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पंचमाष्टक.
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अर्थ-वाव, कूवा, तलाव आदिक, तथा देवालयो, अन्नदान, अने बगीचा, ते “पूर्त" केहवाय जे. ___एवी रीतना उपर कहेला स्वरूपवावं “इष्टापूर्त" मोदनुं कारण नथीज, अने तेवी रीते व्यअग्निकारिका ईष्टकर्मरूप होवाथी मोदनुं अंग नथी; केम के वेदीमां आहूतीनी प्रधानताथी कर्मो कराय ने.
हवे ते मोदनुं अंग शामाटे नथी ? ते कहे . हे कुतीथी ! सकाम केतां अच्युदयना अनिलापिने माटेज तमाराज शास्त्रमा ते वर्णवेलु जे. केम के तमाराज शास्त्रमा कह्यु बे के, “स्वर्गकामो यजेत्” ( स्वर्गनी श्वावालाए यज्ञ करवो ) एवं श्रुतिनुं वचन 33; एवी रीते तेने उत्तम मानता थका, तथा बीजाने श्रेय नहीं मानता थका, जे मूढ पुरुषो “ईष्टापूर्तने" वखाणे , ते पुण्यबंधनश्री देवलोकमां जश, पाग आ लोकमां अथवा तेथी पण हीन एवी गतिमां उपजे जे हवे त्यारे अकामने एटले निरिन्छ माणसने शुं करवू? ते कहे जे. स्वर्ग अने पुत्रादिकनी श्वा नहीं करता एवा मुमुकुने तो “कर्मेधनं" इत्यादि उपर कहेली नावअग्निकारिकाज करवी न्यायवाली अर्थात् श्रेष्ठ जे. एवी रीते चोथा अष्टकर्नु विवरण संपूर्ण आयु.
पंचमाष्टकं प्रारज्यते. एवी रीते, तात्विक महादेवने लावस्नानपूर्वक नावपूजाथी पूजता, तथा धर्मध्यानरूप अग्निकारिका करवामां तत्पर एवा मुमुकुने अनारंजिपणुं होवाथी तथा निष्परिग्रहपणुं होवाथी, धर्मना आधारजूत एवी जे ( पोताना ) शरीरनी स्थिति, ते निदायीज थइ शके जे; माटे तेनुं (निदानुं ) स्वरूप निरूपण करवा माटे हवे कहे .
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