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श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । ताल्वादिजन्मा ननु वर्णवर्गो, वर्णात्मको वेद इति स्फुटं च ॥ पुंसश्च ताल्वादिरतः कथं स्या, पौरुषेयोऽयमिति प्रतीतिः ॥ १ ॥
अर्थ - रोनो समूह तालु आदिक स्थानोथी उत्पन्न याय बे, ने वेद तो अक्षरमय बे, ए वात प्रसिद्धज बे; अने ते तालु यदि स्थानो तो पुरुषने होय बे, माटे या वेद "अपौरुषेय" बे, एवी खातरी शी रीते थाय ?
" शास्त्रं शिववर्त्म ” ( ते शास्त्र मोक्षमार्गरूप वे, ) एम कह्याथी जे शास्त्र प्रमाणरुप माने बे, तेमनां मतनुं खंडन कर्यु. ते ( शास्त्र प्रमाण माननारा ) एम माने बे के, प्रत्यक्षप्रमाथी गोचर एवार्थोमां शास्त्रना वचनोनो व्यभिचार आवे बे, माटे शास्त्र मारे प्रमाण नथी. पण तेम मानवुं युक्त नथी; केम के, निश्चित एवा प्राप्त पुरुषे रचेलांज वचनने प्रमाणप प्राप्त थाय बे; अने तेथी बीजाउंना ( आप्त शिवायना ) वचननुं व्यभिचारपणं जोड़ने, सघलाना वचनोनुं प्रमाणप स्थाप युक्त नथी; ने जो एम नहीं मानीए तो कांऊवानां पाणी प्रत्यक्ष देखाय बे, बतां सत्य बे, अने तेथी " सघला प्रत्यक्ष देखता पदार्थो पण असत्य वे " एम मानवाजेवुं श्रायः छाने एवी रीते प्रत्यक्ष प्रमाणने ज्यारे अप्रमाणरुप मान्युं, त्यारे - नुमान प्रमाण पण प्रमाणरूप नहीं थाय, केम के, अनुमान प्रमाथी प्रत्यक्ष प्रमाण पेहेलुं बे; अने वली तेथी
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प्रत्यक्ष
अनुमान एवां बे प्रमाणो बे " एवी रीतनुं महान पुरुषो - नुं वचन पण नाशने पामे बे; वली आगमवादीजए कां वे के, इंजिने गोचर नहीं एवी स्वर्ग आदिक गतिमां शास्त्रज प्रमाणरुप बे, केम के बीज प्रमाणना विषयरूप ते नथी; अने वली साधनना जाणकारो आगममां कहेला अर्थनेज पुष्टी आपे बे.
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