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द्वितीयाष्टक.
अधिकारी शाछास्त्रे, धर्मसाधनसंस्थितिः ॥ व्याधिप्रतिक्रियातुल्या, विज्ञेया गुणदोषयोः ॥ ५ ॥
- शास्त्रमां धर्मसाधननी स्थिति अधिकारीनी अपेक्षाये ( कहेली . ) अने ते गुण ने दोषना संबंधमां रोगना उपायनी क्रिया तुझ्य जावी.
टीकानो जावार्थ-अधिकारी एटले योग्य अनुष्टानवालो, तेनी अपेक्षाथी; ( पण कंं मरजी मुजब नहीं; ) आप्तना - गममां धर्मसाधनरूप प्रव्यस्नान ने जावस्त्राननी स्थिति कहेली बे; हवे ते स्थिति केवी ? तो के, रोगना उपाय सरखी एवी ते स्थिति, अर्थी सद्गुरुना उपदेशथी जाणी लेवी ; हवे ते स्थिति का विषयमा जाणवी ? ते कहे बे के गुण छाने दोषने आश्रयीने जाणवी; अर्थात् रोगीनी अपेक्षाएं तेना रोगनो उपाय जे गुण दोषवालो बे, ते मलीनारंगी ने निर्मलारंजी ने ते " द्रव्यस्नान” तथा “जावस्नान" गुणदोषने करनारा बे; अर्थात् "व्यस्नान" मलीनारंजी नेज गुणकारक बे, पण निर्मलारंजी ने गुणकारक न; एवो जावा जाणवो; केम के, मलीनारंभीज देवने उद्देशीने स्नानादिकमां अधिकारी बे, पण निर्मलारंजी तेम नथी. कोकवादी वली एम कहे के, मलीनारंजी पण ते soreaner अधिकारी नथी; तो तेने वास्ते आज ग्रंथकार हवे कदेशे.
धर्मार्थं यस्य वित्तेहा, तस्यानिहा गरीयसी ॥ प्रक्षालनाद्धि पंकस्य, दूरादस्पर्शनं वरम् ॥ अर्थ - धर्मने माटे जेनी धननी इच्छा बे, तेनी ( ते धर्ममाटे ) धननी नहीं इलाज ( इला नहीं करवी तेज ) श्रेष्ट ने; केम के, कादवने धोवा करतां तेने स्पर्श नहीं करवो तेज श्रेष्ठ बे.
वहीं कोइ वादी शंका करे के, आथी करीने धर्मने माटे सावद्यप्रवृत्तिनो निषेध कर्यो; तथा “ शुद्धागमैर्यथाखानं " एवी
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