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________________ ५५ स्तुति करवातारवी,ते पूजासापायविनिमुक्त जाणार तृतीयाष्टक. पण तेज (निषेधपणानो) प्रसंग आवे; केम के, वीतरागने ज्यारे आजूषणो न पहेराववां, त्यारे पुष्पो पण न चडाववां जोइए, केम के, ते बन्ने रागने गोचर वे. ___ हवे अष्टपुष्पी पूजानुं कारण कहे जे. अनर्थना हेतुजूत एवा ज्ञानावरणादिक जे आठ अपायो, अथवा प्रकारांतरथी दग्धरज्जुनी कल्पना करवाथी नवोपग्राही एवां चार कर्मोश्री मुकाएला, अने तेवी रीते कर्मोएं करीने मूकायाथी उत्पन्न थती जे अनंत ज्ञानदर्शन आदिकनी लक्ष्मी, ते वे जेने एवा जिनेश्वरप्रते पूजा करवी. ते जिनेश्वर केवा तो के, स्तुति करवालायकने पण स्तुति करवालायक, एवा देवप्रते जे अष्टपुष्पी पूजा करवी,ते पूजा सर्वज्ञोए अशुध(सावद्य)कहेली बे. अहीं वादी शंका करे के, “अष्टापायविनिर्मुक्तागुणतियस्य” एवी रीतना वाक्यश्रीज अष्टपुष्पीन कारण तो जणा आवे , उतां “तत्” शब्द ग्रहण करवानी शी जरूर हती ? त्यारे तेने कहे जे के, एम नहीं; “ अष्टापायविनिर्मुक्तायदीयते" एम कहेवाथी अष्टपुष्पीन कारण कह्यु; अने “तमुत्थगुणनूतये” एम कहेवाथी चतुःपुष्पीन कारण कयु; केम के, ते अनंतझान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, तथा अनंतवीर्यरूप . त्यारे वली अहीं वादी शंका करे के, “अष्टापायविनिर्मुक्ताय" एवं कहेवाश्रीज तेथी उत्पन्न श्रता अनंतझानादिक गुणो तो जणाश् आवे बेज. (त्यारे फरीने ते ग्रहण करवानी शी जरूर हती ?) त्यारे तेने कहे जे के, एम पण नहीं. __ केम के, केटलाको ( अन्य दर्शनी पोताना ) सिद्धोने प्रकृतिना वियोगश्री ज्ञाननो अनाव, शरीर अने मनना वियोगश्री वीर्यनो अनाव, तथा विषयना वियोगथी सुखनो अनाव कहे ; तेना मतनुं खंडन करवा माटे एवी रीते सुकवू पड्युं बे. त्यारे वली अहीं वादी शंका करे के, ज्यारे एम ने त्यारे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003686
Book TitleHaribhadrasuri krutanyashtakani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1900
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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