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________________ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । हवे तेनो प्राचार्य महाराज उत्तर पे बे. प्रदाने हि राज्यस्य, नायकाजावतो जनाः ॥ मिथो वैकालदोषेण, मर्यादाभेदकारिणः ॥ २ ॥ विनश्यत्यधिकं यस्मा, दिलोके परत्र च ॥ शक्तौ सत्यामुपेक्षा च, युज्यते न महात्मनः ॥३॥ तस्मात्तडुपकाराय, तत्प्रदानं गुणावहम् ॥ परार्थदीक्षितस्यास्य, विशेषेण जगङ्गुरोः ॥ ४ ॥ १९४ अर्थ- जो जगवान राज्य सोंपी न जाय, तो नायकना - जावथी माणसो, कालना दोषथी मांहों मांहें पोतानी मर्यादानो जंग करनारा थाय; अने एवी रीते लोक ने परलोकमां मनो कि विनाश थाय; अने वली पोतानी शक्ति बतां महात्माने उपेक्षा करवी, ते युक्त कहेवाय नहीं; माटे तेज॑ना उपकारने अर्थे, ते राज्य सोंपी आपवुं, ते उत्तम बे; अने तेमां पए परने जेणे दीक्षा लीधी बे, एवा जगतना गुरु तीर्थंकर महाराजने तो ते करवुं, विशेष करीने युक्त बे. टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे.) हवे हीं कोई वादी एवी शंका करे के, नगवाने जे विवाह श्रादिक व्यवहार देखाड्यो, ते दोषणवायुं बे, तेने माटे हवे तेने कहे . एवं विवाहधर्मादौ तथा शिल्प निरूपणे ॥ न दोषोत्तमं पुण्य, मिठमेव विपच्यते ॥ ५ ॥ अर्थ - एवी रीते विवाह ने राज्य धर्मादिकमां, तथा कला शिखववामां, तीर्थंकरने दोष नथी; केम के, तीर्थकरनामकर्मरूपी जे उत्तम पुण्य, ते तेवीज रीते विपाकने पामे बे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003686
Book TitleHaribhadrasuri krutanyashtakani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1900
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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