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________________ माटे, पते कषायादी)ोजे, कम गुणनी श्रीहरिलप्रसूरिकृतान्यष्टकानि। दिकने विषे संशय विनानु, तथा अनर्थ आदिकनी प्राप्तिवालु, " आत्मपरिणतिमत् " ज्ञान मानेलुं . टीकानो नावार्थ-“पातादिपरतंत्रस्य" केतां नीची अने उंची गति माटे, परतंत्र थएला एटले विषय, अने कषायादिके वश करेला प्राणीने, ते कषाय आदिकधी थता कर्मबंध अने मुर्गति श्रादिक दोषमां, अने (आदिशब्दथी) अभ्युदय आदिक गुणमां, जे संशयरहितपणानुं ज्ञान थाय ने, तथा जे, कर्मबंधन अने मुर्गतिगमन रूपी अनर्थ, अने परंपराथी मलता मोक्षरूपी गुणनी प्राप्तिवालुबे, तेने तत्वना जाणनाराए "आत्मपरिणतिमत्" ज्ञान मानेलुं . अहीं दृष्टांत नीचेप्रमाणे जाणवू. अवली चालना घोडापर बेसवाथी परतंत्र श्रएला स्वारने, अंगलंग, तथा मरणादिक दोषमां, तथा रुना समूहना कोमल स्पर्शादिक गुणमां संशयरहितपणुं श्राय तथा ते अंगनंगादिक अनर्थ, अने सुखस्पर्शादिक गुणनी प्राप्तिवालुं बे; एम ते माने. ___ हवे तेज आत्मपरिणतिमत् ज्ञान, लिंगादिकथी निरूपण करता थका कहे . तथाविधप्रवृत्त्यादि, व्यंग्यं सदनुबंधि च॥ झानावरण हासोत्थं, प्रायो वैराग्यकारणम् ॥५॥ अर्थ- तेवा प्रकारनी प्रवृत्ति आदिकथी प्रगट श्रनालं, तथा शुल अनुबंधवालुं, तथा ज्ञानावरणादिकना नाशथी उत्पन्न थएलु, अने प्रायें करीने वैराग्यना कारण रूप, ते "आत्मपरिणतिमत्” ज्ञान जाणवू. टीकानो नावार्थ- तेवा प्रकारनी अहिंसादिकने विषे जे प्रवृत्ति आदिक, ते अकी प्रगट अवारूप , चिन्ह जेनु, तथा परंपराथी मोक्षफलने देवारूप ने सदनुबंध जेनो, एवं ते आत्मपरिणतिमत् ज्ञान बे; हवे ते ज्ञान शुं हेतुवालु चे? ते कहे जे के, मति आदिक शाननुं जे आवरण, तेना दयोपशमथी उत्पन्न थ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003686
Book TitleHaribhadrasuri krutanyashtakani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1900
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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