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________________ ७६ श्रीहरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । हस्थीउने, धर्मने साधनार एवीजे पोतानी (मुनिनी) काया, तेना उपकारने करनार एवो जे आहार, तेना ग्रहण करवायें करीने, श्रदयसुखनां फलरूप जे मोदरूपी वृद, तेना बीज समान, एवी पुण्यनी प्राप्तीथी, ते यति उपकार करे ,) अने, आहारविना शुद्ध धर्मरूपी मेहेलना शिखरपर बेसवाने असमर्थ, एवा पोता'ना देहने आहाररूपी आलंबन देवाथी, तेनो ( पोताना देहनो) पण उपकार करे . आम कहेवाथी गृहस्थीने अप्रीति जपजावीने आहारनी लोलताश्री, धर्मने नुकशानकारक आहार ग्रहण करीने, जे यति, धर्मना कार्यनो उलटो अपकार करे , तेना ( यतिपणानो ) निषेध कर्यो. तथा धनवानना पुत्रादिकपणाश्री जे मुनि दीनताथी शरमातो को निदा माटे नमे बे, तेना निषेधने माटे हवे कहे जे. “ विहिता" केतां यतिनी अवस्थाने उचित एवी आ लिदा, तीर्थकरोए पण आचरेली तथा उपदेशेली; एवी रीतनी निदा उत्तम अध्यवसायथी जमता एवा यतिने थाय ने, अथवा “ विहिता” एटले गृहस्थी अने देहना उपकार माटे जिनेश्वर प्रनुए कहेली . उपर कहेली रीतथी उलटी रीते करेली निदा, “पौरुषत्री" थाय ने तेनुं स्वरूप प्रतिपादन करवा माटे हवे कहे जे. प्रव्रज्यां प्रतिपन्नो य, स्तहिरोधेन वर्तते ॥ असदारंनिणस्तस्य, पौरुषनीति कीर्तिता ॥५॥ अर्थ-जे मुनि दीक्षा लेने पण, तेश्री विरुष्ध रीतें करीने वर्ते बे, एवा असदारंजी मुनिनी निदाने “ पौरुषत्री” कहेली ने. __टीकानो लावार्थ-सर्व वीरतिरूप एवी दीक्षा लेने पण जे यति, तेनाथी विरुष्ठ रीते, एटले मूलगुण अने उत्तरगुणने विराधीने, अथवा पूर्वे कहेला ध्यान, ज्ञान, अने गुरुनी आज्ञानी अपेक्षा नहीं राखीने, वर्ते , तथा असदारंजी एटले (पृथ्वी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003686
Book TitleHaribhadrasuri krutanyashtakani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1900
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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