न्यायवाला, शब्दार्थने विचार्याविना, या बाबतमा पूर्वापर विरोध श्रावे, एवा अर्थनेज कहे जे. टीकानो लावार्थ- (उपरना श्लोकना अर्थने मलतो .) हवे जे ते कहे , ते देखाडे . न मांसजवणे दोषो, न मद्ये नच मैथुने ॥ प्रवृत्तिरेषा नूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला ॥२॥ अर्थ-मांसलक्षणमां, मद्यपानमां अने मैथुनमां पण दोष नथी; केमके, ते तो प्राणीउनी प्रवृत्ति के अने तेथी जे निवृत्ति करवी ते, तो महाफलदायक बे. टीकानो जावार्थ- मांसजदणमा, मद्यपान करवामां, तथा मैथुन सेववामां कर्मना बंधरूप दूषण नथी. शा माटे? के, तेवी रीतनी प्राणीउनी प्रवृत्ति , अने ते मांसलक्षणथी जे निवृत्त थएँ, ते अन्युदय आदिक महाफलने देवावालुं . हवे "मांस शब्द" पोतेज जे अर्थ जणावे , ते कहे . मां स जदयिता मुत्र, यस्यमांसमिदाड्यहम् ॥ एतन्मांसस्य मांसत्वं, प्रवदंति मनीषिणः॥३॥ अर्थ- जेनुं मांस हूं अहीं खाउं बुं, ते मने परलोकमां लक्षण करशे. एवी रीतनुं मांसनुं मांसपणुं बुद्धिवानो कहे . टीकानो नावार्थ- (उपरना श्लोकना अर्थजेवोज .) __ हवे " मांसलदाणमां दोष नथी;" एम शा माटे कडं? तेने माटे हवे वादीने कहे . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । इत्थं जन्मैव दोषोऽत्र, न शास्त्राद्बाह्यजणम् ॥ प्रतीत्यैषनिषेधश्च, न्याय्यो वाक्यांतराद्गतेः ॥५४॥ अर्थ एवी रीते, अहीं जन्म थवो, तेज दूषण बे; वली बीजा वाक्यनी प्राप्तिथी, शास्त्रश्री बहारनामक्षणने श्रश्रीने श्र प्रतिषेध कंई न्यायवालो कहेलो नथी. टी कानो जावार्थ एवी रीते मांसमक्षणमां जक्षण करनारने, ते मांसनो स्वामी क्षण करशे, छाने तेथी तेने पुनर्जन्म लेवो पडशे; तेज दूषण उत्पन्न श्रयुं; बीजुं दूषण शोधवानी शी जरूर बे ? माटे हे वादी ! ! तारे शा माटे कहेतुं जोइयें के, " मांसनजमां दूषण नथी. " त्यारे वादी कहे के, एवी रीते मांसजमां दूषण नथी; केमके मांसभक्षणनो निषेध अने तेथी तुं पुनर्जन्मनुं दूषण तो, आगममां कह्या शिवाय बीजा मांसना क्षण माटे बे; पण शास्त्रनी विधिपूर्वक मांसमक्षणमां दोष नथी; केमके, तेने माटे " प्रोक्षितं जयेन्मांसं " इत्यादि शाखोनुं वाक्य . हवे ते शास्त्रनुं वाक्य वादी कहे बे. प्रोक्षितं जयेन्मांसं, ब्राह्मणानां च काम्यया ॥ यथाविधि नियुक्तस्तु, प्राणानामेववात्यये ॥ ६ ॥ अर्थ - वेदना मंत्रथी पवित्र करेलुं मांस, विधिपूर्वक ब्राह्मयोनी अनुज्ञाथी, अथवा जीव जतो होय, ते वखते खावुं. टीकानो जावार्थ - " प्रोक्षित" एटले वेदना मंत्रोथी पवित्र करेलुं एवं मांस, ब्राह्मणो खाइ रह्या बाद, तेर्जनी अनुज्ञाथी, यज्ञ, श्रा ने परोणा श्रादिकनी विधिपूर्वक खावुं; यज्ञविधि एटपशुमेध अश्वमेध आदिक जाणवो. वली श्राद्धनो विद्धि श्राशास्त्रमां नीचेप्रमाणे को बे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशमाष्टक. १६१ उरभ्रेणेह चतुरः, शकुनेन तु पंच वै ॥ षण्मासांइछागमांसेन, पार्षतीयेन सप्त वै ॥१॥ अष्टावणस्य मांसेन, शौकरेण नवैव तु ॥ दशमासांस्तु तृप्यंति, वराहमहिषामिषैः ॥२॥ कूर्मशशकमांसेन, मासानेकादशैव तु॥ संवत्सरंतु तृप्यंति, पयसापायसेन तु ॥३॥ अर्थ-घेटाना मांसथी (पितृउने) चार मासनी, पक्षिना मांसथी पांच मासनी, बकाराना मांसभी मासनी, सफेद डाघावाला मृगना मांसथी सात मासनी, हरिणना मांसथी आउ मासनी, सूकरना मांसथी नव मासनी, वराह अने पाडाना मांसथी दश मासनी, काचबा अने ससलाना मांसथी श्रगीयार मासनी, अने दूध तथा दूधपाकथी एक वर्षनी तृप्ति थाय बे. वली परोणानो विधि याज्ञवटक्ये नीचेप्रमाणे कह्यो जे. महोक्षं वा महाजं वा, श्रोत्रियाय कल्पयेत् ॥ श्रर्थ-श्रोत्रियने माटे मोटो बलद अथवा मोटो बकरो मारवो. तथा मांस पोताना प्राणना रक्षाण माटे खावू; केमके कह्यु के, सर्व आपदाथी आत्मानुं रक्षण करवं. ___ एवी रीते वादीए कह्यु के, शास्त्रसंबंधी मांसजक्षणमां दोषनो अनाव अमो कही बीयें, पण सामान्यपणाथी कहेता नश्री; एवी रीतना तेना मतनुं खंडन करता थका हवे आचार्य महाराज कहे . अत्रैवासावदोषश्चे, निवृत्तिर्नास्य सज्यते॥ अन्यदानदणादत्रा, जदणे दोषकीर्तनात् ॥७॥ अर्थ- हे वादी !!! जो आ यज्ञ आदिकमां मांसजक्षणने निर्दोष मानशो, तो तेनी निवृत्ति संजवशेज नहीं; केमके, ते यशादिक काल शिवाय मांसलक्षणनो निषेध ; (केमके, यज्ञा २१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । दिकमा विधिपूर्वक मांस खावानुं कर्तुं .) तेम यज्ञादिकमा नहीं खावाथी दोष कहेलो . टीकानो नावार्थ- हे वादी!!! आ वेदना मंत्रथी पवित्र थएला मांसने लक्षण करवामां जो तुं निर्दोषपणुं मानीश; तो मांसजक्षणनो निषेधज संनवशे नहीं; शा माटे? के, ते यज्ञादिक समय शिवाय बीजी वखते मांस खावानो निषेध ने माटे एवी रीते बीजे समये मांस खावानी प्राप्तिज नथी; तो तेनी निवृत्ति केम संजवे? केमके, प्राप्तिनो निषेध करवो, ते सफल कहेवाय. तेम श्रा यज्ञादिकमां मांस नहीं खावाथी दोष कहेलो बे. हवे ते दोष देखाडे जे. यथाविधिनियुक्तस्तु, यो मांसं नात्ति वै हिजः॥ स प्रेत्ये पशुतां याति, संचवानेकविंशती ॥ ७॥ अर्थ- यज्ञ श्रादिक विधिमा जोडाएदो जेब्राह्मण मांस खातो नथी, ते परलोकमां एकवीश जवसुधी पशुपणाने पामे बे. __टीकानो लावार्थ- शास्त्रनी विधिपूर्वक यज्ञादिकमां जोडाएखो, एवो जे कोश् ब्राह्मण मांस नयी खातो, ते परलोकमां तिर्यचपणाने पामे के केटली मुदतसुधी? तो के एकवीश नवोसुधी तिर्यचपणाने पामे . - हवे मांसलक्षणनी निवृत्ति माटे वादी तरफनीज शंका जगवीने, तेनुं खंडन करता थका कहे . पारिवाज्यं निवृत्तिश्चेद्, यस्तदप्रतिपत्तितः ॥ फलानावः स एवास्य, दोषो निर्दोषतैव न ॥॥ अर्थ-- हे वादी!!! जो तुं परिव्राजकपणाने, मांसजदाणनी निवृत्ति मानीश, तो तेना (परिव्राजकोना ) अनंगीकारपणाथी जे फलनो अनाव कह्यो, तेज दूषण श्रावशे; माटे मांसजक्षणमां निर्दोषपणुं तो घटी शकतुंज नथी. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनविंशतीतमाष्टक. १६३ टीकानो लावार्थ- हे वादी !!! निवृत्तिना कारणपणाधी परिवाजकपणाने एटले गृहस्थपणाना अनावनेज जो तुं मांसनक्षणनी निवृत्तिरूप मानीश; अर्थात् गृहस्थपणामां प्रोदितादि मांस खावु, अने परिव्राजक अवस्थामां ते न खावू, एवी रीतनी प्राप्तिपूर्वक जो तुं तेनी निवृत्ति कहीश, तो, परिघ्राजकोना अनंगीकारपणाथी जे श्रन्युदयादिक प्रयोजनरूप फलनो अजाव कह्यो, तेज दूषण श्रावशे; बीजुं दूषण शामाटे शोध, जोश्ये? माटे तेथी मांसनक्षणमां निर्दोषपणुं तो घटी शकशेज नहीं. ___ वली हे वादी! ते जे पागल कह्यु बे के, निवृत्ति महाफखवाली तो ते निवृत्ति निर्वद्य वस्तुथी करवी? के सावध वस्तुश्री करवी ? जो कहीश के, निर्वद्य वस्तुथी करवी, तो तापसपणा श्रादिकनी पण निवृत्ति ( त्याग) करवी पडशे; केमके, तापसपणुं निर्वद्य ; पण तेम कर, तो पालवशे नहीं. अने जो तुं कहीश के, सावद्यथी निवृत्ति करवी, तो मांसजदणधीज निवृत्ति थ केमके, ते सावध . एवी रीते श्रढारमा श्रष्टकनुं विवरण समाप्त थयु. एकोनविंशतीतमाष्टकं प्रारज्यते. एवी रीते " मांसनाणमा दोष नथी" एवां वादीनां वचनखंडन कर्युः हवे " मद्यपानमा दोष नथी" एवां वादीनां वचनने खंडन करता थका कहे . मयं पुनः प्रमादांगं, तथासञ्चित्तनाशनम् ॥ संधानदोषवत्तत्र, न दोष इति साहसम् ॥१॥ अर्थ- मद्य (मदिरा) प्रमादनुं कारण , तथा उत्तम चित्तने नाश करनालं, अने संधान दोषवाळु ने माटे "तेमां दूषण नथी" एम कहेवू धृष्टता जरेलुं . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ श्रीहरि प्रसूरिकृतान्यष्टकानि । टीकानो जावार्थ- जे मद घडावे ते " मद्य" कहेवाय; ते मद्य " प्रमादांग” केतां जीवना अशुभ परिणामनुं कारण बे; श्रथवा मदिरा, विषय, कषाय, निद्रा, छाने विकथारूप पांच प्रकारना प्रमादमांदेला प्रमादनुं एक अंग बे; तथा शुभ चित्तने नाश करनारुं बे; तेम जलथी मिश्रित थपला पिष्ट श्रादिक अव्यमां उपजता जोवोना दोषवालुं बे; माटे एवी रीतना मद्यमां कर्मबंधरूप "दूषण नथी” एम जे कहेवुं ते धृष्टता जरेलुं बे. केमके, तेमां प्रत्यक्ष रीतेज घणां दूषणो देखाय बे. कयुं बे के, वैरूप्यं व्याधिपिंडः खजनपरिभवः कार्यकालातिपतो विद्वेषो ज्ञाननाशः स्मृतिमतिहरणं विप्रयोगश्चसद्भिः । पारुष्यं नीचसेवा कुलबलतनुता धर्मकामार्थहानिः कष्टं भोः षोडशैते निरुपचयकरा मद्यपानस्य दोषाः ॥ १ ॥ अर्थ- बेडोल आकृति, व्याधिनो समूह, स्वजननो पराजव, कार्यना वखतनो नाश, द्वेष, ज्ञाननो नाश, याददास्तीनो नाश, बुद्धिनो नाश, उत्तम माणसोनो वियोग, कठोरता, नीचनी सेवा, कुल ने बलनी हलकाइ, तथा धर्म, काम धनी हानी, एवी रीतना मद्यपानना शोल दोषो, अरे रे ! ! ! हलकाइ करावनारा J. अथवा हजु ते केटलाक देखाडी यें ? तेने माटे हवे कहे बे. किं वेद बहुनोक्तेन, प्रत्यक्षेणैव दृश्यते ॥ दोषोऽस्य वर्तमानेऽपि, तथा मंडनलक्षणः ॥२॥ अर्थ- हीं वधारे कहेवाथी शुं ? वर्तमान कालमा पए, ते मद्यपाननुं संग्रामरूप दूषण प्रत्यक्षज मालुम पडे बे. टी कानोजावार्थ- श्र मद्यपानना दूषणमाटे वधारे शुं कही - यें ? प्रत्यक्ष प्रमाणथी पण या मद्यपाननुं असमंजस बोलवारूप, तथा मारामारीरूप दूषण या वर्तमान कालमा पण घारिका नगरीना दाह श्रादिकथी दृष्टी आवे बे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनविंशतीतमाष्टक. १६५ एवी रीते ते मद्यपाननुं दूषण केवल प्रत्यक्ष देखाय बे, एटलुंज नहीं, पण शास्त्रमांयें संजलाय बे, ते हवे कहे बे. श्रूयते च इषिर्मद्यात्, प्राप्तज्योतिर्महातपाः ॥ स्वर्गाङ्गना जिरा दिप्तो, मूर्खवन्निधनं गतः ॥ ३ ॥ - पुरणोमां संताय बे के, जेने ज्ञान प्राप्त थपलुं बे, एवो, तथा महा तपस्वी एवो को रूषि मद्यपानथी देवांगनार्जए करीने श्राप्ति यो थको, मूर्खनी पेठे नाशने प्राप्त थयो. टी कानोजावार्थ - ( उपरना श्लोकनार्थने मलतोज बे.) हवे ते कृषिनुं स्वरुप देखाडता था कहे . कश्चिदृषिस्तपस्तेपे, जीतइंद्रः सुरस्त्रियः ॥ कोजाय प्रेषयामास, तस्यागत्यचतास्तकम् ॥ ४ ॥ विनयेन समाराध्य, वरदानिमुखं स्थितम् ॥ जगुर्मद्यं तथाहिंसां, सेवखाब्रह्म वेवया ॥ ५ ॥ सएवं गदितस्तानि, योर्नरकहेतुताम् ॥ यालोच्य मद्यरूपं च शुद्धकारणपूर्वकम् ॥ ६॥ मद्यं प्रपद्यतनोगान्, नष्टधर्म स्थितिर्मदात् ॥ विदेशार्थमजं हत्वा सर्वमेव चकार सः ॥ ७ ॥ ततश्च ष्टसामर्थ्यः, स मृत्वाडुर्गतिं गतः ॥ यं दोषाकरो मद्यं, विज्ञेयं धर्मचारि जिः ॥ ८ ॥ " - कोक ऋषि तप तपतो हतो, तेनाथी जय पामीने इंजे, तेने दोजाववा माटे देवांगनाउने मोकली. तेर्जए त्यां तेनी पासेवीने, तेने विनयपूर्वक आराध्यो; त्यारे ते कृषिए तेर्जने वरदान मागवानुं कनुं, त्यारे तेर्जए तेने कयुं के, मद्यपान, हिंसा थवा मैथुन तारी इवाप्रमाणे सेव ? त्यारे ते शषिए हिंसा तथा मैथुनने, नरकना हेतुरूप जाणीने, तथा मद्यने शुद्ध जाणीने, तेने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ श्रीहरिजघसूरिकृतान्यष्टकानि । सेव्यु, तेथी तेनी धर्मनी स्थिति नाश श्रवाथी, मदश्री मुखवास माटे बकरो मारीने, (खाधो ) तथा एवी रीते सघर्बु ( नहीं करवालायक पण कार्य) तेणे कयुः पनी तेनुं सामर्थ्य नाश थवाथी ते मरीने मुर्गतिमां गयो, एवी रीते धर्माचारीए मद्यने दूषणनी भूमि सरखं जाणवू. टीकानो नावार्थ-कोश्क बालतपस्वी मोटी थटवीमा रहीने, अनशन आदिक अघोर तप एक हजार वर्षसुधी तपतो हता; त्यारे इंजे विचार्यु के, या झषिए बहु तप कर्यो, तेथी मने मारी इंजनी पदवीपरथी पाडी नाखशे; एवी शंकाथी जय पाम्यो; तेथी तेणे तिलोत्तमा आदिक अप्सराउने ते शषिने चलाववामाटे वनमां मोकली. ते अप्सरा तेना तपना तेजथी ते वनमा प्रवेश करवाने शक्तिवान न थवाथी, वननी बहार तेनी सन्मुख विकस्वर फूलोना समूहो विखेरीने, तथा मस्तके हाथ जोडीने, तेना गुणोनां गायनसहित उत्तम नाटक करवा लागीजं. ते नाटकथी ते शषि तद्रत मनवालो थयो थको, चित्रितनी पेठे थइ गयो; पठी ते अप्सरा तेनी पासे आवी; तथा ते शषिने, विविध प्रकारनां मीगं वचन, नमस्कार, तथा पादपतन आदिकथी आराधीने, तेने प्रसन्न चित्तवालो कर्यो; पजी ज्यारे ते वरदान देवाने आतुर थयो, त्यारे तेए तेने सोगंदपूर्वक कडं के, मदिरा, हिंसा, अथवा मैथुनमांधी तारी श्वाप्रमाणे तुं जोगव ? त्यारे ते शषिए हिंसा अने मैथुनने शास्त्रप्रमाणे, नरकना हेतु जाणीने, तथा मदीरानी उत्पत्तिने, तेनी मद्यावस्था पेहेलां गोल, धातकी, तथा पाणी श्रादिकथी उत्पन्न भएली, निर्दोष मानीने, तेने अंगीकार करीने, विचित्र प्रकारना मणि थादिकथी जडेला सोनाना वासणमा रहेखें, अने अत्यंत सुगंधिपणाथी खेंचाएला जमराना समूहथी विटाएलुं , आकाश मंडल जेथी, तथा इंजियरूपी जमराना समूहने सखचावनालं, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंशतीतमाष्टक. १६७ तथा ते अप्सराए संन्रमसहित लावेलु मद्य तेणे पीछु; अने तेथी तेनी उत्तम क्रियावाली धर्मनी व्यवस्था नाश पामी. पनी चित्तने विन्रम अवाथी, मद्यपान उपर नास्तावास्ते एक बकराने हणीने, ते अप्सराए कहेढुं, तथा नहीं कहेलुं एवं सघर्बु पाप तेणे आचर्युः तथा ते मांस पकाववानां लाकडां माटे पोताने पूजा करवानी लाकडांनी देवमूर्तिने पण तेणे नांगी. एवी रीते ते मद्यपानथी नाश थएलुं ,तपरूपी वीर्य जेनु, एवो ते शषि मरीने, नरके गयो; माटे एवी रीते धर्मना अनुरागी माणसोए मदिराने दोषनी खाणरूप जाणवू. एवी रीते उगणीसमा अष्टकर्नु विवरण समाप्त थयु. विशतीतमाष्टकं प्रारज्यते. हवे “मैथुनमा दोष नथी" एवी रीतना वादीना वचननु खंडन करता थका कहे . रागादेव नियोगेन, मैथुनं जायते यतः॥ ततःकथं न दोषोऽत्र, येन शास्त्रे निषिध्यते॥१॥ अर्थ-जेथी तुं शास्त्रमा मैथुनमा दोषनो निषेध करे , पण जे कारणमाटे रागथीज अवश्य नावें करीने, मैथुन थाय , तेथी तेमां दोष केम न कहेवाय ? टीकानो जावार्थ-कामना उदयरूप एवा विषयरागथी श्रवश्य जावें करीने मैथुननी उत्पत्ति थाय ने, माटे तेमां ते रागरूप, अथवा ते रागथी उत्पन्न श्रता कर्मरूप दूषण केम न कहेवाय ? के जेथी, तुं शास्त्रमा मैथुनने निर्दोष गणे !!! नावार्थ एवो के, जे रागजन्य ने, ते दूषणवाटुंबे, जेम हिंसा; अने तेवी रीते मैथुन पण रागजन्य , माटे ते दोषणवाटुं . श्रा हेतु पढ़ना एक देशश्री असिद्ध , एवी परमतनी श्राशंका करता थका हवे कहे . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० श्रीहरिलजसूरिकृतान्यष्टकानि । धर्मार्थ पुत्रकामस्य, खदारेष्यधिकारिणः ॥ ऋतुकाले विधानेन, यत्स्यादोषो न तत्र चेत्॥२॥ अर्थ-धर्मने माटे पुत्रनी श्लावालो, तथा पोतानी स्त्रीमांशधिकारी एवो माणस ऋतुकाले, जो विधिपूर्वक मैथुन सेवे, तो तेमां दूषण नथी; एवं जो तुं मानीश, तो, (आनो संबंध हवे पळीना श्लोकनी साथे .) टीकानो जावार्थ- वादी कहे ने के, धर्मने माटे पुत्रनी श्यावालाए मैथुन सेववामां दूषण नथी; कह्यं के, अपुत्रस्य गतिर्नास्ति, वर्गो नैवच नैव च ॥ तस्मात्पुत्रमुखं दृष्ट्वा, पश्चाडम चरिष्यति ॥ तेम पोतानीजस्त्रीना अधिकारी एवा गृहस्थने मैथुन सेववामां दूषण नथी (पण परस्त्री के वेश्यासाथे मैथुन सेव, ते अनर्थन कारण बे.) वली ते मैथुन पण गृहस्थे तुकाले सेवकुं; (ऋतुकालविनां मैथुन सेववाथी दोषनी उत्पत्ति थाय ) कडं ने के, ऋतुकाले व्यतिक्रांते, यस्तु सेवेत मैथुनम्॥ ब्रह्महत्याफलं तस्य, सूतकं च दिने दिने ॥१॥ वली ते मैथुन विधिपूर्वक एटले ऋतुकाले स्त्रीना शरीरने माखण अने दर्लथी आबादन करवू, तथा दर्जनो मणिबंधबांधवो, विगेरे स्मृतिमां कहेवाप्रमाणे जे मैथुन सेववू, तेमां कंइंदोष नथी. एवी रीते वादीनुं कहेवू अयुं; तेने हवे आचार्य उत्तर आपे . नापवादिककल्पत्वा, नैकांतेनेत्यसंगतम् ॥ वेदं ह्यधीत्य स्नायाद्य, दधीत्यैवेति शासितम् ॥३॥ अर्थ- अपवादिक आचारपणाथी, धर्मने माटे पण मैथुन सेवq उचित नथी; तेथी एकांत तेमां दोष नथी, ते कहेवू अयुक्त ने केमके, वेदने जणीने स्नान करवू, अने ते पण नपीनेज एम कहेढुंचे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंशती तमाष्टक. १६ए टीकानो जावार्थ- हे बादी ! 11 धर्मने माटे मैथुन सेववामां दोष नश्री, एवं जे तें कां; ते युक्त नथी; शा माटे ? ते कहे बे के, ते याचार छापवादवालो ने अहीं दुःखी अएलो माणस जेम पोतानुं मांस क्षण करे बे; ते दृष्टांत जावी लेवं; अर्थात् अपवादश्री जेम पोतानुं मांसादिक सेवाय बे, तो पण ते स्वरूपथी निर्दोष नथी; एवी रीते स्वरूपथी दूषणवालुं पण मैथुन, कुमार अवस्था मांडीने यतिपणासुधी, जे पालवाने असमर्थ बे, एवो गुणांतरनो पेज सेवे छे. वली जो ते मैथुनने सर्वथा निर्दोष मानी यें, तो कुमार अवस्थाथी मांडीने, यतिपणुं पासवानो जे उपदेश, ते निरर्थक थाय; तेम गृहस्थावास त्यागवानो उपदेश पण निरर्थक याय. अने तेथी सर्वथा मैथुनमां दोष नथी, एवं जे कां ते युक्त बे; केमके, रागादिकना जावथी तेमां पण कथंचित् दोषनो संभव बे; वली धर्मार्थी पुरुषने पण मैथुन से - वामां विकार करनार कामनो उदय, तथा विविध प्रकारना रंज ने परिग्रह अवश्य थाय छे; कारण के, कामना उदयविना मैथुननो विकार संजवतो नथी. हवे तेवा मैथुनने श्रपवादिक प्रचार केम कहेवाय ? तो के, वेदने जीनेज स्त्रीना संग्रह माटे स्नान कर एम कहेतुं बे. - हवे तेनुं उलटाप कहे बे. स्नायादेवेति न तुय, ततो हीनो गृहाश्रमः ॥ तत्र चैतदतो न्याया, त्प्रशंसास्य न युज्यते ॥४॥ अर्थ- स्नान करवुंज, तेथी अवधारण नहीं; श्रने गृहस्थाश्रम तेथी हीन ; छाने तेमां ते मैथुन संजवे बे; माटे न्यायथी तेनी प्रशंसा करवी, ते युक्त नथी. टीकानो जावार्थ- वेद जणीने, अर्थात वेद जणवा पटी, स्त्रीना संग्रह माटे स्नान करबुंज; पण अवधारण कयुं नथी; करीने मैथुननो त्याग मुख्यपणे कह्यो; अने मैथुन छाप २२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । वादें कह्यु बाथी करीने, अपवादिक मैथुनमां पण, रागनाव देखाडवाथी पक्षना एक देशमां हेतुनी असिझतानो परिहार को; केमके, यतिनी अपेक्षायें गृहस्थाश्रम हीन बे; अने तेशी शं? के, धर्मार्थादिक विशेषणवालुं मैथुन गृहस्थाश्रममां संजवे जे; केमके स्त्रीनो संग्रह गृहस्थावस्थामांज थाय ; माटे एवी रीतना न्यायथी ते मैथुननी प्रशंसा करवी, ते लायक कहेवाय नहीं; अने वली अपुत्रीआने गति नथी; एबुं जे वादीए कह्यु, ते तेनाज मतथी अयुक्त ने केमके कयुं के, अनेकानि सहस्राणि, कुमारब्रह्मचारिणाम् ॥ दिवं गतानि विप्राणा, मकृत्वा कुलसंततिम् ॥ १॥ अर्थ- हजारो ब्राह्मणोना ब्रह्मचारी कुमारो, संतति कर्याविना देवलोकमां गया . मैथुननी प्रशंसा करवी, ते लायक नथी, ए, जे कडं; तेथी हवे अहीं परमतने आशंकता थका कहे . श्रदोषकीर्तनादेव, प्रशंसा चेत्कथं नवेत् ॥ अर्थापत्त्या सदोषस्य, दोषानावप्रकीर्तनात्॥५॥ अर्थ- हे वादी!!! जो निर्दोष कहेवाश्रीज ते मैथुननी तुं प्रशंसा मानीश, तो अपत्तिथी सदोषने निर्दोषपणुं कहेवाश्री, ते शी रीते थशे? टीकानो नावार्थ-अहीं वादी एम कहे के, मनु शषिए, “मैथुनमा दोष नथी” एम जे कडं , तेथीज सिम के, ते प्रशंसनीक के; त्यारे तेने आचार्य महाराज कहे ने के, जो तुं एम मानीश, तो तेने अदोष कहेवामां प्रशंसा शी रीते थाय ? केमके "वेद लणीने स्नान करवुज" एवा पूर्वोक्त प्रमाणथी, पापरूप एवा मैथुनने निर्दोष कहेवाश्री, "नच मैथुने दोष” ए श्लोकमां जे दोषनो अलावज जणाव्यो हतो, ते अप्रमाण अयु; अर्थात् जे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंशतीतमाष्टक. १७१ थापत्ति दोषवालुं निश्चित थएलुं वे, तेने प्रमाण वचनथी निर्दोष कही शकाय नहीं; एवो जावार्थ बे. दोष कवाथी यानी प्रशंसा युक्त बे, एंवं जे वादीए कहां, मां दोष कहेवानुंज न्यायपणुं देखाडता थका हवे कहे . तत्र प्रवृत्तिहेतुत्वात् त्याज्यबुद्धेरसंजवात् ॥ विध्युक्ते रिष्टसं सिद्धे, रुक्तिरेषा न जड़िका ॥ ६ ॥ अर्थ - ते मैथुनमां प्रवृत्तिना हेतुपणाथी, तथा ते तजवानी बुद्धिना संवथी, वली ते सेववानी विधि कहेवाथी, तथा मां मनोवांबिनी सिद्धि होवाथी, "ते प्रशंसनीक बे" एकहे सारं नथी. टीकानो जावार्थ - " ते मैथुन प्रशंसनीक बे, एम कहेवुं सारं नथी; शा माटे ? के, ते मैथुनमां श्रर्थापत्ति न्यायथी उपर जे दोष देखाड्यो, तेमां प्राणीजनी प्रवृत्ति होवाथी ते उत्तम नथी. अर्थात् प्राणीने दोषवाला पदार्थोमां प्रवृत्ति करवानुं जे कहे, ते हिंसाने निर्दोष कवानी पेठे शोजनीक नथी. वली ते मैथु जवानी बुद्धिनोज असंभव बे; केमके, “मैथुनमां दोष नथी ” एवा वचन उपर श्रद्धा राखनारने, ते त्याग करवानी बुविज शी रीते थशे ? छाने त्याग करवानी बुझिनोज ज्यारे - नाव थयो, त्यारे तेमां प्रवृत्ति कोण नहीं करे ? हवे ते त्यागबुछिनो असंव शा माटे बे ? तो के “शास्त्रमां कहेली नवनीतादिक विधिपूर्वक मैथुन सेववामां दोष नथी, " एवं वचन मा - नीने, यो माणूस तेने अंगीकार नहीं करे? वली अनादि कालनी महामोहनी वासनावाला जीवोने वहालुं, एवं जे मैथुन, तेने निर्दोष कहेवाश्री, तेज॑ने मनगमतीज प्राप्ति थवाथी, तेने निर्दोष गणीने, ते ईष्टने कोण माणस अंगीकार न करे ? केमके, मैथुन सर्व जीवने वहालुं बे. कां वे के, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ श्रीहरिलप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । कामिनीसंनिभा नास्ति, देवतान्या जगत्रये॥ यां समस्तोऽपि पुंवर्गो, धत्ते मानसमंदिरे ॥१॥ अर्थ-त्रणे जगतमां स्त्री समान कोई देवता नथी; के जे ते. देवताने सघलो पुरुषवर्ग पोताना मनरूपी मंदिरमा राखे . वली मैथुन- बीजा प्रकारथी दूषण देखाडता थका कहे जे. प्राणिनां बाधकं चैत, नास्त्रे गीतं महर्षिनिः॥ नलिकातप्तकणक, प्रवेशज्ञाततस्तथा ॥ ॥ अर्थ- (रुथी) नरेली वांसनी नलीमा (अग्निथी) तपावेला सलीआने नाखवाना दृष्टांतथी, ते मैथुन, (प्रज्ञप्तिादिक) शास्त्रमा वीरप्रनु आदिक महान मुनिए, प्राणीउने बाधा करनारं कर्तुं बे. टीकानो लावार्थ- (श्लोकना अर्थने मतलोज.) श्राप्तना वचनपूर्वक मैथुन- बीजुं पण दूपण कहेता थका हवे प्रकरण पुरुं करवा माटे कहे . मूलं चैतदधर्मस्य, नवनावप्रवर्धनम् ॥ तस्माहिषान्नवत्याज्य, मिदं मृत्युम निबता॥॥ अर्थ- अधर्मना मूल समान, तथा जवनी सत्ताने, अथवा जवने उत्पन्न करनारा एवा हिंसा आदिक नावोने वधारनारं श्रा मैथुन ने माटे मृत्युने नहीं श्चता, अर्थात् मोदने श्चता एवा माणसे, तेने विषमिश्रित अन्ननी पेठे तजवं. टीकानो नावार्थ- ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज .) एवी रीते वीशमा अष्टकनुं विवरण समाप्त थयु. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकविंशतीतमाष्टक. १७३ एकविंशतीतमाष्टकं प्रारज्यते. एवी रीते कुतीर्थिउने शिखामण आपीने, हवे पोताना समुदायवालाउने शिखामण आपता श्रका आचार्य महाराज कहे जे. सूमबुद्ध्या सदा शेयो, धर्मो धर्मार्थिनिर्नरैः ॥ अन्यथा धर्मबुद्ध्यैव, तद्विघातः प्रसज्यते ॥१॥ अर्थ-धर्मनी श्रद्धावाला माणसोए हमेशां निपुण बुध्येि करीने, धर्मने जाणवो; अने जो स्थूल बुधियी जाणीयें, तो ( कुतीबीउनी पेठे) धर्मना अभिप्रायथीज ते धर्मनो नाश थाय . टीकानो लावार्थ- ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज.) हवे तेज देखाडता थका कहे जे. गृहित्वा ग्लानजैषज्य, प्रदाना निग्रहंयथा ॥ तदप्राप्तौ तदंतेऽस्य, शोकं समुपगतः ॥२॥ अर्थ- कोई रोगी (साधु आदिकने ) औषध देवानो अनिग्रह लेख्ने, ते रोगी नहीं मलवाथी, ते अनिग्रहने अंते शोकने प्राप्त श्रनाराने जेम, तेम, धर्मबुद्धिथी पण अधर्म थाय जे. टीकानो लावार्थ- ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे.) हवे ते शोक देखाडे जे. गृहितोऽनिग्रहःश्रेष्ठो, ग्लानो जातो न चक्कचित्॥ अहो मेऽधन्यता कष्टं, न सिझमनिवांडितम् ॥३॥ अर्थ-(ते माणस एवी रीते शोक करे के,) में अभिग्रह तो उत्तम लीधो, पण कोइ ( साधु ) रोगी थयो नहीं!! माटे अरेरे!!! मारी अधन्यता केटली !!! के, मारुं वांगित कार्य सिघ थयुं नहीं !!! टीकानो नावार्थ-(उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज.) हवे चालती वातने जोडवा माटे कहे . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ श्रीहरिप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । एवं ह्येतत्समादान, ग्लानजावानिसंधिमत् ॥ साधूनां तत्वतो यत्तद्, पुष्टं झेयं महात्मनिः॥४॥ ___अर्थ-एवी रीते (धर्मने व्याधात करनारो) जे अजिग्रह लेवो, ते साधुनी मांदगी चिंतववावालो ने, अने तेथी, तेवा अन्निग्रहने, उत्तम लोकोए मुष्ट जाणेलो .. टीकानो नावार्थ-(उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज . ) __एवी रीतनी अर्थापत्तिथी दोषनी प्राप्ति अन्यदर्शनीए पण अंगीकार करेली के ते देखाडता थका हवे कहे . लौकिकैरपि चैषोऽर्थो, दृष्टःसूमार्थदर्शिनिः॥ प्रकारांतरतःकैश्चि, धत एतमुदाहृतम् ॥ ५॥ अर्थ-सूक्ष्म अर्थाने जोनारा, एवा केटलाक वाल्मीकि श्रादिय लौकिकोए पण जपर कहेलो अर्थ, प्रकारांतरथी जोएलो के केम के तेए नीचेप्रमाणे कहेलुं बे.. टीकानो नावार्थ-उपर कहेलो अर्थापत्तिथी उत्पन्न थता दोषवालो अर्थ, केवल जैनीउएज जाण्यो , तेम नहीं, पण लौकिक एवा वाट्मीकि आदिक केटलाक शषिए पण जाण्यो के ते केवा ? तो के, सूक्ष्म अर्थाने जोनारा; (केम के, अतिस्थूल बुद्धिवाला माणसो तेवा अर्थाने जाण। शकता नथी.) अहीं कोई शंका करे के, मिथ्यात्विउँने सूक्ष्मदृष्टिपणुं शी रीते घटी शके ? तो के तेउने पण मतिअज्ञानावरणादिक कर्मनो क्षयोपशम होय जे; माटे कडं जेके, “सयसयविसेसाणाउगाहा." हवे तेउए केवी रीते जाण्यो ? तो के, अमोए कहेला प्रकारथी बीजी रीते तेए जाण्यो , केम के, तेए नीचेप्रमाणे कडं . अंगेष्वेव जरा यातु; यत्त्वयोपकृतं मम ॥ नरःप्रत्युपकाराय, विपत्सु लजते फलम् ॥ ६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकविंशतीतमाष्टक. १७५ अर्थ - ( सुग्रीवे पोतानी स्त्री ताराना मलवाथी रामचंद्रजीने क के) मारां गोमां जले घडपण यावो ? ( पण सामा उपकार करवावडे करीने पालुं उपकृत मा थार्ज ) केम के, तमोए ( बलिपासेश्री मारी स्त्री ताराने बोडावीने) मारापर उपरकार कर्यो . केम के, उपकृत माणस सामा उपकारमाटे, उपकारीने ज्यारे आपदा पडे, त्यारेज फलने मेलवे बे. टी कानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकनार्थने मलतोज बे.) एवीज रीते सघली प्रवृत्तिमां पण व्याघात वे बे, ते देखाडता थका हवे करे बे. एवं विरुद्धदानादौ, हीनोत्तमगतेः सदा ॥ प्रव्रज्यादिविधाने च शास्त्रोक्तन्यायबाधिते ॥ ७ ॥ द्रव्यादिदतो ज्ञेयो, धर्मव्याघातएव हि ॥ सम्यग्माध्यस्थ्यमालंव्य, श्रुतधर्मव्यपेक्षया ॥८॥ ॥ युग्मम् ॥ अर्थ-एवी रीते, विरुद्ध दानादिकमां, तथा शास्त्रमां कहेला न्यायथी बाधित एवा, दीक्षा श्रादिकना ग्रहण करवामां, दीन प्रते उत्तमपणाना बोधथी, हमेशां पव्यादिकना दथी धर्मनो व्याघातज थाय छे. माटे सारी रीते मध्यस्थपणाने - श्रीने, श्रागमनी अपेक्षायें करीने, ते जावो. " टीकानो जावार्थ जेम रोगीने धर्मबुद्धिथी औषध देवाना निग्रहमां, बुद्धिदोषथी धर्मनो व्याघात थाय बे, तेम शास्त्रमां निवारण करेला एवा धाकर्मादिक आहार देवामां अथवा कुपात्र हा देवाचादिकमां पण सूक्ष्म बुद्धिविना धर्मनो व्याघातज थाय बेः शामाटे ? के, हीनप्रते उत्तमपणाना ज्ञानथी, ज्यारे दान देवाय, त्यारे प्रगट रीतेज धर्मनो व्याघात थाय बे; वली केवल विरुद्धदानादिकमांज धर्मनो व्याघात थाय बे, तेम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । नहीं, सर्ववितिने देशविरतिपणुं ग्रहण करवामां पण सूक्ष्म बुद्धिविना धर्मनो व्याघात थाय छे; ते दीक्षादिकनुं ग्रहण कर के ? तो के, श्रागममां कहेला न्यायथी बाधित; हवे ते विरुद्ध दानादिकमां, तथा प्रव्रज्या श्रादिकना ग्रहण करवामां प्रव्य, क्षेत्र, काल, जावने श्रीने सूक्ष्म बुद्धिविना धर्मनो व्याघातज जावो. इव्यथी विरुद्ध दान आप एटले, साधुने षणीय वो हार पण उत्तम जाणीने जे पवो, ते प्रव्यविरुद्ध दान जावं; तेवीज रीते क्षेत्र, काल, अने जावथी पण दाननुं विरुद्धपणुं जाणी लेवुं; तेम उत्सर्गिक शास्त्रने बाधा करनार एवा दीक्षा श्रादिक ग्रहण करवामां पण प्रव्य, क्षेत्र, काल छाने जावी, सूका बुद्धिविना धर्मनो व्याघातज जाणवो. हवे ते धर्मनो व्याघात केवी रीते जाणवो ? तो के, सारी रीते मध्यस्थपणाने श्रीने, श्रगमनी अपेक्षायें करीने जावो. एवी रीते एकवीशमा अष्टकनुं विवरण समाप्त श्रयुं. द्वाविंशतीतमाष्टकं प्रारभ्यते. विरुद्ध दानादिकमां पण जावशुद्धिश्री धर्मज थाय बे, पण तेथी कई धर्मनो व्याघात थतो नथी; ते हवे कहे बे. जावशुद्धिरपि ज्ञेया, यैषा मार्गानुसारिणी ॥ प्रज्ञापना प्रियात्यर्थं न पुनः स्वाग्रहात्मिका ॥ १ ॥ " - ( ते वरदानादिकमां ) जावशुद्धि केतां मननो - संक्लिष्ट जाव पण जाणवो; ते जावशुद्धि केवी ? तो के, जिनेश्वर प्रभु कहेलो एवो ज्ञानादिकरूप जे मोक्षमार्ग तेने अनुसरवा - वाली बे; तथा जेमां आगमनार्थनो उपदेश प्रिय बे, एवी ते; पण ते जावशुद्धि कई पोताना श्राग्रहरूपज नथी.. टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकनार्थने मलतोज बे. ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घाविंशतीतमाष्टक. १७७ वादी शंका करे के, पोताना आग्रहरूप, एवी पण जावशुद्धि शामाटे न थाय ? तो तेने कहे वे के, स्वाग्रहमां जावशुद्विथी विपरीतं एवं जावमालीन्यपणुं बे, माटे; ने तेज बाबतवे श्लोकोयें करी ने कहे . राग द्वेषश्च मोहश्च, जावमालिन्यदेतवः ॥ एतत्कर्षतो ज्ञेयो, हंतोत्कर्षोऽस्य तत्वतः ॥२॥ अर्थ - राग, (प्रीतिरूप ) द्वेष, तथा ( अज्ञान बे, लक्षण जेनुं एवो ) मोह, आत्माना परिणामोने शुद्ध करवाना हेतुरूप बे, (अर्थात् स्वाग्रहादिक जावना कारणरूप बे; ) माटे तेज॑ना उपचयश्री परमार्थे करीने, स्वाग्रहादिकनो पण उपचय जाणवो. टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकनार्थने मलतोज बे. ) तेथ शुं ? ते हवे हे बे. तथोत्कृष्टे च सत्यस्मिन्, शुद्धिर्वै शब्दमात्रकम् ॥ स्वबुद्धि कल्पनाशील्प, निर्मितं नार्थवद्भवेत् ॥ ३॥ अर्थ एवी रीते राग-द्वेषादिकनो उत्कर्ष थये बते, जे जावशुद्धि थवी, ते तो फक्त कहेवामात्रज बे; केमके, पोतानी बुद्धिथी एटले प्रमाण विनानी बुद्धिथी बनावटनी जे कला तेथी बनावेलुं जे शब्दरूप ते सार्थक यतुं नथी. टी कानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे. ) हवे स्वाग्रहना जावमालिन्यना स्वरूपने स्पष्ट करता थका कहे वे. न मोहोक्तिताजावे, स्वाग्रहो जायते क्वचित् ॥ गुणवत्पारतंत्र्यं हि तदनुत्कर्षसाधनम् ॥ ४ ॥ अर्थ- मोहनो ( तथा उपलक्ष्णश्री राग काने घेषनो ) उबालोयाविना कोइ पण वस्तुमां ( जावशुद्धिश्री उलटा लक्षणवालो ) स्वाग्रह यतो नथी; माटे ते मोहादिकनो उबालो नहीं " २३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ थवानुं साधन, ( ज्ञान उने आधीन रहेवारूप बे. टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकनार्थने मलतोज बे.) हवे गुणवाननुं श्राधीनपणुं, मोहना उबालाने अटकाववानुं साधन बे, एवं आगमना जाणनाराड॑ना श्राचरणी समर्थन करता था कहे . श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । ने क्रियारूप ) गुणोने धारण करनारा - तएवागमज्ञोऽपि, दीक्षादानादिषु ध्रुवम् ॥ क्षमाश्रमणहस्तेने, त्याह सर्वेषु कर्मसु ॥ ५ ॥ - (गुणवाननुंधीनपणुं मोहना उबालाने अटकाव - नारुं बे.) तेथीज आप्तना वचनने जाणनार ( एवो साधु पण ) क के दीक्षा देवा आदिक उद्देश समुद्देष विगेरे, सर्वे कायमां खरेखर सद्गुरुना हाथनोज उपयोग करवो; ( पण स्वतंत्र थने पोताने हाथेज दीक्षा लेवी नहीं; अर्थात् उत्तम गुरुने हा दीक्षा लेवी . ) माटे एवी रीते गुणवानना धिनपणाथीज मोहना उबाखाने कावना जावशुद्धि थाय बे, पण ते शिवाय बीजी रीते यती नथी. टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकना श्रर्थने मलतोज बे. ) हवे तेज कहे बे. Jain Educationa International इदं तु यस्य नास्त्येव, स नोपायो पिवर्तते ॥ नावशुद्धेः खपरयो, गुणाद्यज्ञस्य सा कुतः ॥ ७ ॥ अर्थ - उपर कहेलुं गुणवाननुं श्राधीनपणुं जेने नथी, ते माएस जावशुद्धिना उपायमां पण वर्ती शकतो नथी; केमके, - मानाने आत्मा इतर एवा पुजल श्रादिकना गुण दोषो जेणे जाएया नथी, तेने ते जावशुद्धि क्यांथी थाय ? टीकानो जावार्थ- जे प्राणीने उपर कहेलुं गुणवाननुं श्राधी For Personal and Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोविंशतीतमाष्टक. १७ नपणुं नथी, ते प्राणी, जावशुद्धि तो एक बाजु रही, पण तेना उपायमांयें वर्ती शकतो नथी. ते शामाटे वर्ती शकतो नथी ? तो के, ते माणूस आत्मा ने श्रात्माथी इतर एवा परपुलिक संबंधि गुण दोषोने जाणी शकतो नथी; माटे तेने ते जावशुद्धि क्यांथी थाय. हवे जेवी रीतनी जावशुद्धिमां धर्मनो व्याघात यतो नथी, ते देखावा माटे तस्मादासन्नजव्यस्य, प्रकृत्या शुद्धचेतसः ॥ स्थानमानांतरज्ञस्य, गुणवद्बहुमानिनः ॥ ७ ॥ चित्त्येन प्रवृत्तस्य, कुग्रहत्यागतो नृशम् ॥ सर्वत्रागमनिष्ठस्य, जावशुद्धिर्यथोदिता ॥ ८ ॥ अर्थ - ते गुणवानना श्राधीनपणाथी, नजदीक बे मुक्ति जेने एवा जन्य माणसने, तथा उत्तम प्रकृतिथी राग यादिकथी रहित चित्तवालाने, तथा आचार्यादिकनो दरको अने तेनी पूजाना अंतरने जाणनारने, तथा समुणीनो पक्ष करनारने, तथा उचितपणाथी प्रवर्तनारने, तथा कदाग्रह तजी ने अत्यंत रीते सर्व बाबतमांना वचनने प्रमाण गणनाराने, परमार्थवाली जावशुद्धि श्राय बे. टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकनार्थते मलतोज बे.) एव ते बावीसमाष्टकनुं विवरण समाप्त थयुं. त्रयोविंशतीतमाष्टकं प्रारज्यते. धर्मार्थी माणसे जावशुद्धि करवी जोइयें, ते तो कयुं. हवे ते जावशुचिता एवा माणसे, शासनने यती मलीनतानुं सर्वथा प्रकारे रक्षण करवुं; नहीं तो महा अनर्थ थाय; एम देखाता था हवे हे . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्रीहरिलजसूरिकृतान्यष्टकानि । यः शासनस्य मालिन्ये, ऽनाजोगेनापि वर्तते स तन्मिथ्यात्वहेतुत्वा, दन्येषां प्राणिनां ध्रुवम् ॥१॥ बन्नात्यपि तदेवालं, परं संसारकारणम् विपाकदारुणं घोरं, सर्वानर्थ विवर्धनम् ॥२॥ __ अर्थ-जे कोइ साधु शासननां मलीनपणामांअजाणतां पण वर्ते बे,ते साधु, ते शासनमां बीजा प्राणीउने पण मिथ्यात्वना हेतुपपाथी खरेखर, उत्कृष्टुं, अने संसारना कारणरूप, तथा विपाके करीने दारुण, नयंकर, अने, सघला अनर्थने वधारनारूं, एवं मिथ्यात्वमोहनीय कर्म बांधे वे. टीकानो जावार्थ-(उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज के. हवे कहेलाथी उलटा गुणना प्रतिपादन माटे कहे जे. यस्तून्नतौ यथाशक्ति, सोपि सम्यक्त्वहेतुताम् अन्येषां प्रतिपद्येह, तदेवाप्नोत्यनुत्तरम् ॥३॥ अर्थ-जे माणस पोतानी शक्तिप्रमाणे शासननी उन्नतिमां वर्ते बे, ते पण बीजाउंना सम्यक्त्वना हेतुने पामीने श्रा जन्ममां तेज दायिक सम्यक्त्वने पामे बे. टीकानो नावार्थ-(उपरना श्लोकना अर्थने मयतोज वे.) हवे सम्यक्त्वनुं स्वरूप कहे . प्रवीणतीव्रसंक्लेशं, प्रशमादिगुणान्वितम् निमित्तं सर्वसौख्यानां, तथा सिकिमुखावहम् ॥४॥ ___ अर्थ- क्षीण थएल , तीव्र क्वेश जेमां, तथा शांत गुणवालुं, अने सर्व सुखनुं निमित्त, तथा मोदरूपी सुखने धारण करणार सम्यक्त्व . - टीकानो नावार्थ-"दीण" एटले निःसत्ताने प्राप्त भएल ने, तीव्र एवो अनंतानुबंधि कषायोदयना लदाणवालो क्वेश जेमां, एवं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोविंशती तमाष्टक. १८१ सम्यक्त्व बे; (केम के अनंतानुबंधि कषायनो उदय थये ते सम्यक्त्व प्राप्त अतुं नथी. ) वली ते सम्यक्त्व प्रशम, संवेग, निवेद, अनुकंपा, तथास्तिकपणारूप गुणोएं करीने सहित बे; अथवा सम्यग्दृष्टिने, उत्तम बोधना सामर्थ्यश्री प्रशमयादिक उत्तम गुणो थाय छे. कहां वे के. तन्नास्य विषयतृष्णा, प्रभवत्युच्चैर्नदृष्टिसंमोहः अरुचिर्धर्मपथ्ये, न च पापात्क्रोधकंडुतिः ॥ १ ॥ - सम्यदृष्टिने विषयनी तृष्णा होती नथी, तेम उंचा प्रकारे दर्शनमोहनी पण तेने होती नथी, धर्मरूपी पथ्यमां तेने रुचि थती नथी, तेम पापथी क्रोधरूपी खरज पण तेने थती नथी. हादिशब्दथी जिनशासननी कुशलता श्रादिक बीजा गुगोनुं पण ग्रहण कर. वली ते सम्यक्त्व सघला मनुष्यजवाने देव जवना नंदनुं कारण बे; वली ते मोक्षसुखने प्राप्त करनारूं बे. हवे पूर्वे कली प्रवचननी मलीनताने दूर करवानो उपदेश देता था कहे a. श्रतः सर्वप्रयत्नेन, मालिन्यं शासनस्य तु ॥ प्रेक्षावता न कर्तव्यं, प्रधानं पापसाधनम् ॥५॥ अर्थ - करीने सर्व आदरें करीने, बुद्धिवान माणसे शासनने मलीनता लगाडवी नहीं; केम के, मलीनता लगाडवी ते उत्कृष्टुं न कर्मनुं साधन बे. ते एम केम बे ? ते हवे कहे बे. यस्माच्छासनमालिन्या, जातौ जातौ विगर्हितम् ॥ प्रधानजावादात्मानं सदा दूरी करोत्यलम् ॥६॥ " अर्थ - शासनना मलीनपणाथी, ( प्राणी ) जवजव प्रत्माने निंदित करे बे, तथा हमेशां उत्कृष्ट जावथी - तिशयपणायें करी ने तेने करे बे. Jain Educationa International दूर For Personal and Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । टी कानो नावार्थ - ( उपरनां श्लोकना अर्थने मलतोज बे.) शासनना मलीनपणाने तजवानो उपदेश दइने, हवे तेनुंज जे कंई करवुं, तेनो उपदेश देता थका कहे बे. कर्तव्या चोन्नतिः सत्यां, शक्ता विह नियोगतः ॥ वंध्यं बीजमेषाय, त्तत्त्वतः सर्वसंपदाम् ॥ ७ ॥ अर्थ- पोतानी शक्तिप्रमाणे श्रा जिनशासनमा अवश्यें करीने, उन्नति केतां प्रजावना करवी; केम के, ते प्रभावना तत्वथी सर्व संपदानुं फल उपजावनारूं बीज बे. टीकानो जावार्थ - ( उपरमा लोकना अर्थने मलतोज बे.) ते केम ? ते हवे कड़े बे. श्रत उन्नतिमाप्नोति, जातौ जातौ हितोदयम् ॥ यं नयति मालिन्यं, नियमात्सर्ववस्तुषु ॥ ८ ॥ अर्थ- एवी रीते जिनशासननी उन्नति करवाथी, जवजव प्रते (प्राणी) जाति, कुल, रूप, ने विजव यादिकथी उन्नतिने पामे बे ने जाति, कुल, बुद्धि श्रादिक सर्व जावोमां पोतानां दुषणोनो अवश्यें करीने नाश करे बे. टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकनार्थने मलतोज बे.) एवीतेवी शमाष्टकनुं विवरण संपूर्ण थयुं. चतुर्विंशतीतमाष्टकं प्रारज्यते. एव ते शासननी उन्नति करवाथी प्राणी हितना उदयवाली उन्नतिने पामे बे; एम कां; त्यारे अहीं कोइ शंका करे के, हितना उदयवाली पण शुं कोइ उन्नति बे ? त्यारे तेने कहे बे के, तेवी पापनुबंधि पुण्यजन्य उन्नति बे; अने तेना पुण्यापुण्यना विचा रमां नीचेप्रमाणे चार जांगार्ड थाय बे. एक पुण्यानुबंधि पुष्य, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ चतुर्दशमाष्टक. बीजुं पापनुबंधि पुण्य, त्रीजुं पापानुबंधि पाप, अने चोथु पुण्यानुबंधि पाप. तेढमांथी पेहेला लांगानुं स्वरूप हवे कहे . गेहाद्गेहांतरं कश्चि, छोजनादधिकं नरः॥ याति यत्सुधर्मेण, तहदेवजवादनवम् ॥१॥ अर्थ- जेम कोश्क पुरुष सारा घरमांथी निकलीने तेथी वधारे सारा घरमां जाय , तेम पुण्यानुबंधि पुण्यश्री प्राणी मनुप्यरूपी सारा नवमांथी निकलीने, तेथी वधारे सारा एवा देवजवमा जाय . टीकानो नावार्थ- ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज .) हवे बीजा नांगानुं स्वरूप कहे .. गेहादू गेहांतरं कश्चि, बोजनादितरन्नरः॥ याति यदसकर्मा, तहदेवनवादूनवम् ॥२॥ अर्थ-जेम कोइ पुरुष सारा घरमांथी निकलीने नगरा घरमां जाय , तेम प्राणी पापानुबंधि पुण्यथी मनुष्य रूपी सारा नवमांथी निकलीने, नारकी आदिक नगरा जवमा जाय .. टीकानो नावार्थ- ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज जे.) हवे त्रीजा नांगानुं स्वरूप कहे . गेहाद्गेहांतरंकश्चि, दशुनादधिकं नरः॥ यातियन्महापापा, त्तहदेव नवादूनवम्॥३॥ अर्थ- जेम कोई पुरुष नगरा घरमांथी निकलीने, तेथी पण वधारे नगरां घरमां जाय , तेम प्राणी पापानुबंधि पापथी तियेच आदिकना जवथी निकलीने, तेथी वधारे नगरा एवा नारकी आदिकना नवमां जाय . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । sa चोथा जांगानुं स्वरूप कहे बे. गेहादगेहांतरं कश्चि, दशुजादितरन्नरः ॥ यातियत्सुधर्मेण तदेवजवाद्द्भवम् ॥ ४ ॥ अर्थ- जेम कोइ पुरुष नवारा घरमाथी निकलीने, सारा घरमां जाय बे, तेम प्राणी पुण्यानुबंधि पापथी तिर्यच आदिकना जवी निकलीने, मनुष्यादिक जवमां जाय बे. हवे उपदेश कहे . शुजानुबंध्यतः पुण्यं, कर्तव्यं सर्वथा नरैः ॥ यत्प्रजावादपातिन्यो, जायंते सर्वसंपदः ॥ ५ ॥ अर्थ - श्री करीने, माणसोए सर्वथा प्रकारे, पुण्यानुबंधी पुण्य कर; के जेना प्रजावथी नाश न थाय एवी, सघली मोदादिक संपदा थाय बे. टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकनार्थ मलतोज बे.) हवे, ते पुण्यानुबंधि, पुण्य शी रीते कराय, ते कहे बे. सदागमविशुद्धेन, क्रियते तच्च चेतसा ॥ एतच्च ज्ञानवृद्धेच्यो, जायते नान्यतः क्वचित् ॥६॥ - ते पुण्यानुबंध पुण्य, हमेशां आगमथी शुद्ध थपला चित्तथी कराय ; ने श्रागमश्री शुद्ध एवं जे चित्त, ते ज्ञानथी वृद्ध एवा माणसोनी उत्तम उपासना करवाथी थाय बे पण बीजी रीते यतुं नथी. कानोजावार्थ - ( उपरना लोकना श्रर्थने मलतोज बे.) जो चित्त शुद्ध न होय, तो शुं थाय ? ते हवे कहे . चित्तरत्नमसंक्लिष्ट, मांतरं धनमुच्यते ॥ यस्य तन्मूषितं दोष, स्तस्य शिष्टा विपत्तयः ॥ ७ ॥ अर्थ- रागादिक दोषोयें करी ने वर्जित एवं जे चित्तरूपी रत्न, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचविंशतीतमाष्टक. १८५ ते आध्यात्मिक धन कहेवाय बे; माटे जे माणसनुं ते चित्तरूपी रत्न, राग आदिक (चोरोथी ) लुंटाएलुं बे, ते माणसने कुगतिगमनरूपी आपदाज बाकी मां रहे बे. " टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकना कार्थ मलतोज बे.) हवे ते पुण्यानुबंधपुष्यनो उपाय बतावे . दयाभूतेषु वैराग्यं विधिवद्गुरुपूजनम् ॥ विशुद्धा शीलवृत्तिश्च, पुण्यं पुण्यानुबंध्यदः ॥८॥ अर्थ- प्राणी मां दया, वैराग्य, विधिपूर्वक गुरुपूजन, तथा शुद्ध एवी शीलनी वृत्ति, ते पुण्यानुबंधी पुण्य कहेवाय. टीकानो जावार्थ- सामान्य जीवो प्रते दया, वैराग्य, तथा श्रद्धा, सत्कार आदिक विधिपूर्वक जक्तपानादिकथी गुरुपूजन तथा हिंसा, अनृत, अदत्त, अब्रह्म, अने परिग्रहना त्यागरूप शुद्धवृत्ति; तेथी पुण्यानुबंधि पुष्य थाय बे. एवी रीते चोवीसमा अष्टकनुं विवरण संपूर्ण ययुं. पंचविंशतीतमाष्टकं प्रारभ्यते. हवे तेज प्रधानफलथी देखाडता थका कहे बे. श्रतः प्रकर्षसंप्राप्ता, द्विज्ञेयं फलमुत्तमम् ॥ तीर्थकृत्त्वं सदौचित्य, प्रवृत्त्या मोक्षसाधकम् ॥१॥ अर्थ - ते पुण्यानुबंध पुण्य वृद्धि पामवाथी, उचित प्रवृत्ति - श्री मोहने साधना, एवं तीर्थकररूपी उत्तम फल जाणवु. टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकनार्थने मलतोज बे.) हवे ते उचित प्रवृत्तिनुं स्वरूप कहे बे. सदौचित्यप्रवृत्तिश्च, गर्जादारज्य तस्य यत् ॥ तत्राप्यनिग्रहो न्याय्यः, श्रूयते हि जगङ्कुरो ः॥२॥ अर्थ- हमेशां औचित्यनी प्रवृत्ति, गर्भथी मांडीने तीर्थरकने २४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । होय जे; केमके, ते गोवस्थामां पण जगतना गुरु एवा, श्रीमहावीर स्वामीनो उचित अनिग्रह संललाय . हवे ते अनिग्रह केवो? ते कहे .. पित्रुटेगनिरासाय, महतां स्थितिसिद्धये ॥ ईष्टकार्यसमृध्यर्थ, मेवं नूतो जिनागमे ॥३॥ अर्थ- माबापना उप्रेगनो नाश करवा माटे, तथा महानोनी सिद्धि माटे तथा मोक्षरूपी जे इष्टकार्यनी समृद्धि, तेने माटे, एवी रीतनो अभिग्रह आप्तना आगममां संजलाय . हवे जेवो ते अनिग्रह संजलाय , ते कहे . जीवतो गृहवासेऽस्मिन् , यावन्मे पितराविमौ ॥ तावदेवाधिवत्स्यामि, गृहानहमपीष्टतः॥४॥ अर्थ- (श्री वीरप्रनुए अनिग्रह लीधो के, ) ज्यांसुधी श्रा गृहस्थावासमां मारां मातपिता जीवे, त्यांसुधी हुँ पण मारी श्वाथी घरमां रहीश. टीकानो नावार्थ-श्री महावीर स्वामी नगवान देवनवश्री चवीने, पूर्व उपार्जन करेला नीचगोत्रकर्मना उदयथी ब्राह्मणकुंडग्राम नामना नगरमांशषनदत्त नामना ब्राह्मणनी देवानंदा नामनी स्त्रीनी कुदीए उत्पन्न श्रया; पनी एंसीमे दिवसे पोतानुं आसन चलित थवाथी, इंझे अवधिज्ञानथी ते वात जाणीने, हरिणगमेषी नामना देवनी मारफते, क्षत्रीयकुंड नामना नगरना सिद्धार्थ राजानी त्रीशला नामनी राणीना गर्नमां प्रजुने संक्रमाव्या. त्यारे देवानंदा, पोते जोएलां चौद स्वप्नना अपहारथी पोताना गर्जनो संहार जाणीने, अत्यंत शोकरूपी समुषमा डुबवा लागी; त्यारे लगवाने अवधिज्ञानथी जाण्यु, के, अहो ! मारा निमित्तथीज श्राने श्राद्धं बधुं दुःख थयुं !!! पण हवे मारा अंगहलनथी श्रा त्रिशलामाताने मुःख न थाय, तो सारूं, एम विचारिने न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचविंशतीतमाष्टक. १०७ गवान गर्नस्थानमां स्थिर रह्या; त्यारे त्रिशलामाताए विचार्यु के, अरे ! मारो गर्न गली गयो के शुं? इत्यादि शोक करती थकी महा मुःखने प्राप्त यश त्यारे जगवान स्फुरायमान थया; अने विचार्यु के, अहो! हजु मने जोयो नथी, त्यांज मातापितानो मारापर ज्यारे भाटखो स्नेह बे, त्यारे मने जोया बाद, ज्यारे हुँ दीक्षा लेश्श, त्यारे तो तेमने महासंताप थशे. माटे तेमनो संताप दूर करवा माटे, ज्यांसुधी ते जीवशे, त्यांसुधी हुँ दीदा खेश्श नहीं;" एवीरीतनो सातमे महिने तेमणे गावासमांज अनिग्रह सीधो. अहीं को शंका करे के, एवी रीतनो अनिग्रह करवाथी, मातपिताना उगनो नाश थाय, अने एवी रीतनी महानोनी स्थिति मे, ते तो सिप थयुं; पण तेथी मोदनी समृद्धि मलवानुं तो बनी शकतुं नश्री, केमकें, ते गृहस्थावस्थामां यश् शक्ति नथी. कारण के, गृहस्थावस्थाने दीक्षानुं विरोधिपणुं बे; तेने माटे हवे तेने कहे . श्मौ शुश्रूषणमाणस्य, गृहानावसतो गुरू ॥ प्रवज्याप्यानुपूर्येण, न्याय्यांते मे नविष्यति ॥५॥ अर्थ-श्रा मातपितानी सेवा करतां अका, घरे रह्या बाद अंते परिपाटीथी मने युक्त एवी प्रव्रज्या पण थशे. टीकानो नावार्थ- (उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज .) सर्वपापनिवृत्तिर्यत्, सर्वथैषा सतां मता ॥ गुरूछेगकृतोऽत्यंतं, नेयं न्याय्योपपद्यते ॥६॥ अर्थ- सर्व पापोनी निवृत्तिरूप एवी था दीक्षा उत्तम माणसोए सर्वथा प्रकारे मानेली अने तेथी माबापने अत्यंत उपेग करावनारनी श्रा दीदा न्यायवाली घटती नथी. टीकानो नावार्थ- (उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज के.) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ श्रीहरिनप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । ते एम केम ? तेने माटे हवे कहे . . प्रारंजमंगलं ह्यस्या, गुरुशुश्रूषणं परं ॥ एतौ धर्मप्रवृत्तानां, नृणां पूजास्पदं महत् ॥७॥ अर्थ- माबापनी जे सेवा, ते श्रा प्रव्रज्या प्रारंजमंगल, केतां नावमंगल के केम के, मोदना हेतुनूत एवी धर्मक्रियामां प्रवर्त श्रएला माणसोने, ते मातपिता, मोटुं पूजार्नु स्थानक . टीकानो नावार्थ- (श्लोकना अर्थने मलतोज बे.) हवे ते पूजानुं स्थानकपणुंज समर्थन करता श्रका कहे . स कृतज्ञः पुमान् लोके, स धर्मगुरुपूजकः ॥ स शुद्धधर्मजाक् चैव, य एतौ प्रतिपद्यते ॥ ७॥ अर्थ- जे माणस मातपितानी सेवा करे , ते माणस आ जगतमां कृतज्ञ , तथा ते पोताना धर्मगुरुने पूजनारो , तथा ते शुधर्मने नजनारो . एवी रीते पचीशमा अष्टकर्नु विवरण संपूर्ण थयु. । षड्विंशतितमाष्टकं प्रारज्यते. हवे अहीं वादी शंका करतो थको कहे जे के, तीर्थंकरर्नु दान संख्यावालुं , माटे तेने महत्वपणुं केम कहेवाय ? केम के, महाननुं दान पए महान होवू जोश्ये. ते बाबत देखाडतो थको हवे वादी कहे . जगद्गुरोर्महादानं, संख्यावच्चेत्यसंगतम् ॥ शतानि त्रीणिकोटीनां,सूत्रमित्यादिचोदितम् ॥१॥ अर्थ- जगतना गुरुर्नु ( तीर्थकरनुं ) दान संख्यावाढुं बे, माटे तेने महादान कहेवू, ते अनुचित ; केम के, ते दान त्रणसे क्रोड इत्यादि सूत्रमा कहेलुं . टीकानो जावार्थ- (श्लोकना अर्थने मलतोज के.) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ए षविंशतितमाष्टक. बुझ्नु महादान , एम कहेतो श्रको हजु वादीज कहे . अन्यस्त्वसंख्यमन्येषां, स्वतंत्रेषूपवर्ण्यते ॥ तत्तदेवेह तयुक्तं, मदनब्दोपपत्तितः॥२॥ अर्थ-बीजा एटले बौद्ध लोको, पोताना बोधिसत्वोनुं दान, पोताना शास्त्रमा असंख्यातुं कहे जे; एवी रीते " महत्" शब्दनी उपपत्तिथी, तेनुं ते दान युक्त ने. टीकानो लावार्थ- ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे.) तेथी शुं ? ते हवे कहे . ततो महानुजावत्वा, तेषामेवेह युक्तिमत् ॥ जगजुरुत्वमखिलं, सर्वं हि महतां महत् ॥३॥ अर्थ-ते महादानना योगथी, तेउनेज सघलु जगतनुं गुरुपणुं, युक्तिवालुं , केम के, महानोनुं सघलुं कार्य महानज होय बे. टीकानो लावार्थ- ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज .) हवे ते पूर्वपदने उपसंहरता थका कहे जे. एवमादेह सूत्राथ, न्यायतोऽनवधारयन् ॥ कश्चिन्मोहात्ततस्तस्य, न्यायलेशोऽत्रदर्श्यते ॥४॥ अर्थ- एवी रीते कोक बौध, मूढताथी, सूत्रना अर्थने न्यायथी नहीं जाणीने कहे ने माटे तेने हवे तेमां न्यायनो खेश देखाडाय बे. टीकानो जावार्थ- ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज .) हवे तेनाज प्रतिपादन माटे कहे . महादानं हि संख्याव, दर्थ्यनावाङगजुरोः॥ सिर्फ वरवरिकात, स्तस्याः सूत्रे विधानतः ॥५॥ अर्थ- याचकना अनावशी, जगशुरुर्नु (तीर्थकरनुं ) दान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । संख्यावालुं बे; ( पण उदारताना के व्यना अजावथी नहीं. ) माटे मनुं दान वरवरिकाथी ( कोइपण वरदान मागो ? ) महादानज सिद्ध थाय बे; वली ते " वरवरिका ” सूत्रमां पण कहेली ठे. टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकनार्थने मलतोज बे.) हवे ते केम सिद्ध युं ? ते कहे बे. तया सह कथं संख्या, युज्यते व्यजिचारतः ॥ तस्माद्यथोदितार्थं तु, संख्याग्रहणमिष्यताम् ॥६॥ - ते वरवरिकानी साथे, व्यजिचार आववाथी दाननी संख्या केम घटी शके ? माटे उपर कहेला प्रयोजनवालुंज संख्यानुं ग्रहण जावं. हवे जे " महानुभावत्व" यादिक जे वादीए कहां, तेने दोवालुं कहता था कहे बे. महानुभावताप्येषा, तद्भावेन यदर्थिनः ॥ विशिष्टसुखयुक्तत्वा, त्संति प्रायेण देहिनः ॥७॥ - महानुजावता पण तेज कहेवाय, के, ते जगद्गुरुना जावमां मागणो न होय; शामाटे के, प्रायें करीने प्राणी विशिष्ट सुखें करीने युक्त होय बे. टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकनार्थने मलतोज बे.) तथा, धर्मोद्यताश्च तद्योगा, त्तदा ते तत्वदर्शिनः ॥ महन्महत्वमस्यैव मयमेव जगरुः ॥ ८ ॥ अर्थ - ते जगरुपणाना संबंधथी, ते कुशल अनुष्ठानोमां उद्यमवंत होय बे, तथा ते वखते तेर्ज तत्वने जानारा होय बे; Jain Educationa International " For Personal and Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतितमाष्टक. ११ माटे एवा जिनेश्वर प्रनुनेज महन्महत्व घटी शके ने, अने तेज जगतना पण गुरु बे. टीकानो नावार्थ- ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे.) एवी रीते वीशमा अष्टकनुं विवरण संपूर्ण आयुं. सप्तविंशतितमाष्टकं प्रारज्यते. एवी रीते उपर जगशुरुनु महादान कडं, पण ते युक्त नथी, एवी रीते परमतने देखाडता का हवे कहे जे. कश्चिदाहास्यदानेन, कश्वार्थः प्रसिध्यति ॥ मोक्षगामी ध्रुवं ह्येष, यतस्तेनैव जन्मना ॥१॥ अर्थ- कोइक एम कहे के, तेना दानश्री कयो पुरुषार्थ सिद्ध वानो , केम के, ते तो तेज जन्में करीने खरेखर मोदगामी . टीकानो नावार्थ- ( श्लोकना अर्थने मलतोज बे.) हवे तेनो उत्तर आपे .. उच्यते कल्पएवास्य, तीर्थकृन्नामकर्मणः॥ उदयात्स्सर्वसत्त्वानां, हित एव प्रवर्तते ॥ अर्थ- तीर्थकर प्रनुनो ते श्राचारज कहेवाय बे; केम के, तीर्थकरनामकर्मना उदयथी ते सघला प्राणीना हितमांज प्रवर्तेने टीकानो नामार्थ- ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे.) हवे बीजो परिहार कहे . धर्मागख्यापनार्थं च, दानस्यापि महामतिः॥ अवस्थौचित्ययोगेन, सर्वस्यैवानुकंपया ॥३॥ अर्थ- दानने, धर्मना एक अंगरूप कहेवामाटे, महाबोधवाला एवा प्रनुए, अवस्थाना उचितपणाना योगथी अथवा सवनी अनुकंपायें करीने, दान दीधुं . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । ते दान धर्मनुं अंगजबे, ते देखाडवा माटे हवे कहे बे. शुजाशयकरं ह्येत, छाग्रहछेदकारि च ॥ सदन्युदयसारांग, मनुकंपाप्रसूति च ॥ ४ ॥ ॥ - ते दान, (चित्तना) शुभ आशयने करनाएं, तथा ममतानो नाश करनाएं, ने उत्तम अभ्युदयनुं उत्तम कारण, तथा दयाने उत्पन्न करनारूं बे. मुनि पण उचित दान देवुं, एवं दृष्टांतथी देखाडता थका ea कहे . ज्ञापकं चात्रनगवान्, निष्क्रांतोऽपि द्विजन्मने ॥ देवदूष्यं ददद्धीमा, ननुकंपा विशेषतः ॥ ५ ॥ अर्थ- वहीं ते दृष्टांत जाणवुं के, महाज्ञानी एवा जगवान श्री वीरप्रभुए दीक्षा सीधा पढी पण, अनुकंपाथी ब्राह्मणने देवदृष्य वस्त्र . टीकानो जावार्थ- श्री वीरप्रनुए एक वर्षसुद्धि प्राणीने वांबितदान प्युं, तथा पछी दीक्षा लड़ने, ज्ञातवनखंडमां - व्या; ते दान वखते जगवानना पितानो मित्र कोइ ब्राह्मण देशांतर गयो हतो; पण त्यां तेने कंई नहीं मलवाथी पाठो दीप यो थको पोताने घेर व्यो; त्यारे तेनी स्त्रीए तेने कह्युं के, जवाने सघला प्राणीउने इचित दान दइने दीक्षा लीधी; अने ते वखते तुं तो तारा दुर्भाग्यश्री देशांतर गयो हतो; माटे हवे तुरत जगवान पासे जश्ने कंक याचना कर ? केमके, हजु पण ते अनुकंपावान प्रभु तने कंक आपशे. पनी ते ब्राह्मण प्रनुपासे वने याचना करवा लाग्यो; त्यारे जगवाने पण तेनापर दया लावीने पोतानी पासेनुं अरधुं देवष्य वस्त्र श्राप्युं. इत्थमाशयनेदेन, नातोऽधिकरणं मतम् ॥ अपि त्वन्यगुणस्थानं, गुणांतर निबंधनम् ॥ ६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टविंशतितमाष्टक. १९३ अर्थ-एवी रीते आशयना ने करीने ते असंयत दानथी,अधिकरण मानेलु नथी केमके,अन्य गुणस्थानक गुणांतर- कारण ने. टीकानो जावार्थ- (श्लोकना अर्थने मलतोज .) ये तु दानं प्रशंसंती, त्यादिसूत्रं तुयत्स्मृतम् ॥ श्रवस्थानेद विषयं, दृष्टव्यं तन्महात्मनिः ॥७॥ - अर्थ-"जे दाननी प्रशंसा करे " इत्यादिक जे सूयगडांगमां कहेढुंचे, ते महात्मा पुरुषोए अवस्थानेदना विषयवालुं जाणq. टीकानो नावार्थ- (श्लोकना अर्थने सलतोज बे.) एवी रीते प्रसंगोपात्त वर्णन कर्यु, हवे चाखती वातने जोडवा माटे कहे . एवंनकश्चिदस्यार्थ, स्तत्वतोऽस्मात्प्रसिद्ध्यति ॥ अपूर्व किंतुतत्पूर्व, मेवंकर्मप्रहीयते ॥ ७ ॥ अर्थ- एवी रीते श्राचारपूर्वक दान देवाथी, परमार्थे करीने, तीर्थकरनो कोइ पण उमदो पुरुषार्थ सिद्ध थतो नथी; पण तेथी तीर्थकरपणाना निमित्तरूप एवं कर्म नाश थाय ने. एवी रीते सत्तावीशमा अष्टकनुं विवरण समाप्त थयु. अष्टविंशततिमाष्टकं प्रारज्यते. हवे अनुना राज्यादिक दानमां परमतनी अपेक्षायें दूषण देखाडता थका, कहे . अन्यस्त्वाहास्य राज्यादि, प्रदाने दोषएवनु ॥ महाधिकरणत्वेन, तत्वमार्गेऽविचक्षणः॥१॥ अर्थ- तत्वमार्गने नहीं जाणनारो एवो कोश्क वादी एम कहे , के, मुर्गतिना हेतुरूप एवी क्रियायें करीने, तीर्थकरनुं राज्य आदिकनुं जे दान, तेमां दोषज . टीकानो नाकार्थ- (श्लोकना अर्थने मलतोज .) २५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । हवे तेनो प्राचार्य महाराज उत्तर पे बे. प्रदाने हि राज्यस्य, नायकाजावतो जनाः ॥ मिथो वैकालदोषेण, मर्यादाभेदकारिणः ॥ २ ॥ विनश्यत्यधिकं यस्मा, दिलोके परत्र च ॥ शक्तौ सत्यामुपेक्षा च, युज्यते न महात्मनः ॥३॥ तस्मात्तडुपकाराय, तत्प्रदानं गुणावहम् ॥ परार्थदीक्षितस्यास्य, विशेषेण जगङ्गुरोः ॥ ४ ॥ १९४ अर्थ- जो जगवान राज्य सोंपी न जाय, तो नायकना - जावथी माणसो, कालना दोषथी मांहों मांहें पोतानी मर्यादानो जंग करनारा थाय; अने एवी रीते लोक ने परलोकमां मनो कि विनाश थाय; अने वली पोतानी शक्ति बतां महात्माने उपेक्षा करवी, ते युक्त कहेवाय नहीं; माटे तेज॑ना उपकारने अर्थे, ते राज्य सोंपी आपवुं, ते उत्तम बे; अने तेमां पए परने जेणे दीक्षा लीधी बे, एवा जगतना गुरु तीर्थंकर महाराजने तो ते करवुं, विशेष करीने युक्त बे. टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे.) हवे हीं कोई वादी एवी शंका करे के, नगवाने जे विवाह श्रादिक व्यवहार देखाड्यो, ते दोषणवायुं बे, तेने माटे हवे तेने कहे . एवं विवाहधर्मादौ तथा शिल्प निरूपणे ॥ न दोषोत्तमं पुण्य, मिठमेव विपच्यते ॥ ५ ॥ अर्थ - एवी रीते विवाह ने राज्य धर्मादिकमां, तथा कला शिखववामां, तीर्थंकरने दोष नथी; केम के, तीर्थकरनामकर्मरूपी जे उत्तम पुण्य, ते तेवीज रीते विपाकने पामे बे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशतितमाष्टक. १५ टीकानो भावार्थ- (श्लोकना अर्थाने मलतोज जे.) किंचेहाधिकदोषेच्यः, सत्वानां रक्षणं तु यत् ॥ उपकारस्तदेवेषां, प्रवृत्त्यंगं तथास्य च ॥६॥ अर्थ- वली ते राज्य आदिक सोंपवामां अधिक दोषोथी, मुमुक्षु प्राणीउनु रक्षण थाय जे; माटे एवी रीते, तेवा प्राणीउनो जे उपकार करवो, तेज तेमनी प्रवृत्तिनुं अंग . टीकानो नावार्थ- (श्लोकना अर्थने मखतोज बे.) हवे कहेला अर्थने दृष्टांतश्री समर्थन करता थका कहे . नागादेरक्षणं यहद्, गर्ताद्याकर्षणेन तु॥ कुर्वन्नदोषवांस्तछ, दन्यथा संनवादयम् ॥७॥ अर्थ- जेम खाडा आदिकमां पडिने पण नाग (हाथी ) श्रादिकधी रक्षण कराय., तेवी रीते उपकार करता थका प्रनु निर्दोषी के केम के, तेम कर्याविना उपकार थई शकतो नथी. टीकानो नावार्थ- (उपरना श्लोकना श्रर्थने मखतोज .) इत्थं चैतदिदष्टव्य, मन्यथा देशनाप्यलम् ॥ कुधर्मादिनिमित्तत्वा, दोषायैव प्रसज्यते ॥ ७॥ अर्थ- एवी रीते, ते राज्यप्रदान आदिक जाणी सेवं, जो एम न मानीयें तो तेमनी देशना पण, कुधर्म आदिकना निमित्तपणाथी अतिशयें करीने दोषने माटेज थाय !!! टीकानो नावार्थ- ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज .) • अवी रीते अचवीशमा अष्टकनुं विवरण संपूर्ण श्रयु. एकोनत्रिंशतितमाष्टकं प्रारज्यते. राज्यादिकना दानपूर्वक प्रनुए सामायिक अंगीकार करेली ने, माटे हवे तेनुं स्वरूप निरूपण करवा माटे कहे जे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ श्रीहरिलजसूरिकृतान्यष्टकानि । सामायिकं च मोदांगं, परं सर्वज्ञलाषितम् ॥ वासीचंदनकल्पाना, मुक्तमेतन्महात्मनाम् ॥१॥ अर्थ- वांसला प्रते चंदनतुट्य, एवा महात्माउने माटे, सर्वप्रजुए कहेलुं एवँ सामायिक उत्कृष्टुं मोदनुं अंग कहेलुं . टीकानो. नावार्थ-( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे.) हवे ते सामायिकनुं स्वरूपथी वर्णन करता थका कहे . निरवद्यमिदं ज्ञेय, मेकांतेनैव तत्वतः ॥ कुशलाशयरूपत्वात्सर्वयोगविशुक्रितः॥२॥ अर्थ- ते सामायिक, उत्तम आशय रूप होवाथी, तथा सघला मन, वचन, अने कायाना योगनी शुधिथी, परमार्थे करीने एकांतथीज निरवद्य जाणवू. टीकानो नावार्थ- ( श्लोकना अर्थने मलतोज जे.) हवे बौधे अंगीकार करेला सामायिकना दूषणमाटे कहे जे.. यत्पुनः कुशलं चित्तं, लोकदृष्टया व्यवस्थितम् ॥ तत्तथौदार्ययोगेऽपि, चिंत्यमानं न तादृशम् ॥३॥ अर्थ- पण जे लोकदृष्टिथी कुशल चित्त रहेळु , ते, तेवा प्रकारनी उदारतानो योग होते ते पण, चितवन करातुं थकुं, शुद्ध सामायिक सरखं कहेवाय नहीं. हवे ते बुधे कहपेलुं कुशल चित्त देखाडता थका कहे . मय्येवनिपतत्वेत, जगहुश्चरितं यथा ॥ मत्सुचरितयोगाच्च, मुक्तिः स्यात्सर्वदेहिनाम्॥४॥ अर्थ- बुद्ध कहे ने के, जगतनुं श्रा सुश्चरित्र मारामांज श्रावीने पडो ? के जेथी करीने मारा उत्तम चरित्रना योगथी सघसा प्राणी ने मोद थाय. .. टीकानो लावार्थ- (उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे.) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क. एकोनत्रिंशतीतमाष्टक. एवी रीतनुं उदारतायें करीने युक्त ए, पण चित्त, सामायिक सर केम नथी ? तेने माटे हवे कहे . असंनवीदं यस्तु, बुझानांनिवृत्तिश्रुतेः॥ संजवित्वे त्वियंनस्या, त्तत्रैकस्याप्यनिर्वृतौ ॥५॥ अर्थ-श्रा बाबत असलवित , केम के, बुद्धोनी निवृत्ति कहेली ने अने कदाच ते बाबतनुं संनवपणुं मानी, तो, जगतोमा एकनी पण निवृत्ति न होते ते ते बुधनी निवृत्ति न संजवे, अर्थात् बुझे ज्यारे जगतनुं पुश्चरित्र लीधु, त्यारे तेने मोक्ष शी रीते घटी शके ? टीकानो नावार्थ-(उपरना श्लोकना अर्थने मदतोज बे.) एवी रीते ते चित्त ज्यारे सामायिक सर नथी, तो ते केवू ने? ते हवे कहे . तदेवं चिंतनं न्याया, त्तत्वतो मोहसंगतम् ॥ साध्ववस्थांतरे झेयं, बोध्यादेःप्रार्थनादिवत ॥६॥ अर्थ- तेथी करीने, एवी रीतनुं जे चितवन, ते न्यायथी अने तत्वथी मोहयुक्त के अने तेवी रीतर्नु चितवन, बोधिबीज आदिकनी प्रार्थनानी पेठे, अवस्थांतरमा एटले सराग अवस्थामां शोलन जाणवू. जो के व्याघ्रादिकने पोतानुं मांस देवा आदिकमां कुशल चित्त परमतवालो वादी माने जे पण सामायिकनी अपेक्षाथी अशोजन , एवं देखाडता थका हवे कहे . अपकारिणि सद्बुझि, विशिष्टार्थप्रसाधनात् ॥ श्रात्मंजरित्वपिशुना, तदपायानपेक्षिणी ॥॥ अर्थ- मोक्षरूपी उत्तम पुरुषार्थना साधनथी, अपकार (नुकशान ) करनार एवा व्याघ्रादिकमां जे शोजन बुद्धि वापरवी, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० श्रीहरिलप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । ते फक्त आपपेटलरापणाने सूचवनारी, तथा ते व्याघ्रादिकोनी उर्गति आदिकनी अपेक्षावाली बे. . हवे चालती बाबतने संपूर्ण करता थका कहे जे. एवंसामायिकादन्य, दवस्थांतरनकम् ॥ स्याच्चित्तं तत्तु संशुफे, यिमेकांतनकम् ॥ ७॥ अर्थ- एवी रीते सामायिकथी जुदी रीतनुं जे चित्त, ते श्रवस्थांतरमां नषक होय, अने सामायिक तो, समस्त दोषना वियोगधी एकांत शोननिक जाणवू. टीकानो नावार्थ- ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे.) एवी रीते गणत्रीशमा अष्टकनुं विवरण संपूर्ण थयुं. त्रिंशतितमाष्टकं प्रारज्यते. एवी रीते उपर सामायिकने एकांत ना कह्यु; हवे ते केवु होय ? ते कहे . सामायिकविशुद्धात्मा, सर्वथा घातिकर्मणः ॥ क्षयात्केवलमाप्नोति, लोकालोकप्रकाशकम् ॥१॥ अर्थ-सामायिके करीने शुध, आत्मा जेनो एवो प्राणी, सर्वथा प्रकारे घातिकर्मोना क्यथी, लोकालोकने प्रकाश करनारा एवा केवलज्ञानने पामे .. हवे ते लावता का कहे जे. ज्ञाने तपसि चारित्रे, सत्येवास्योपजायते ॥ विशुद्धिस्तदंतस्तस्य, तथाप्राप्तिरिष्यते ॥२॥ अर्थ- ज्ञान, तप, अने चारित्र, होते तेज आत्माने पिशुछि थाय जे; अने तेथी तेवी रीते केवलज्ञाननी प्राप्ति थाय बे. . टीकानो नावार्थ- ज्ञान एटले ज्ञेय वस्तुने प्रकाश करवामां दीपक समान एवं श्रुत आदिक, उपलक्षाणथी सम्यक्त्व पण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशतितमाष्टक. १एए जाणी खेवू; केम के, ते सम्यक्त्वविनानुं ज्ञान पण अज्ञानज ; तथा तप एटले जुना कर्मरूपी कचराने शोधनार एवं अनशनादिक तप; तथा चारित्र एटले नवा कर्मरूपी रजने निवारण करनारूं संयम; ते त्रणे होते ते आत्मानी शुद्धि थाय ने ते शुद्धि केवी ? तो के घातिकर्मरूपी मेलने शुद्ध करनारी जाणवी. अने तेथी करीने आत्माने केवलज्ञाननी प्राप्ति थाय . हवे ते केवलज्ञान के ? ते कहे . स्वरूपमात्मनोह्येतत्, किंत्वना दिमलावृतम् ॥ जात्यरत्नांशुवत्तस्य, क्षयात्स्यात्तमुपायतः ॥३॥ अर्थ- ए केवलज्ञान खरेखर आत्मानुं स्वरूप जे; पण ते अनादिकालना ज्ञानावरणादिक कर्मरूपी मेलथी आबादित थएटुं जे; पण उत्तम रत्ननां किरणोनी पेठे, तेनो कर्मरूपी मेल निकली जवाथी, तथा सामायिकना अन्यासरूप तेना उपायथी, ते केवलज्ञान प्रगट थाय . टीकानो लावार्थ- (उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज .) अहीं कोईशंका करेके, अरूपपणामां पण आ केवलज्ञान, लोकालोकने प्रकाश करनारे केम कहेवाय ? तेने माटे हवे तेने कहे जे. श्रात्मनस्तत्स्वन्नावत्वा, बोकालोकप्रकाशकम् ॥ श्रतएवतफुत्पत्ति, समयेऽपि यथोदितम् ॥४॥ अर्थ- आत्मानुं ते स्वनावपणुं होवाथी, ते ज्ञान लोकालोकने प्रकाश करनारूं; अने तेथीज उत्पत्ति वखते पण, ते सर्व वस्तुऊने एकीहारे प्रकाश करनारूं बे. टीकानो नावार्थ- (उपरना श्लोकना अर्थने मखतोज बे.) श्रात्मस्थमात्मधर्मत्वा, संवित्त्या चैव मिष्यते ॥ , गमनादेरयोगेन, नान्यथा तत्त्वमस्य तु॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । - अर्थ-वली ते केवलज्ञान आत्मधर्मरूप होवाथी, स्वसंवेदनथी आत्मामा रहेढुं जणाय जे; वली ते गमनादिकना अयोगश्री वाय अने गमनादिकना सनाववालुं ते केवलज्ञानपणुं होश शकतुं नयी. टीकानो लावार्थ- ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे.) हवे ज्यारे ते केवलज्ञान आत्माना स्वरूपवालुंज , त्यारे तेने चंजादिकनी प्रना सरलुंकेम कहे बे ? त्यारेतेने हवे उत्तर कहे . यच्च चंप्रजायत्र, ज्ञातं तहातमात्रकम् ॥ प्रजापुमलरूपाय, तझमों नोपपद्यते ॥५॥६॥ अर्थ-श्रा केवलज्ञानना स्वरूपमां चंप्रना आदिकनुं जे दृष्टांत , ते प्रकाशमानना साधर्म्यथी फक्त दृष्टांतज के केमके प्रना ने ते, पुजलरूप जे; माटे ते चंजादिकना पर्यायवाली घटी शकती नथी. टीकानो नावार्थ- ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज जे.) हजु पण तेनुं ज्ञातमात्रपणुं समर्थन करता थका कहे जे. श्रतः सर्वगतानास, मप्येतन्नयदन्यथा ॥ युज्यते तेन सन्न्याया, संवित्त्यादोपिनाव्यताम् ७ अर्थ-ए चंप्रजाना दृष्टांतथी सर्व वस्तुमां प्राप्त भएलो ने आनास जेनो, एवं केवलज्ञान पण घटी शकतुं नथी; केमके अन्यथा प्रकारे, एटले चंप्रनाना दृष्टांतना सर्व साधर्म्यपणाना ज्ञानथी, घटे बे; अने तेथी उपर कहेला उत्तम न्यायथी, अने स्वसंवेदनथी ते ज्ञातमात्र पण जाणी लेवु. पूर्वे कहेलुं ने, स्वरूप जेनुं, एवा केवलज्ञान- वर्णन करता थका हवे कहे जे. नाप्रव्योऽस्तिगुणोऽलोके, न धर्मातौविजुनच ॥ आत्मातजमनाद्यस्य, नास्तु तस्माद्यथोदितम्॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिंशतितमाष्टक. . २०१ अर्थ-व्य विनानो गुण नथी; अने लोकमां धर्मास्तिकाय तथा नथी; वली आत्मा सर्वव्यापी पण नथी; ते कारणथी या केवलज्ञानने गमनादिक नथी; माटे केवलज्ञान आत्मामांज रहलुं बे. टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकना कार्थने मलतोज बे. ) एव ते त्रिशमाष्टकनुं विवरण संपूर्ण थयुं. एकत्रिंशतितमाष्टकं प्रारभ्यते. कोई शंका करे के, जगवानने ज्यारे केवलज्ञान थयुं, त्यारे तो ते कृतार्थ थया; पत्नी तेने धर्मदेशना करवानी शी जरूर बे ? तेने माटे हवे तेने कहे बे. वीतरागोऽपि सद्वेद्य, तीर्थकृन्नामकर्मणः ॥ उदयेन तथा धर्म, देशनायां प्रवर्तते ॥ १॥ अर्थ- जगवान वीतराग बे, तो पण शोजन तीर्थकृत् नामकर्मना उदयथी, ते प्रकारें करीने जगवान धर्मदेशनामां प्रवर्ते बे. टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे.) हवे ते कर्मनुं स्वरूप कहे बे. वरबोधित राज्य, परार्थोद्यतएव हि ॥ तथाविधं समादत्ते, कर्मस्फीताशयः पुमान् ॥२॥ अर्थ -- सम्यग्दर्शननी प्राप्तिथी मांगीने, परना कार्यमां उद्यमवंत थलो, तथा उदार शयवालो एवो पुरुष, तेवी रीतनां कर्म बांधे बे. टीकानो जावार्थ - ( श्लोकना ने मलतोज बे.) तेथी शुं ? ते हवे कहे बे. यावत्संतिष्ठते तस्य तत्तावत्संप्रवर्तते ॥ तत्स्वजावत्वतो धर्म, देशनायां जगरुः ॥ ३॥ २६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ श्रीहरिजजसूरिकृतान्यष्टकानि। अर्थ- ज्यांसुधी ते तीर्थकरने, ते तीर्थकृत् नामकर्म, रहे , त्यांसुधी ते ते जगतना गुरु एवा नगवान् धर्मदेशनामां प्रवर्ते ? केम के, ते कर्मनो तेवो स्वनाव . टीकानो लावार्थ - ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज .) जगजुरुना कारणरूप एवा तेमना वचन, स्वरूप प्रगट करता थका हवे कहे . वचनं चैकमप्यस्य, हितां जिन्नार्थगोचरां ॥ नूयसामपिसत्वानां, प्रतिपत्तिं करोत्यलम् ॥४॥ अर्थ- ते जगजुरुनु एक पण वचन, घणां प्राणीउनी पण, हितकारी, अने जुदा जुदा अर्थवाली, एवी प्रतिपत्तिने अतिशयें करीने करे जे. टीकानो लावार्थ- (उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे.) हवे ते वात केम संजवे? तेने माटे कहे जे. अचिंत्यपुण्यसंजार, सामर्थ्यादेतदीदृशम् ॥ तथाचोत्कृष्टपुण्यानां, नास्त्यसाध्यं जगत्रये॥५॥ अर्थ- अचिंत्यपुण्यना संजारना समर्थनपणाथी तीर्थकरमहाराजनुं तेवा अतिशयवालुं वचन , केमके, जेनां पुण्यो उत्कृष्ट होय , तेउने आ त्रणे जगतमां कई पण असाध्य होतुं नथी. - अहीं कोई शंका करे के, प्रनुनुं वचन ज्यारे प्राणीउना जिनार्थोने पण जणावी आपेचे, त्यारे अन्नव्यो प्रते पण तेनी असर केम थती नश्री? तेने माटे हवे तेने कहे बे. अजव्येषु चनूतार्था, यदसौ नोपपद्यते ॥ तत्तेषामेवदोर्गुण्य, ज्ञेयंजगवतो नतु ॥६॥ अर्थ- अन्नव्योन विषे ते देशना जीवादिक तत्वोने जणावनारी जे नथी थती, तेमां ते अजव्योमुंज उर्गुणपणुं ; पण तेमां जगवाननो कं पण वांक नथी. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशतीतमाष्टक. २०३ टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे.) हवे तेज अर्थने दृष्टांतथी समर्थन करता थका कहे बे. दृष्टश्चाभ्युदयेजानोः प्रकृत्या कीष्टकर्मणाम् ॥ प्रकाशोद्युलूकानां तद्वदत्रापि जाव्यताम् ॥७॥ अर्थ- सूर्यनो उदय होते बते, प्रकृतिथीज पुष्ट कर्मों वाला एवा धुवडोने प्रकाश नहीं थतो, जलाएलो बे; तेनी पेठे अहीं पण जाणी लेवु. टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे. ) हवे प्रजुनी देशनानुंज स्वरूप कहे बे. इयं च निगमाया, तथानंदाय देहिनाम् ॥ तदात्वेवर्तमानेपि, जव्यानां शुद्धचेतसाम् ॥८॥ अर्थ- प्रभुनी ते देशना निश्चयें करीने ते कालने विषे, वणिग्वृद्धदासीना उदाहरणें करीने, प्राणीउना आनंद माटे थइ बे; वर्तमान कालमा पण शुद्ध चित्तवाला एवा जन्योना श्रानंद माटे थाय बे. टीकानो जावार्थ -- ( उपरना श्लोकनार्थने मलतोज बे.) एवी ते एकत्री शमा अष्टकनुं विवरण संपूर्ण श्रयुं. द्वात्रिंशत्तमाष्टकं प्रारभ्यते. हवे सकल कर्मोना यथी जे थाय बे ते देखाडवा माटे कहे बे. कृत्स्नकर्म दयान्मोक्षो, जन्ममृत्य्वादिवर्जितः ॥ सर्वबाधा विनिर्मुक्त, एकांतसुखसंगतः ॥१॥ अर्थ- सघला ज्ञानावरणादिक आठे कर्मोना यथी, जन्म अने मृत्युदिकधी रहित, तथा सर्व श्रापदाविनानो, अने एकांत सुखना संगमवालो मोह थाय बे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । हवे परम पदनुं स्वरूप देखाडता थका कहे बे. यन्न दुःखेन संन्निं न च चष्टमनंतरम् ॥ जिलापापनीतं य, तद्यं परमं पदम् ॥ २॥ अर्थ- जे दुःखी मिश्रित नथी, तथा जे दीए यतुं नथी, तथा जे ांतराविनानुं बे, तथा जे इवाउँथी रहित बे, तेने परमपद जाणवुं. टीकानो जावार्थ - ( श्लोकनार्थने मलतोज बे.) मोक्ष एकांतसुखना संगमवालो बे, एम उपर कहुं, तेमां परनी विप्रतिपत्ति देखाडता थका हवे कहे बे. कश्चिदाहान्नपानादि, जोगाजावादसंगतम् ॥ सुखं वै सिद्धिनाथानां पृष्टव्यः स पुमानिदम् ॥३॥ अर्थ - ( पारमार्थिक सुखना स्वरूपने नहीं जानारो) एवो कोइक पुरुष हीं एम कहे के, मोदे गएलाउने तो, त्यां अन्न, पाणी, पुष्प, स्त्री यदिकना जोगोनो श्राव होवाथी, तेजने सुख घटी शकतुं नथी; ( त्यारे आचार्य महाराज कहे बे के, ) तेवा पुरुषने नीचेप्रमाणे पूवुं. " टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे.) हवे ते पूवानुं कहे . किं फलोsन्नादिसंजोगो, बुजुादिनिवृत्तये ॥ तन्निवृत्तेः फलंकिंस्या, त्स्वास्थ्यं तेषां तत्सदा ॥४॥ - अन्नादिकनोजे संजोग, ते शुं फलवालो बे ? त्यारे ते वादी एम कहे के, सुधा आदिकनी निवृत्तिने माटे बे; त्यारे वली श्राचार्य महाराज तेने पूढे वे के, ते दुधा श्रादिकनी निवृत्तिनुं शुं फल बे ? त्यारे वली वादी एम कहे के, तेनुं फल स्वस्थता बे; त्यारे वली श्राचार्य महाराज तेने कहे बे के, ते स्वस्थता तो ते सिद्धोने हमेशनीज बे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वात्रिंशतितमाष्टक. २०५ कानोजावार्थ - ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे. ) हवे तेज ने बीजा दें करी ने कहे बे. स्वस्थस्यैव नैषज्यं, स्वस्थस्य तु न दीयते ॥ प्रवास स्वास्थ्यकोटीनां, जोगोऽन्नादेरपार्थकः ॥५॥ अर्थ - रोगीने औषध देवाय बे, पण निरोगीने देवातुं नथी; माटे एवी रीते प्राप्त थएल बे स्वस्थतानी कोटी जेउने, एवा सियोने नादिकनो परिोग अनर्थक बे. टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे.) किंचित्करकंज्ञेयं, मोहाजावाडताद्यपि ॥ तेषां कंड्राद्यजावेन, दंतकंभूयनादिवत् ॥ ६ ॥ अर्थ - पुंवेदादिक मोहनीयना अनावश्री रतादिक पण ते सिद्धोने निष्फल जावं; केम के, खर्ज श्रादिकना श्रावथी, खर्ज करवानुं पण निरर्थक बे. टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकनार्थने मलतोज बे.) हवे सिना सुखनुं स्वरूप कहे बे. परायत्तमौत्सुक्य, रहितं निष्प्रतिक्रियम् ॥ सुखं स्वाजाविकं तत्र नित्यं जयविवर्जितम् ॥ ॥ अर्थ- सोनुं सुख स्वाधिन, तथा विषयनी आकांक्षाविनानुं, तथा प्रतिक्रिया विनानुं, तथा स्वाभाविक, नित्य, अने करीने रहित a. टीकानोजावार्थ - ( उपरना श्लोकनार्थने मलतोज बे.) परमानंदरूपं तद्. . गीयतेऽन्यैर्विचक्षणैः ॥ इत्थं सकलकल्याण, रूपत्वात्सांप्रतं ह्यदः ॥ ८ ॥ - बीजा विचक्षण एवा अन्यदर्शनी ते सुखने पर - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ वात्रिंशतितमाष्टक. मानंदरूप माने के एवी रीते ते सुख सकल कट्याणरूप होवाथी युक्त बे. टीकानो नावार्थ- (उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज के.) हवे ते कोने जाणवू? ते कहे बे. संवेद्यं योगिनामेत, दन्येषांश्रुतिगोचरः॥ उपमानावतोव्यक्त, मनिधातुं न शक्यते ॥५॥ अर्थ- ते सुख केवली जाणी शकेते, , अने बीजाउँने तेकगोचर जे; अने वली उपमाविना प्रगट कहेवाने पण ते शक्य नश्री. टीकानो नावार्थ-- ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे.) हवे आ ग्रंथनी समाप्तिने सूचनारो श्लोक कहे . अष्टकाख्यं प्रकरणं, कृत्वायत्पुण्यमर्जितम् ॥ विरहात्तेन पापस्य, जवंतु सुखिनो जनाः ॥१॥ अर्थ-आ अष्टक नामनुं प्रकरण करीनेजे पुण्य उपार्जन करेलुं , तेथी पापना विरहथी लोको सुखी था.. टीकानो लावार्थ-श्रा श्लोकमां जे “ विरह" शब्द मुकेखो बे, तेथी आ मूल ग्रंथ हरिलप्रसूरि महाराजे बनावेलो , एम प्रत्यक्ष जणाय ने, केमके हरिजप्रसूरि महाराजनो “ विरहांक" एवी रीते बत्रीशमा अष्टकनुं विवरण संपूर्ण थयु. प्रशस्तिः जिनेश्वरानुग्रहतोऽष्टकानां॥ विविच्य गंभीरमपीदमर्थम् ॥ अवाप्यसम्यक्त्वमपेतरेकं ॥ सदैवलोकास्तरणेयतध्वम् ॥१॥ सूरेः श्रीवर्धमानस्य, निःसंबरिणः सदा ॥ हारिचारित्रपात्रस्य, श्रीचंद्रकुलभूषिणः ॥२॥ पादांभोजदिरेफेण, श्रीजिनेश्वरसूरिणा ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । अष्टकानां कृतावृत्तिः, सत्वानुग्रहहेतवे ॥ ३॥ समानाधिकेऽशीत्या, सहस्रे विक्रमागते ॥ श्रीज्ञावालिपुरे रम्ये, वृत्तिरेषासमापिता ॥ ४ ॥ एवी रीते अष्टकजीनं गुजराती भाषांतर जामनगर निवासि पंडित श्रावक हीरालाल वि० हंसराजे कर्यु बे, तेषां प्रमादथी के मति दोषथी जे कई विपरीत लखायुं होय, ते " मिठामि डुक्कर्ड" तथा ते सुज्ञ जनोए कृपा करी सुधारीने वांच; केम के. गच्छतः स्खलनं क्वापि भवत्येव प्रमादतः ॥ हसंति दुर्जनास्तत्र, समादधति सज्जनाः ॥ १ ॥ - मार्गे चालतां थकां प्राणीने स्खलना तो क्यांक पण थायज बे, पण त्यां दुर्जनोज हांसी करे बे, छाने सानो तो तेने सारी रीते वाडी ने बेटो करे बे. हवे भाषांतर कर्ता पंडित हीरालाल समाप्तिमंगलमाटे पोताना गुरु श्री चारित्रविजयजी महाराजनी स्तुति करे बे. लब्ध्वा यदीयचरणांबुजतारसारं ॥ स्वादच्छटाधरितदिव्यसुधा समूहम् ॥ संसारकाननतटेह्यटतालिनेव ॥ पीतोमया प्रवरबोधर सप्रवाहः ॥ १ ॥ वंदे मम गुरुं तंच, चारित्रविजयाह्वयम् ॥ परोपकारिणां धुर्वे, दत्तानंदकदंबकम् ॥ २॥ युग्मम् ॥ २०७ दोनपुण्या न पश्यंति, रागांधास्तत्वसंस्थितिम् ॥ लाभेलाभफलं चैव लभते ते नराधमाः ॥ १ ॥ इति श्री जिनेश्वराचार्यकृतात चिष्यश्रीमदजयदेवसूरिप्रतिसंस्कृताष्टकवृत्तिः समाप्ता श्रीरस्तु ॥ समाप्तोऽयं ग्रंथः गुरु श्रीमच्चारित्र विजयसुप्रसादात् ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाहेर खबर. सर्वे जैनबंधुउने मालम थाय जे आमरा तरफथी हालमां नीचेना नवा अपूर्व जैनी ग्रंथो, गुजराती भाषांतर साथे उपावीने पाका पुगंथी बांधी बहार पडवामां अव्या . योगशास्त्र.- ( कर्ता श्री हेमचंज्ञाचार्य ) किम्मत रु. 3-4-0 * सामुजिक शास्त्र.(कर्ता श्री जत्रबाहुस्वामि)किम्मत रु.१-०-० शुकनशास्त्र.- ( कर्ता श्री जिनदत्तसूरि ) किम्मत रु. 0-6-0 प्रतिष्ठाकटप. ( कर्ता श्री सकलजी ) किम्मत रु.७-६-० जलजात्रादिविधि.-(कर्ताश्री रत्नशेखरसूरि) किम्मत रु.-६-० * अष्टकजी.-(कर्ता श्री हरिजप्रसूरि, टीकाकार श्री जिनेश्वरसूरि) किम्मत रु. 1-12-0 कल्पसूत्र.(सुखबोधिकाटीका- गुजराती नाषांतर चित्रोस.)३-०-० धर्म सर्व स्वाधिकार.(कर्ता श्री जयशेखरसूरि)। तथा किम्म.रु.--- कस्तूरिप्रकरण. ( कर्ता श्री हेमविमलगणि) , शत्रुजय माहात्म्य खंड पेहेलो(कर्ता श्रीधनेश्वरसूरि)कि.रु.२-४-० नीचेनांपुस्तको गुजराती भाषांतरसहित तैयार थाय ,अने योडाज वखतमा उपाइ बहार पडशे. वैराग्यकल्पलता. (कर्ता श्री यशोविजयजी उपाध्याय) हिंगुलप्रकरण. (कर्ता श्री विनयसागरोपाध्यायजी) जैनकुमारसंभव महाकाव्य. (कर्ता श्री जयशेखरसूरि ) जज्बाहुसंहिता.(जैननोअपूर्वज्योतिषग्रंथ)(कर्ताश्रीनप्रबाहुस्वाग प्रनाविक चरित्र जैनधर्ममां थएला महान पुरुषोनां चरित्र ) शgजय माहात्म्य, खंड बीजो. ( कर्ता श्री धनेश्वरसूरि) मेघमालाविचार. (कर्ता श्री विजयप्रनसूरि ) / __ शा. भीमसिंह माणेक के. मुंबइ, मांडवीबंदर, शाकगली. . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only