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________________ १७४ श्रीहरिप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । एवं ह्येतत्समादान, ग्लानजावानिसंधिमत् ॥ साधूनां तत्वतो यत्तद्, पुष्टं झेयं महात्मनिः॥४॥ ___अर्थ-एवी रीते (धर्मने व्याधात करनारो) जे अजिग्रह लेवो, ते साधुनी मांदगी चिंतववावालो ने, अने तेथी, तेवा अन्निग्रहने, उत्तम लोकोए मुष्ट जाणेलो .. टीकानो नावार्थ-(उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज . ) __एवी रीतनी अर्थापत्तिथी दोषनी प्राप्ति अन्यदर्शनीए पण अंगीकार करेली के ते देखाडता थका हवे कहे . लौकिकैरपि चैषोऽर्थो, दृष्टःसूमार्थदर्शिनिः॥ प्रकारांतरतःकैश्चि, धत एतमुदाहृतम् ॥ ५॥ अर्थ-सूक्ष्म अर्थाने जोनारा, एवा केटलाक वाल्मीकि श्रादिय लौकिकोए पण जपर कहेलो अर्थ, प्रकारांतरथी जोएलो के केम के तेए नीचेप्रमाणे कहेलुं बे.. टीकानो नावार्थ-उपर कहेलो अर्थापत्तिथी उत्पन्न थता दोषवालो अर्थ, केवल जैनीउएज जाण्यो , तेम नहीं, पण लौकिक एवा वाट्मीकि आदिक केटलाक शषिए पण जाण्यो के ते केवा ? तो के, सूक्ष्म अर्थाने जोनारा; (केम के, अतिस्थूल बुद्धिवाला माणसो तेवा अर्थाने जाण। शकता नथी.) अहीं कोई शंका करे के, मिथ्यात्विउँने सूक्ष्मदृष्टिपणुं शी रीते घटी शके ? तो के तेउने पण मतिअज्ञानावरणादिक कर्मनो क्षयोपशम होय जे; माटे कडं जेके, “सयसयविसेसाणाउगाहा." हवे तेउए केवी रीते जाण्यो ? तो के, अमोए कहेला प्रकारथी बीजी रीते तेए जाण्यो , केम के, तेए नीचेप्रमाणे कडं . अंगेष्वेव जरा यातु; यत्त्वयोपकृतं मम ॥ नरःप्रत्युपकाराय, विपत्सु लजते फलम् ॥ ६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003686
Book TitleHaribhadrasuri krutanyashtakani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1900
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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