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________________ द्वादशमाष्टक. १२५ एवीरीतना वादथी उत्तम फल मले बे, माटे ते "धर्मवाद" कहेवाय बे, ते फलने माटे हवे कड़े बे. विजयेऽस्य फलं धर्म, प्रतिपत्त्याद्यनिंदितम् ॥ श्रात्मनो मोहनाशश्च नियमात्तत्पराजयात् ॥ ॥ अर्थ वा धर्मवाद करनारने जितवाथी तेने ( प्रतिवादीने ) धर्मनी प्राप्ति आदिक उत्तम फल मले बे; अनेकदाच तेमां साधुनो पराजय थाय, तो निश्रयें करी ने तेना ( साधुना ) - त्मानी मूढतानो नाश थाय. टीकानो जावार्थ- परलोक बे प्रधान जेने, इत्यादि विशेषणवाला वादीनी, साधु साथेना विवादमां जो हार थाय, तो तेने ( ते वादीने ) जिनेश्वरे कहेला श्रुतचारित्ररूप धर्मनी प्राप्तिरूप उत्तम फल प्राप्त थाय. छाने कदाच तेवा वादीथी जो साधुनो पोतानो पराजय थाय, तो तेना ( साधुना ) तत्वादिकोने विषे तत्वादिकना अध्यवसायरूप अज्ञाननी निश्चयें करीने हानि थाय. त्यारे हवे शुं धर्मवादज करवो ? ने बीजा बन्ने वादो न करवा ? एवी आशंकामां जे करवानुं बे, तेनो उपदेश देता थ काकडे वे. देशाद्यपेक्षया चेह, विज्ञाय गुरुलाघवम् ॥ तीर्थकृद्ातमालोच्य वादः कार्यो विपश्चिता छ अर्थ- देशादिकनी अपेक्षायें करीने, गुरुता तथा लघुताने जाणीने, श्री वीरप्रनुना दृष्टांतने विचारिने यहीं पंडित माणसे वाद करवो. टीकानो जावार्थ- देश, एटले गाम, नगर, जनपदादिक, तथा आदि शब्दथी काल, राजा, सभासद, तथा प्रतिवादी दिकन पेक्षा वाद करवो; अर्थात् देश एटले ज्यां कुती - - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003686
Book TitleHaribhadrasuri krutanyashtakani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1900
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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