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६२ श्रीहरिलजसूरिकृतान्यष्टकानि । तनी अग्निकारिका करवी; पण तेणे अव्यअग्निकारिका करवी नहीं, केम के, तेमां प्राणीउनी हिंसा थाय ने अने तेवो दीदित तो तेवी हिंसाथी निवृत्त भएलो जे; तेथी तेमां (अव्यअग्निकारिकामां ) ते अधिकारी नथी, केम के, “अधिकारिववशाच्चधर्मसाधनसंस्थितिः” (अधिकारिनी अपेक्षाएं धर्मसाधननी स्थिति के ) एम अगाउ कहेलुं ; अने गृहस्थ तो सर्वथा प्रकारे जीवहिंसाथी निवृत्त भएलो नथी, तेथी ते अव्यअग्निकारिका करवाने अधिकारी होवाथी ते करे , अने तेथीज जैन गृहस्थो धूप, दीप आदिकना प्रकारथी अव्य अग्निकारिका करे . ___ आ श्लोके करीने एम कहेलुं थाय ने के, हे कुतीर्थिज, ज्यारे तमो दीक्षित श्रएला बगे, त्यारे कर्मोरूपी काष्टोने एकगं करी, तथा तेमां धर्मध्यानरूपी अग्नि प्रदीप्त करीने, सद्लावनारूपी
आहुतीथी अग्निका रिका करो ? पण बीजी अग्निकारिका करो नहीं; केम के, ते दीक्षितने अनुचित के; पण जो तमो गृहस्थो हो, अथवा तेऊनी तुल्य हो, तो अव्यअग्निकारिका करो! __ हवे, “दीहिते तो ध्यानरूपीज अग्निकारिका करवी," एम अन्यदर्शनीउनाज सिद्धांते करीने साधता थका कहे . दीक्षा मोक्षार्थमाख्याता, ज्ञानध्यानफलं स च॥ शास्त्रजक्तो यतः सूत्रं, शिवधर्मोत्तरेह्यदः ॥२॥ अर्थ-दीदा मोक्नेमाटे कहेली ने अनेते मोद ज्ञानध्यानना फलरूप के एम शास्त्रमा कहेलुं ; केम के, तेवी रीतनुं सूत्र (अन्यदर्शनीना) “शिवधर्मोत्तर" नामना शास्त्रमा कहेलुं .
टीकानो नावार्थ-दीदाने तेना जाणनाराउंए सकल कर्मोथी मुक्त श्रवाना निमित्तरूपे कहेली; माटे ते दीक्षाने प्राप्त भएलाए तो मोक्ने साधनारीज क्रीया करवी जोएं; पण तेणे प्रव्यअग्निकारिका करवी नहीं; एवो जावार्थ जाणवो.
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