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________________ विंशतीतमाष्टक. १७१ थापत्ति दोषवालुं निश्चित थएलुं वे, तेने प्रमाण वचनथी निर्दोष कही शकाय नहीं; एवो जावार्थ बे. दोष कवाथी यानी प्रशंसा युक्त बे, एंवं जे वादीए कहां, मां दोष कहेवानुंज न्यायपणुं देखाडता थका हवे कहे . तत्र प्रवृत्तिहेतुत्वात् त्याज्यबुद्धेरसंजवात् ॥ विध्युक्ते रिष्टसं सिद्धे, रुक्तिरेषा न जड़िका ॥ ६ ॥ अर्थ - ते मैथुनमां प्रवृत्तिना हेतुपणाथी, तथा ते तजवानी बुद्धिना संवथी, वली ते सेववानी विधि कहेवाथी, तथा मां मनोवांबिनी सिद्धि होवाथी, "ते प्रशंसनीक बे" एकहे सारं नथी. टीकानो जावार्थ - " ते मैथुन प्रशंसनीक बे, एम कहेवुं सारं नथी; शा माटे ? के, ते मैथुनमां श्रर्थापत्ति न्यायथी उपर जे दोष देखाड्यो, तेमां प्राणीजनी प्रवृत्ति होवाथी ते उत्तम नथी. अर्थात् प्राणीने दोषवाला पदार्थोमां प्रवृत्ति करवानुं जे कहे, ते हिंसाने निर्दोष कवानी पेठे शोजनीक नथी. वली ते मैथु जवानी बुद्धिनोज असंभव बे; केमके, “मैथुनमां दोष नथी ” एवा वचन उपर श्रद्धा राखनारने, ते त्याग करवानी बुविज शी रीते थशे ? छाने त्याग करवानी बुझिनोज ज्यारे - नाव थयो, त्यारे तेमां प्रवृत्ति कोण नहीं करे ? हवे ते त्यागबुछिनो असंव शा माटे बे ? तो के “शास्त्रमां कहेली नवनीतादिक विधिपूर्वक मैथुन सेववामां दोष नथी, " एवं वचन मा - नीने, यो माणूस तेने अंगीकार नहीं करे? वली अनादि कालनी महामोहनी वासनावाला जीवोने वहालुं, एवं जे मैथुन, तेने निर्दोष कहेवाश्री, तेज॑ने मनगमतीज प्राप्ति थवाथी, तेने निर्दोष गणीने, ते ईष्टने कोण माणस अंगीकार न करे ? केमके, मैथुन सर्व जीवने वहालुं बे. कां वे के, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003686
Book TitleHaribhadrasuri krutanyashtakani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1900
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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