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सप्तदशमाष्टक.
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अंगतरीके क्षणना साधनमां ते मलतुं श्रवतुं नथी; माटे तें कहेलो हेतु दोषणवालो े. छाने प्रसंगसाधन पक्षमां, जंदज दिक क्षण करवा लायक बे, अने मध, मांस तथा मुंगली यदि बे, एवी रीतनी जे जदयाजक्ष्य तथा पेयापे यनी व्यवस्था, या श्लोकमां श्राप्तना वचन ने लोकव्यवहारना हेतुवाली बे; वली ते व्यवस्था सघली, ने परमार्थथी बे; माटे “उत्तम पुरुषे मांसमक्षण करवुं” एम कहेवुं प्रयुक्त बे. युक्त अनेकांतिक हेतुपणे देखाडता थका कहे बे. तत्र प्राण्यंगमप्येकं, जक्ष्यमन्यत्तु नो तथा ॥ सिद्धं गवादिसत्क्षीर, रुधिरादौ तथेक्षणात् ॥ ३॥ अर्थ - त्यां प्राणीनं एक अंग जदय बे, अने बीजुं तेम नथी; नेते गाय श्रादिकना दूध ने रुधिर दिकमां प्रत्यक्ष रीते जोवाथी सिद्ध थाय बे.
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टीकानो जावार्थ- ते शास्त्र ने लोकमां प्राणीनुं एक अंग जय बे, छाने बीजुं अजय बे, ते वात प्रसिध्वज बे. केवी रीते ते प्रसिद्ध बे? तो के, गाय ने माता श्रादिकनां उत्तम दूध अने सोहीमां तथा मांसादिकमां पण जय जयपणुं प्रसिद्ध देखाय बे; माटे एवी रीते प्राणीनुं एक अंग जक्ष्य बे, छाने बीजुं जदय बे, तेथी हे वादी ! ! तारो हेतु सपक्ष ने विपक्ष बन्नेमां वर्ततो होवाथी, ते कांतिक बे.
वली हे वादी !! प्रसंगसाधन तो परना श्रंगी कारने अनुसरीने थाय बे ने अमारो कंई एवो अभिप्राय नथी, के, प्राणी नुं अंग मानीने मांसमक्षण करयुं; पण तेमां उत्पन्न श्रता जीवोनी पेहाथी श्रमो ते खाता नथी; एवं देखाडवामाटे हवे कहे वे. प्राएयंगत्वेन नच नो, जक्षणीयं त्विदं मतम् ॥ किंत्वन्यजीवजावेन, तथा शास्त्रप्रसिद्धितः ॥४॥
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