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________________ ११० श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । . अर्थ-रत्नादिकनो व्यापार करवावाला वणिक् आदिकोने, वांजित अर्थनी सिधिमां (थती) शरीरनी पीडा, मुःखने देनारी जोएली नथी; अने तेनी पेठे श्रा तपने विषे पण जाणी लेवु. टीकानो नावार्थ-“इष्ट अर्थनी प्राप्तिमां थती देहपीडा दुःख करनारी नथी,” एम केवल अमोज कहीयें जीयें, एम नहीं, लोकमां पण ते वात प्रसिधज जे हवे ते कोने ? ते कहे , के, रत्न, वस्त्र, सुवर्ण आदिकनो व्यापर करनाराउने तथा खेमु आदिकोने अती देहपीडा जेम तेउने मुःखदाइ यती नथी, तेम आ अनशनादिक तपने विषे पण निपुण बुद्धिथी विचारी ले. अर्थात् जेम रत्न, सोनुं अने वस्त्रादिकनो व्यापार करता एवा वेपारी, तथा खेती करता एवा खेमु आदिक, के जेए वांछित अर्थनी सिधिमांज एक निश्चय बांधेलो ने, एवा, अने वली अपार समुअमां, तथा वनोमां लटकवावाला, तथा खेती आदिक अनेक व्यापारमा तत्पर, एवा तेउने नूख, तृषा, तथा धाक श्रादिकथी उत्पन्न भएली शरीरनी पीडा मनने पुःख आपनारी थती नथी, तेम आ अपार संसारसमुपथी तरवानी श्वा राखनारा साधुउने अनशन अने उनोदरी आदिक तपस्याथी थती देहनी पीडा मनने खेद करनारी थती नथी. ___ अहीं केटलाक आचार्यो वली नीचे प्रमाणे पण कहे बे. कोश्क दरिज व्यापारीए दूर देशांतरमा जइ, घणीक मेहेनते केटलांक रत्नो मेलव्यां; त्यारे विचारवा लाग्यो के, आ महामूट्यवालां, तथा सर्व आशाने उत्पन्न करनारां रत्नोने ले, चोरोथी नरेलां था वनने उलंधी, घेर जइ, तेनो उपलोग शीरीते लेश ? पछी तेणे बुद्धीवडे करीने ते रत्नो एक जगोए राख्यां; तथा काच आदिकना कटका एक पोटलीमां बांधीने, ते पोटली लाकडीने खेडे लटकावी; पनी "अरे आ रत्ननो वेपारी चोरनी पसीमांथी जाय जे;" एम पोकार करतो को वनमाथी जवा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003686
Book TitleHaribhadrasuri krutanyashtakani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1900
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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