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पंचमाष्टक.
हवे तेवी निक्षा उचित बे के, अनुचित बे ? तेवी आशंका माटे कहे बे. नाति दुष्टापि चामीषा, मेषा स्यान्न ह्यमी तथा ॥ अनुकंपा निमित्तत्वाद्, धर्मलाघवकारिणः ॥ ७ ॥
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- तेवी रीतनी वृत्तिनिक्षा, तेवा निर्धनादिकोने माटे कुष्ट पण नथी; केम के, तेमां अनुकंपानुं निमित होवाथी, तेज पौरुषघ्नी निक्षावालानी ” पेठे धर्मनी लघुता करनारा नथी. टी कानोजावार्थ- जिक्षा, तेवा भिक्षुको माटे “पौरुषघ्नीनी” पेठे अत्यंत दोषवाली नथी; तेम " सर्वसंपत्करीनी " पेठे अति प्रशंसवालायक पण नथी; अने तेवी निक्षा निर्धन, श्रांधला आदिकोने होय; " पौरुषघ्नी " जिक्षा करनारा धर्मनी लघुता करनारा बे, तेम ते निर्धनादिको धर्मनी लघुता करनारा नथी. तेशी रीते? ते कडे बे के, ते पोतामाटे लोकोनी करुणाना कारणरूप थर पडे बे; अने तेथी धर्मनी लघुताना हेतुरूप तेd थइ पडता नथी; माटे धर्मनी लघुता करनारा साधुर्जनी जिकामां जेवो दोष बे, तेवो तेर्जनी निकामां दोष नथी; वली
वी रीतना हेतुदृष्टांतथी ते निर्धनादिकोने “ सर्वसंपत्करी " जिक्षा प्राप्त थाय बे, एम पण नहीं कहेवुं; केम के, ते जिक्षा तो शुद्ध यतिनेज प्राप्त थाय बे.
श्रीं निक्षुकोनी निक्षानुं फल यथार्थ एवा तेउनां नामोए करीने क; हवे ते निक्षा देनारना फलना निरूपणमाटे कहे बे. दातृणामपि चैतान्यः फलं क्षेत्रानुसारतः ॥ विज्ञेयमाशयाद्वापि स विशुद्धः फलप्रदः ॥ ८ ॥ अर्थ-उपर कहेली निहाउंथी; तेना देनारोने पण पात्र छापानी अपेक्षाथी, श्रथवा श्रशयनी अपेक्षाथी फल जाए; केम के शुद्ध आशय ( स्वर्गादिक) फलने देनारो बे. टीकानो जावार्थ - केवल जिक्षा लेनारनेज सर्वसंपत्करणादिक
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