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श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि ।
सर्वसंपत्करी चैका, पौरुषघ्नी तथा परा ॥ वृत्ति निक्षा च तत्व, रिति निक्षा त्रिधोदिता ॥ १ ॥ अर्थ - पहेली "सर्वसंपत्करी" बीजी "पौरुषघ्नी” तथा त्रीजी "वृत्तिनिक्षा" एवी रीते तत्वना जाणनाराए ऋण प्रकारनी - दा कहेली बे.
टीकानो जावार्थ - लोकसंबंधी, परलोकसंबंधी, तथा बेक मोक्षसुधिनी संपदा करवानो वे स्वभाव जेनो, तेने “ सर्वसंपत्करी” नामनी पेहेली एटले उत्तर जिदा जाणवी तथा पुरुषाकारने निष्फल करवायें करीने जे नाश करे, तेने "पौरुषघ्नी” नामनी बीजी एटले जघन्य निक्षा जाणवी तथा आजीविकामाटेनी जे निक्षा, तेने त्रीजी सामान्य शिक्षा जाणवी, एवी रीते परमार्थना जाणनाराए ऋण प्रकारनी निक्षा कहेली बे.
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ते मांथी पेहेली निक्षानुं स्वरूप हवे हे बे. यतिर्ध्यानादियुक्तो यो, गुर्वाज्ञायां व्यवस्थितः ॥ सदानारं जिणस्तस्य सर्वसंपत्करी मता ॥ २॥ अर्थ-मुनि ध्यानादिकमां जोडाएलो बे, तथा जे गुरुनी आशामा रहेलो बे, तथा हमेशां आरंज विनाना एवा ते यतिने " सर्वसंपत्करी" नामनी पेहेली निक्षा मानेली बे.
टीकानो जावार्थ- जे साधु थलो होय, तेने "सर्व संपत्करी” नामनी पेहेली जिक्षा कहेली बे; आ वचनथी गृहस्थीने जुदो पाड्यो. वली “यति” शब्द कहेवाथी तो ऽव्ययति पण वी जाय, माटे तेने जुदो पाडवा माटे कहे बे के, जे यति ध्यानादिकमां जोडाएलो होय, ते यतिने ते पेहेली जिक्षा कहेली े, ध्यान एटले सेंकडो नवमां उपार्जन करेलां कर्मोरूपी वनने बावामां समर्थ एवा अंतरंग तपनी क्रियारूप धर्मध्यान ने शुक्लध्यान जाणवु, अने आदि शब्दथी सघली परलोकसंबंधी
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