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१७० श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । वादें कह्यु बाथी करीने, अपवादिक मैथुनमां पण, रागनाव देखाडवाथी पक्षना एक देशमां हेतुनी असिझतानो परिहार को; केमके, यतिनी अपेक्षायें गृहस्थाश्रम हीन बे; अने तेशी शं? के, धर्मार्थादिक विशेषणवालुं मैथुन गृहस्थाश्रममां संजवे जे; केमके स्त्रीनो संग्रह गृहस्थावस्थामांज थाय ; माटे एवी रीतना न्यायथी ते मैथुननी प्रशंसा करवी, ते लायक कहेवाय नहीं; अने वली अपुत्रीआने गति नथी; एबुं जे वादीए कह्यु, ते तेनाज मतथी अयुक्त ने केमके कयुं के,
अनेकानि सहस्राणि, कुमारब्रह्मचारिणाम् ॥ दिवं गतानि विप्राणा, मकृत्वा कुलसंततिम् ॥ १॥
अर्थ- हजारो ब्राह्मणोना ब्रह्मचारी कुमारो, संतति कर्याविना देवलोकमां गया .
मैथुननी प्रशंसा करवी, ते लायक नथी, ए, जे कडं; तेथी हवे अहीं परमतने आशंकता थका कहे .
श्रदोषकीर्तनादेव, प्रशंसा चेत्कथं नवेत् ॥ अर्थापत्त्या सदोषस्य, दोषानावप्रकीर्तनात्॥५॥ अर्थ- हे वादी!!! जो निर्दोष कहेवाश्रीज ते मैथुननी तुं प्रशंसा मानीश, तो अपत्तिथी सदोषने निर्दोषपणुं कहेवाश्री, ते शी रीते थशे?
टीकानो नावार्थ-अहीं वादी एम कहे के, मनु शषिए, “मैथुनमा दोष नथी” एम जे कडं , तेथीज सिम के, ते प्रशंसनीक के; त्यारे तेने आचार्य महाराज कहे ने के, जो तुं एम मानीश, तो तेने अदोष कहेवामां प्रशंसा शी रीते थाय ? केमके "वेद लणीने स्नान करवुज" एवा पूर्वोक्त प्रमाणथी, पापरूप एवा मैथुनने निर्दोष कहेवाश्री, "नच मैथुने दोष” ए श्लोकमां जे दोषनो अलावज जणाव्यो हतो, ते अप्रमाण अयु; अर्थात् जे
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